छत्तीसगढ़ में एक बार फिर माओवादियों के साथ ‘मुठभेड़’ में 13 माओवादियों को छत्तीसगढ़ पुलिस ने शहीद कर दिया है. मारे गए माओवादियों को ‘शहीद’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि छत्तीसगढ़ में माओवादी वहां के निवासी गरीब-पीड़ित आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए सरकार से लड़ती है, जबकि छत्तीसगढ़ में पुलिस आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन को हड़पने और उस हड़पी गई सम्पत्ति को देश के कॉरपोरेट घरानों को देने के लिए लड़ती है. साफ है माओवादियों की लड़ाई न्यायपूर्ण है जबकि पुलिस अन्याय पर उतारु है.
जहां तक मुठभेड़ में 13 माओवादियों के मारे जाने की बात है तो यह संख्या अचंभित नहीं करती है क्योंकि भारत सरकार आदिवासियों की जल-जंगल-जमीन को छीनकर कॉरपोरेट घरानों को देने के लिए जिस हथियारबंद पुलिसिया गिरोह को आदिवासियों की हत्या करने के लिए भेजती है, वह दुनिया की सबसे उन्नत स्वचालित हथियारों से लैस होती है, ड्रोन कैमरा, जो किसानों के उपर बम गिराने में पंजाब-हरियाणा के बॉर्डर पर प्रयोग में लाया गया था, यहां खुफिया जानकारी हासिल करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है.
वहीं, जिस तरह हजारों की तादाद में पुलिसिया गिरोह द्वारा माओवादियों को घेरकर हमला करती है, उन्हें शहीद करती है, और उसके बाद लाखों रुपयों का इनाम हासिल करती है, इतना कुछ करने के बाद माओवादियों को समूल खत्म हो जाना चाहिए था. परन्तु, माओवादियों के कुछ लोग शहीद होते हैं, जो दर्शाता है कि पुलिसिया गिरोह जो भाड़े के गुंडे होते हैं, जनता के बहादुर बेटों (माओवादियों) के सामने, जिनकी संख्या बेहद कम होती है, उनके हथियार भी उतने उन्नत और पर्याप्त नहीं होते हैं, के सामने टिक नहीं पाती है.
फिर पुलिसिया गिरोह क्या करती है ?
पुलिसिया गिरोह मुठभेड़ के पहले माओवादियों को शांति वार्ता का झांसा देती है. इससे कई बार माओवादी अपनी सतर्कता में कमी कर जाते हैं, जिसका लाभ उठाकर पुलिसिया गिरोह चुपचाप माओवादियों की किसी टुकड़ी को घेर लेते हैं और फिर मुठभेड़ शुरु हो जाती है. जहां माओवादियों की ओर से गोलियां चलती है, तो वहीं पुलिसिया गिरोह मां-बहन की गालियों के साथ गोली चलाता है.
मुठभेड़ के बाद क्या होता है ?
मुठभेड़ के बाद माओवादी किसी और दिशाओं में चले जाते हैं. उसके बाद पुलिसिया गिरोह वहां पर जो कोई निहत्थे युवा-बूूूढ़े, बच्चे दिख जाते हैं, उन्हें सीधा गोली मार देती है. फिर उनके शवों को माओवादियों के ड्रेस कोड पहनाता है और उन्हें माओवादियों का खूंखार दस्ता बताकर अपने अस्त्रागारों से भौचक्का कर देने वाला हथियार निकालकर ‘पत्रकारों’ को बुलाकर उनके शवों के साथ प्रदर्शनी करते हुए पाशविक अट्टहास करता है और जश्न मनाता है.
वह स्त्रियों का क्या करता है ?
