हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
भाजपा का पहला ध्येय नीतीश कुमार को निस्तेज करना था ताकि वह राजद के साथ सीधे आमने-सामने की भूमिका में आ सके. जैसा कि लग रहा है, उसे अपने ध्येय में सफलता मिल रही है क्योंकि प्रायः हर पूर्वानुमान नीतीश कुमार के राजनीतिक पराभव की संभावना जता रहे हैं.
भाजपा ने बिहार के इस चुनाव में अपनी दीर्घकालीन राजनीति को ध्यान में रख कर दांव चले हैं. यूपी में मुख्य राजनीतिक ताकत बन जाने के बावजूद बिहार में अब तक सत्ता का केंद्र नहीं बन पाना निश्चित ही उसे साल रहा होगा. कई बिहारी विचारक/विश्लेषक इस संदर्भ में अक्सर गर्व के साथ लिखते-कहते रहे हैं कि बिहार की धरती पर साम्प्रदायिक राजनीति का सिर चढ़ कर बोलना आसान नहीं है. नीतीश वर्सेज लालू के राजनीतिक द्वंद्व में भाजपा की तीसरी शक्ति की भूमिका में रहना विचारकों की इन बातों को पुष्ट करता रहा.
अब लगता है कि लालू-नीतीश की संयुक्त सरकार से नीतीश को तोड़ कर फिर से अपने पाले में लाने की भाजपा की रणनीति उसकी इसी दीर्घकालीन राजनीति का एक सोपान था. उसे नीतीश का शिकार करना था ताकि वे अप्रासंगिक होकर अपनी आभा खो बैठें और बिहार का भावी राजनीतिक परिदृश्य भाजपा बनाम अन्य का बन जाए. राजद की सरकार बन जाने से भाजपा को अपनी वाली राजनीति करने की सुविधा मिल सकती है. ऐसी राजनीति, जिसके सामने नीतीश कुमार सदैव एक अवरोध की तरह खड़े हो जाते थे.
सीमांचल में योगी के भाषण और ध्रुवीकरण की भाजपा की कोशिशें इसका संकेत दे रही हैं कि यहां भविष्य में उसकी राजनीति का स्वरूप क्या होगा. राजद बनाम भाजपा. यह भाजपा के लिये आइडियल पिच होगा जहां वह 2024 की बिसात अभी से बिछा सकती है. बिहार के 40 लोकसभा क्षेत्र उसके लिये इतने महत्वपूर्ण हैं कि उनके लिये फिलहाल ऐसी सरकार की संभावना को पलीता लगाने में कोई गुरेज नहीं जिसका नेतृत्व कोई और करता रहे और भाजपा पीछे की ताकत बनी रहे. सरकार का क्या है, वह 2025 में फिर से बन सकती है. डायरेक्ट भाजपा सरकार जिसके पीछे कुछ छुटभैये जातीय ठेकेदार अन्य सहयोगी दलों के रूप में रह सकते हैं.
कठिन वादों और असीमित जनाकांक्षाओं की लहरों पर सवार तेजस्वी यादव की सरकार अगर बन जाती है तो उसके खिलाफ मुद्दे खड़े करना भाजपा के लिये बहुत अधिक कठिन नहीं होगा. अति सीमित संसाधन और केंद्र सरकार का संभावित अप्रत्यक्ष असहयोग तेजस्वी यादव के वादों को पूरा होने देने में बड़ी बाधा साबित हो सकते हैं.
हाल के वर्षों में सामाजिक समीकरणों को साधने में भाजपा ने बड़ी सफलताएं हासिल की हैं. ‘प्रोपेगेंडा पॉलिटिक्स’ और ‘प्रोपेगेंडा जर्नलिज्म’ भाजपा के दो महत्वपूर्ण और धारदार हथियार हैं. तेजस्वी यादव को हमेशा ऐसी कसौटियों पर कसा जाता रहेगा जो सामान्य तौर पर उनके लिये अन्याय होगा, लेकिन यह अन्याय करने में भाजपा कतई पीछे नहीं रहने वाली. सामने 2024 का मैदान है और फिर 2025 में बिहार विजय का स्वप्न, इसके लिये राजनीतिक-सामाजिक स्तरों पर जो करना पड़े, भाजपा करेगी.
विधान सभा चुनावों में अभी तक बिहार में हिन्दू वोट बैंक की कोई अवधारणा आकार नहीं ले सकी थी. जब आमने-सामने दो समाजवादी मूल के नेता हों तो इसकी संभावना भी नहीं बनती. 2015 में भाजपा ने इसकी कोशिश जरूर की, लेकिन लालू-नीतीश की संयुक्त शक्ति के सामने यह प्रयास अपनी धार नहीं पा सका. अब, परिदृश्य से अगर नीतीश ओझल होते हैं और राजद बनाम भाजपा का मैदान सजता है तो हिन्दू वोट बैंक की अवधारणा को आकार देने की भाजपाई कोशिशें परवान चढ़ सकती हैं.
सोशलिस्टों ने पहले जनसंघ और बाद में भाजपा को राजनीतिक स्वीकार्यता पाने में बड़ी मदद की है. स्वीकार्यता के बाद विस्तार पाना कुछ अधिक सहज हो जाता है. भाजपा ने इस सहजता का जम कर लाभ उठाया. हरियाणा से लेकर यूपी और अब बिहार.
नीतीश का नेपथ्य में जाना तेजस्वी की तात्कालिक जीत है लेकिन भाजपा की दीर्घकालिक राजनीतिक जीत. चिराग पासवान जैसों की राजनीतिक औकात इतनी ही है जितनी नजर आ रही है इस चुनाव में. भाजपा ने उनका उपयोग किया और लाभ उठाया. बदले में केंद्र में मंत्री का पद मिल जाएगा और चिराग की 5-6 प्रतिशत वाली राजनीति फिलहाल चलती रहेगी. कुछ सीटें, एकाध मंत्री पद, अंदरखाने कुछ चिकनी-चुपड़ी बातें और बदले में 5-6 प्रतिशत वोटों का मनमाना उपयोग-दुरुपयोग. भाजपा के लिये ऐसे सौदे अधिक महंगे थोड़े ही हैं. दांव पर जब पूरी शताब्दी से देखे जा रहे सपने हों और लक्ष्य बृहत्तर हों तो ऐसी जातीय कठपुतलियों को पालना ही पड़ता है. इसमें हर्ज भी क्या है !
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