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बिहार चुनाव ने रोजगार, सरकारी नौकरियों को विमर्श के केंद्र में ला खड़ा किया

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बिहार चुनाव ने रोजगार, सरकारी नौकरियों को विमर्श के केंद्र में ला खड़ा किया

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

बिहार भारत में ही है और अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गलत या विफल नीतियों के कारण बेरोजगारी देश भर में बीते 45 वर्षों के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई तो पहले से ही रोजगार का संकट झेल रहे बिहार को सबसे अधिक प्रभावित होना ही है.

बिहार चुनाव के संदर्भ में यह जो कहा जा रहा है कि लोगों की नाराजगी भाजपा से नहीं, नीतीश कुमार से है, यह अर्द्ध सत्य लगता है और कुछ मामलों में तो प्रायोजित भी लगता है. आखिर भाजपा से नाराजगी क्यों नहीं हो ? प्रवासी मजदूरों की फजीहतों का पहला कारण अविवेकी तरीके से और अचानक से लॉकडाउन की घोषणा करना था. किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी उसके बाद ही निर्धारित हो सकती है और, नि:स्संदेह इसमें नीतीश कुमार को जिम्मेदार ठहराना ही होगा, जिनकी सरकार ने केंद्रीय स्तरों पर शुरू की गई श्रमिकों की दुर्दशा को अपने स्तरों पर और अधिक बढ़ाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी.

तेजस्वी यादव ने अगर सरकारी नौकरियों को विमर्श के केंद्र में ला खड़ा किया है तो इसमें नीतीश कुमार से अधिक लज्जित वर्त्तमान केंद्र सरकार को होना चाहिये, जिसने अपने अब तक के छह-साढ़े छह वर्षों के कार्यकाल में लाखों सरकारी पदों को तो खत्म किया ही, बेहद जरूरी विभागों की बेहद जरूरी नियुक्तियों को भी हतोत्साहित किया. केंद्रीय स्तर पर सरकारी नियुक्तियों को अगर खत्म या हतोत्साहित किया जाता है तो सबसे अधिक प्रभावित होने वाला राज्य बिहार ही होगा, जिसके पढ़े-लिखे नौजवानों के लिये सरकारी नौकरी का विकल्प नहीं, जो अपनी युवावस्था के स्वर्णिम काल को रेलवे, बैंक, एसएससी आदि की परीक्षाओं के लिये होम करते रहते हैं.

आज अगर देश की अर्थव्यवस्था में तबाही के मंजर हैं तो बिहार इससे अछूता कैसे रह सकता है ? देश की आर्थिक हालत अगर पतली होगी तो बेरोजगारी बढ़नी ही है और बिहार के युवाओं को आप अगर ‘नौकरी देने वाला’ बनने की नसीहत देते हैं तो उनका मजाक ही उड़ाते हैं, क्योंकि यहां के लोग नौकरी करने की तैयारी करते हुए ही जवान होते हैं, चाहे वह सरकारी नौकरी हो या प्राइवेट नौकरी हो.

नोटबन्दी ने लघु उद्योगों की कमर तोड़ दी और लाखों बिहारी कामगार सड़क पर आ गए. इससे वे उबरे भी नहीं थे कि कोरोना का दौर आ गया और बिना किसी योजना या विचार-मंथन के महज़ चार घण्टे की मोहलत देकर देशव्यापी कम्प्लीट लॉक डाउन लगा देने से हालात बदतर हो गए. फिर तो तबाहियों और फजीहतों के ऐसे-ऐसे मंजर सामने आए कि टीवी पर यह सब देखते आम लोगों की रूहें कांप गई.

लेकिन, मीडिया के अधिकतर लोग बताते हैं कि नाराजगी नरेंद्र मोदी या भाजपा से नहीं, नीतीश कुमार से है. आखिर, राज्य सरकार में भाजपा भी थी और कोरोना संकट में बिहार का स्वास्थ्य महकमा अगर बुरी तरह एक्सपोज हुआ तो इसकी जिम्मेदारी शुरू से ही भाजपा के ही किसी मंत्री के जिम्मे रही. हालांकि, इस नैरेटिव को सेट करने में भाजपा आंशिक रूप से सफल भी रही है कि बिहार चुनाव के मद्देनजर नाराज लोगों के निशाने पर वह नहीं, बल्कि नीतीश कुमार हैं. मीडिया इस नैरेटिव को हवा दे रही है और यह स्वाभाविक भी है.