यह पाशविक पुलिसिया गिरोह स्त्रियों के साथ सामूहिक पाशविक बलात्कार करता है. उसके साथ नृशंश तरीकों से हैवानियत की सीमा पार करते हुए उन्हें नृशंस यातना देता है. उनकी योनी में पत्थर भरता है, उनकी स्तनों में बिजली के तार लगाकर करेंट दौड़ता है और उन महिलाओं की चीख सुनकर वह पाशविक अट्टहास करता है. हर तरह की यातना देने के बाद जब उन महिलाओं से उसका मन भर जाता है, तब उस मरन्नासन्न स्त्रियों को माओवादियों के ड्रेस कोड पहनाकर उनका अंग-भंग कर कुल्हाड़ी या चाकुओं या गोली मारकर हत्या कर देता है और अखबारों में बड़े-बड़े हेडिंग लगाकर अपना पीठ थपथपाता है.
सरकार क्या करती है ?
सरकार उन दरिंदे पुलिसिया गुंडे को लाखों रुपयों से पुरस्कृत करती है. उसके सड़े हुए छाती पर तमगे लगाता है, और फिर उस गिरोह के दरिंदों को नई हत्याओं के लिए टास्क देता है. खुशी से हिलोरें खा रहे ये दरिदें फिर से आदिवासियों की जल-जंगल-जमीन हड़पने की दिशा में आगे बढ़कर इसी तरह और मुठभेड़ों की तैयारी में जुट जाता है.
माओवादी क्या करते हैं ?
माओवादी अपने शहीद साथियों की शहादत से सबक लेते हैं, उन शहीद साथियों की शहादत को नमन करते हैं और उनकी वीरता का समुचित चित्रण कर आम लोगों के बीच उनको सम्मानित करते हैं. वे देश की जनता को बताते हैं कि किस तरह उनके ये बहादुर बेटे जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए लुटेरी कॉरपोरेट घरानों के कारिंदों से लड़े और अपनी शहादतें दी. इसके साथ ही वे निहत्थे ग्रामीणों की हत्या और महिलाओं के साथ पाशविक बलात्कार और हत्या के खिलाफ आक्रोश जताते हुए बदला लेने का आह्वान करते हैं. और फिर किसी दिन मौका पाकर 60-70 पुलिसिया गुंडा गिरोह को मौत के घाट उतार देते हैं.
पुलिसिया गिरोह की मौत से जनता के बीच जहां साहस का संचार होता है, वहीं भयाक्रांत शासक वर्ग फिर से शांति वार्ता का आह्वान करने लगता है. यानी वह चक्र एकबार फिर शुरु हो जाता है.
पुलिसिया गुंडा की मौत के बाद क्या होता है ?
जब किसी मुठभेड़ या हमला में पुलिसिया गुंडा गिरोह को मौत के घाट उतारा जाता है तब उसकी मौत पर तात्कालिक दिखावे के तौर पर सम्मान आयोजित किया जाता है, कुछ पैसे वगैरह दिया जाता है लेकिन इसके बाद उन पुलिसिया गुंडों की कोई भी सामाजिक हैसियत नहीं बचती है. ऐसे हजारों उदाहरण मौजूद हैं जब माओवादियों के साथ मुठभेड़ में मौत के घाट उतारे गये ये भाड़े के गुंडे न केवल सामाजिक तौर पर घृणा के पात्र बनते हैं अपितु जिसके लिए ये मारे गए हैं, वह भी इसे घृणा की दृष्टि से देखता है.
यहां तक की माओवादियों के देखादेखी जिस ‘स्मारक’ को बनाने का दिखावा इस गिरोह के लोग करते हैं, आप उसमें भ्रष्टाचार की पूरी गंध महसूस कर सकते हैं. जबकि माओवादियों द्वारा अपने शहीद साथियों की याद में बनाये स्मारकों की गुणवत्ता देखकर आप दांत दबाने पर मजबूर हो जायेंगे. माओवादियों द्वारा स्मारक बनाने का नियम समूचे देश में हैं बल्कि कहें समूची दुनिया में है. बिहार में भी एक स्मारक है, जिसकी खूबसूरती मन मोह लेगी जबकि पुलिसिया गुंडा गिरोह का स्मारक मन घृणा से भर देगा.
यह चक्र कब रुकेगा ?
