गिरीश मालवीय
बजट में सरकार द्वारा एलआइसी में अपनी हिस्सेदारी बेचने के ऐलान के बाद एलआइसी के भविष्य और उसमे निवेश की गई अपनी बचत की रकम को लेकर लोगो के मन मे कई शंकाएं उठ खड़ी हुई है. अपना पेट काट कर खून पसीने के कमाई से व्यक्ति कुछ बचत एलआइसी जैसी संस्थाओं में रखता है तो सरकार को यह आश्वस्त करना जरूरी है कि उसकी रकम सेफ रहेगी लेकिन, मोदी सरकार हर वो काम कर रही है, जिससे लोगों में डर फैलता जा रहा है.
हमें यह समझना होगा कि अब तक एलआइसी को भरोसे का प्रतीक क्यों कहा जाता है ?
ऐसा क्या अलग है एलआइसी में जो दूसरी बीमा कंपनियों के पास नही है ?
ऐसा क्यों है कि देश में बीमा का दूसरा नाम एलआइसी हो गया है ?
देश के कुल जीवन बीमा में से 76.28 फीसद एलआइसी के पास हैं. दरअसल यह भरोसा किसी दल विशेष की सरकार पर नहीं है. यह भरोसा देश की जनता का अपने संस्थान पर भरोसा है कि इसमें निवेश की गयी रकम डूबेगी नहीं.
एलआइसी मूल रूप से एक सरकारी कम्पनी है. सरकार की हिस्सेदारी आज एलआइसी में 100 फीसद है. यह बात इसे दूसरी कंपनियों से अलग करती है. एलआइसी की स्थापना 1956 में हुई और इसके लिए नेहरू सरकार ने बकायदा संसद से एक अधिनियम पारित किया. यानी एलआइसी के कामकाज के लिए संसद ने अलग से कानून बना रखा है. वैसे तो देश के बीमा उद्योग पर इंश्योरेंस रेगुलेटरी डेवलेपमेंट अथॉरिटी (आइआरडीए) निगरानी करती है, लेकिन एलआइसी की स्थिति इसलिए अलग है कि उसे इस कानून के तहत एक विशिष्ट दर्जा दिया गया है.
अब यह समझिए कि इस कानून में हमारी निवेश की गई रकम की सुरक्षा के लिए क्या विशेष उपबन्ध किया गया है. एलआइसी अधिनियम, 1956 की धारा 37 कहती है कि एलआइसी बीमा की राशि और बोनस को लेकर अपने बीमाधारकों से जो भी वादा करती है, उसके पीछे केंद्र सरकार की गारंटी होती है. यह इस कानून का सबसे महत्वपूर्ण उपबन्ध है. हमारी द्वारा किये गए निवेश की गारंटी देश की सरकार ले रही है, यह सॉवरेन गारंटी है. आप समझ ही गए होंगे कि इस उपबन्ध का मतलब क्या है. कि यह कितना महत्वपूर्ण है.
अब क्या होने जा रहा है वह समझिए. जैसा कि 2020 के यूनियन बजट में कहा गया है कि सरकार अब एलआइसी का आईपीओ लाने जा रही है. इस वित्त वर्ष की दूसरी छमाही में एलआइसी का आइपीओ आएगा लेकिन सरकार को एलआइसी का आइपीओ लाने से पहले एलआइसी अधिनियम में संशोधन करना होगा और सूत्रों का कहना है कि इस विनिवेश के लिए धारा 37 में दी गयी गारंटी को बदलने की जरूरत होगी. इसलिए यह कहा जा रहा है कि एलआइसी में सरकारी हिस्सेदारी में किसी भी तरह की छेड़छाड़ से बीमाधारकों का इस संस्थान पर से भरोसा हिला देगा. यह बहुत ही महत्वपूर्ण मसला है और विपक्षी दलों को इस बात का संज्ञान लेते हुए यह प्रश्न संसद में उठाना चाहिए और मोदी सरकार से यह पूछना चाहिए कि एलआइसी का आईपीओ लाने का सरकार द्वारा दी जा रही जनता की एलआइसी में जमा रकम पर दी जा रही सॉवरेन गारण्टी पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
हमें इस बात से कोई मतलब नही है कि यह दशक का सबसे बड़ा आइपीओ साबित हो सकता है या यह दुनिया का सबसे बड़ा आईपीओ साबित हो सकता है, हमें सिर्फ यह चाहिए कि एलआइसी में जमा हमारी रकम सुरक्षित रहे, उसकी गारण्टी बरकरार रहे और कुछ नहीं ?
