बिहार-झारखंड में ‘रणवीर सेना’, ‘ब्रह्मर्षि सेना’ जैसी प्रतिक्रियावादी सवर्ण सेनाओं के गुरूर को उस वक़्त के नक्सलियों ने ही खत्म किया था. हाल ही में झारखंड में गिरफ़्तार प्रशांत बोस उर्फ ‘किसान दा’ उसी ऐतिहासिक अभियान का हिस्सा थे. आज के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने पुलिस स्रोत के हवाले से इस बात की तस्दीक भी की है लेकिन अफसोस कि ‘आधिकारिक’ दलित आंदोलन के प्रवक्ताओं ने कभी भी इस महत्वपूर्ण अभियान को अपने ‘दलित विमर्श’ का हिस्सा नहीं बनाया.
इस दौर के बारे में प्रसन्न कुमार चौधरी श्रीकान्त अपनी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘स्वर्ग पर धावा’ (बिहार में दलित आंदोलन, 1912-2000) में लिखते हैं –
बिहार के दलित आंदोलन में खेत-मजदूर एक महत्वपूर्ण शक्ति बनकर उभरे और इसने दलित आंदोलन में एक संगठित जुझारू धारा का निर्माण किया. …नक्सलवादी आंदोलन ने इस धारा को संगठित रूप दिया और यह धारा मध्यवर्गीय दलित नेतृत्व के एक महत्वपूर्ण प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभरी तथा इसने समग्रतः दलित आंदोलन के ‘रेडिकलाइजेशन’ में अपना योगदान दिया. (पेज-275)
लेखक इसके बाद यह महत्वपूर्ण निष्कर्ष भी निकालते हैं –
उत्तर प्रदेश की तरह बिहार में बसपा जैसी परिघटना सामने नहीं आ पाई. (पेज-275)
80 के दशक में एक के बाद एक जिस तरह से दलितों का जनसंहार किया जा रहा था, उससे दलितों में भयानक गुस्सा था. ऐसे ही एक जनसंहार के बाद पटना के समीप पिपरा गांव पहुँचे जगजीवन राम जैसे दलित नेता को भी गुस्से में यह भाषण देना पड़ा कि जमींदारों से रायफलें जब्त करके हरिजनों को दिया जाय और खून का बदला खून से लिया जाय. (उपरोक्त किताब पेज-281)
इस गुस्से की अभिव्यक्ति उन्हें उस वक़्त चल रहे नक्सल आंदोलन में मिली, जिसके शीर्ष नेता प्रशांत बोस थे. नक्सलियों और प्रशांत बोस जैसे नक्सल नेताओ को इस संदर्भ में भी देखने और समझने की जरूरत है.
अल्पा शाह ने जरूर अपनी किताब ‘Nightmarch: Among India’s Revolutionary Guerrillas’ में इस पक्ष को उभारा है और दलितों-नक्सलियों के रिश्तों को बेहद खूबसूरती से सामने रखा है.
प्रशांत बोस उर्फ ‘किसान दा’ को गिरफ्तार क्यों किया गया, इसका जवाब आप आज के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में पुलिस प्रमुख के इस उद्धरण में देख सकते हैं – ‘हम सभी से उनका (प्रशांत बोस) दिमाग ज़्यादा मुस्तैद है. उनके नज़दीक जाओ और वे आपको एक नक्सल में तब्दील कर देंगे.’
- मनीष आज़ाद
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