यह चक्र भारत की परिस्थितियों में लंबा चलेगा. हर बार मौतों की संख्या बढ़ेगी. जब पुलिसिया गिरोह बड़े पैमाने पर मारा जाने लगेगा तब शासक वर्ग ‘बॉर्डर की रक्षा’ करने वाली सेना को उतारेगा. जब वह भी बड़े पैमाने पर मारा जाने लगेगा तब यह शासक वर्ग विदेशी सेनाओं (मसलन, अमेरिकी गिरोह वाली नाटो) को आमंत्रित करेगी. इससे निश्चित तौर पर मौतों की संख्या अतुलनीय रुप से बहुत ज्यादा बढ़ेगी.
जब अमेरिकी साम्राज्यवाद और उसके गुर्गे नाटो की सेनाओं को भारत की जमीन में बड़े पैमाने पर दफन किया जाने लगेगा तब जाकर जनता के जल-जंगल-जमीन की बात करने और लड़ाई लड़ने वाले माओवादियों की देश में सरकार बन जायेगी. सारे कॉरपोरेट घरानों की सम्पत्ति जप्त कर ली जायेगी. जनता के शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों की गारंटी दी जायेगी. जनता पर हमला करने वाले सारे गुनहगारों को मौत के घाट उतार दिया जायेगा (हालांकि तब तक बहुत सारे कॉरपोरेट घरानों और उसके टुकरखोर विदेशों में जा बस चुके होंगे.)
इन सब में कितना वक्त लगेगा ?
यह वक्त हर देश की परिस्थितियों पर निर्भर करता है, जो अलग अलग है. मसलन, रुस में कम से कम दो साल लगे थे, चीन में लगभग 25 साल का वक्त लगा था, अन्य देशों वियतनाम, उ. कोरिया, क्यूबा आदि में भी अलग अलग वक्त लगा था. भारत में अभी तकरीबन 55 साल हुआ है.
कितनी मौतें होगी ?
इसका जवाब भी उपर की ही तरह अलग अलग होगा. मसलन, रुस में तकरीबन डेढ़ करोड़ तो चीन में तकरीबन 10 करोड़ लोग मरे थे. इस हिसाब से भारत की जनसंख्या, विशालता और शासक वर्ग की सैन्य ताकतों को देखते हुए कम से कम 20 से 25 करोड़ लोग मारे जायेंगे. अभी के 55 सालों में एक अपुष्ट आंकडों की बात करें तो मात्र 8 लाख लोग ही मारे गए हैं. आजादी अपना मूल्य मांगती है. जल-जंगल-जमीन अपना मूल्य मांगती है और उसका मूल्य सिक्कों में नहीं लाशों में मापा जाता है.
मौजूदा बीजापुर मुठभेड़ की क्या कहानी है ?
कोई कहानी नहीं है. यह एक लड़ाई है, जैसा मैंने उपर बताया कि यह लड़ाई जल-जंगल-जमीनों के रक्षक माओवादियों और लुटेरे कॉरपोरेट घरानों के भाड़े के गुंडों की बीच है. इस मुठभेड़ में 5 माओवादी को शहीद किया गया है, जिनका नाम और पद इस प्रकार है –
- सुखराम हेमला, (पीपीसीएम) एसीएम रैंक, पीएलजीए की कंपनी नं. – 2
- हूंगा परसी, पीएलजीए की कंपनी नं. – 2
- हूंगा कुंजाम, पीएलजीए की कंपनी नं. – 2
- सीतक्का (डीवीसी सदस्य जितरू की पत्नी), पीएलजीए की कंपनी नं. – 2
- दुला सोनू, पीएलजीए की कंपनी नं. – 2
इनके अलावा 8 अन्य ग्रामीणों की गोली मारकर पुलिसिया गिरोह ने हत्या कर दी है, जिनकी पहचान अभी तक नहीं हो पाई है. माओवादी संभलकर जल्दी ही 30-40 कारिंदों को मौत की घाट उतारकर बदला लेंगे और अपने अस्त्रागारों में इजाफा करेंगे. यह बीजापुर मुठभेड़ इस लंबी चक्र का महज एक चक्र मात्र है, जो नये चक्र का प्रस्थान बिन्दु बनेगा.
- प्रभाकर झा
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