वहीं, कल खबर आई कि भारत की सरकारी तेल कंपनी भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (BPCL) को रूस की सरकारी कंपनी रोजनेफ्ट खरीदने वाली है. गुजरात के जामनगर में स्थित देश की दूसरी सबसे बड़ी प्राइवेट ऑयल रिफाइनरी में जो पहले एस्सार ऑयल के नाम से जानी जाती थी, वह अब रोजनेफ्ट की मिल्कियत है. यदि रोजेनॉफ्ट भारत पेट्रोलियम की हिस्सेदारी खरीद लेती है तो देश के तेल मार्केट में रूसी कंपनी की बड़ी भूमिका हो जाएगी.
आपको याद होगा कि प्रधानमंत्री कुछ महीने पहले रूस के दौरे पर गए थे और वहां उन्होंने राष्ट्रपति पुतिन के सामने यह आश्चर्यजनक ढंग से यह घोषणा की थी कि भारत रूस को एक अरब डॉलर का कर्ज देने जा रहा है. यानी यहां अपनी संपत्तियों को बेचा जा रहा है, वहां प्रधान सेवक उस पैसे से कर्जा बांट रहे थे. इस एक अरब डॉलर तो लोन के अलावा भारतीय सरकारी कम्पनियों से मोदी जी ने पांच अरब डॉलर (करीब 35 हजार करोड़ रुपये) के 50 समझौते करवाए थे, जिसमे भारतीय कंपनियों द्वारा रूस में तेल और गैस सेक्टर में निवेश करवाने की बात थी.
कमाल की बात तो यही है कि रुस के सुदूर क्षेत्र साइबेरिया में तेल गैस निकालने को ONGC और इंडियन ऑयल को मजबूर किया जा रहा है लेकिन उसे अपने देश में बीपीसीएल जैसी कम्पनी को खरीदने से रोका जा रहा है. उसके लिए रुस की सरकारी तेल कम्पनी को न्यौता दिया जा रहा है. यह साफ-साफ ‘इस हाथ ले और उस हाथ दे’ वाली बात है. यही खेल पहले एस्सार ऑयल के मामले में खेला गया. इस खेल का यह दूसरा चरण है. ( एस्सार ऑयल डील की सच्चाई इस लिंक में है).
आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि जिस बीपीसीएल को बेचा जा रहा है, वह लगातार लाभ में बनी हुई है और पिछले पांच साल से यह सालाना हजारो करोड़ का प्रॉफिट सरकार को कमा के दे रही है. वित्त वर्ष 2018-19 में ही बीपीसीएल को 7,132 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ है इसलिए सरकार द्वारा बीपीसीएल के विनिवेश के फैसले को लेकर कर्मचारी भी आश्चर्यचकित हैं.
अक्सर सरकारी कम्पनी के बारे में यह कहा जाता है कि वह बेहद गैर-पेशेवर तरीके से चलाई जाती है लेकिन बीपीसीएल के बारे में यह सच नहीं है. सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियों में बीपीसीएल सबसे पेशेवर ढंग से चलने वाली कंपनी है इसलिए सरकारी पेट्रोलियम कंपनियों के कर्मचारी संगठन बीपीसीएल के रणनीतिक विनिवेश का विरोध कर रहे हैं. उनका कहना है कि इस विनिवेश से सरकार को एक बारगी राजस्व की प्राप्ति तो हो सकती है लेकिन इसका दीर्घकाल में बड़ा नुकसान होगा.
बीपीसीएल को इस तरह से विदेशी कंपनी के हाथों बेच दिए जाने से देश की राष्ट्रीय सुरक्षा को भी खतरा हो सकता है. संचार तथा तेल क्षेत्र का राष्ट्रीय सुरक्षा में स्ट्रेटजिक महत्व होता है लेकिन अब मोदी सरकार अपने पूंजीपति मित्रों की सहायता के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा को भी ताक पर रख देने को तैयार है.
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