दरअसल, बिहार में जो भाजपा के कोर वोटर माने जाते हैं, यानी सवर्ण तबका, वह नरेंद्र मोदी पर या भाजपा पर नाराज नहीं होता. विरोध में जाने का तो सवाल ही नहीं है. सरकारी भर्त्ती पर रोक लगा दो, सरकारी पदों को खत्म करते जाओ, बड़े-बड़े सरकारी संस्थान अडानी आदि जैसे संदिग्ध व्यवसायियों को बेहद संदिग्ध तरीके से सौंपते जाओ, रेल गाड़ी के डिब्बों से लेकर रेलवे स्टेशनों तक का निजीकरण करते जाओ, देश की आर्थिकी को तबाही के कगार पर पहुंचाते जाओ, दो करोड़ नौकरियां प्रतिवर्ष देने के वादे के बाद बेरोजगारी को चरम पर पहुंचाते जाओ, लफ्फाजी को राजनीति का केंद्रीय भाव बना दो लेकिन बिहार भाजपा के कोर वोटर कभी नाराज नहीं होते. उनकी शाश्वत नाराजगी लालू प्रसाद से होगी, अब वे नीतीश कुमार से नाराज हैं.

हालांकि, अपने तीसरे कार्यकाल, यानी 2015 के बाद के नीतीश कुमार ने ऐसा बहुत कुछ किया है कि उनके प्रति नाराजगी ही नहीं, आक्रोश होना चाहिये. जनादेश का उल्लंघन कर दोबारा भाजपा के साथ हो जाना एक अलग अध्याय है, लेकिन, बतौर सरकार के मुखिया, इस कार्यकाल में उनकी विफलताओं की फेहरिस्त लंबी है.

नौकरशाही को हद से ज्यादा प्रश्रय देने की नीतीश की नीति ने बिहार की शिक्षा को तो बाकायदा बर्बादी के कगार पर पहुंचा दिया है. सरकारी स्कूलों में शिक्षक बहाली की अजीबोगरीब नीतियों ने अभ्यर्थियों की जितनी फ़ज़ीहतें करवाई हैं, अगर इस पर कोई शोधपूर्ण किताब लिखी जाए तो पूरी दुनिया में इस पर नाराजगी ही नहीं, बल्कि थू-थू तक होगी. आप शिक्षण जैसे जरूरी और सम्मानित पेशे के साथ इतना क्रूर मजाक नहीं कर सकते, लेकिन नीतीश जी के सलाहकारों ने यह मजाक किया और करते ही रहे.

आज गांव-गांव में सरकारी स्कूलों में फर्जी शिक्षकों की भरमार है लेकिन हाईकोर्ट की सख्ती के बावजूद प्रशासनिक महकमा लकीर पीटने के अलावा कुछ खास नहीं कर सका. यह किसी भी मुख्यमंत्री की घनघोर विफलता है. ऐसी विफलता, जो माफी के लायक नहीं.

कोरोना काल में उजागर हुआ कि बिहार के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों के 75 प्रतिशत पद खाली हैं, सहयोगी मेडिकल स्टाफ की भी यही स्थिति है. आप फ्लाई ओवर बना कर उस जनता की उस निर्धन जमात को विकास का कौन-सा पाठ पढ़ाते रहे जिसके बच्चे का इलाज करने वाला डॉक्टर नहीं, जिसकी मरहम पट्टी करने वाला सहयोगी मेडिको स्टाफ नहीं, जिसके स्कूल में कौन सही और कौन फर्जी मास्टर है, इसका पता नहीं.

हमें नहीं पता कि महज कुछ दिनों के अंतराल में मुजफ्फरपुर में सैकड़ों बच्चों की अकाल मृत्यु के जिम्मेदार अधिकारियों में से कितनों को दंडित किया गया. यह तब, जब सरकारी अकर्मण्यता की चर्चा बीबीसी सीएनएन सहित अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी गूंजी.

चर्चा है कि इस चुनाव में चिराग पासवान की आड़ लेकर भाजपा नीतीश जी का शिकार कर रही है. अच्छा है, बहुत होशियारी कभी-कभी भारी भी पड़ती है. अचानक से महागठबंधन की गांठें ढीली कर जनादेश को धता बताते हुए भाजपा से मिल कर सरकार बना लेना अत्यधिक होशियारी ही तो थी. कुर्सी तो बची, लेकिन एक कद्दावर, गम्भीर, शालीन और विश्वसनीय नेता की साख पर बट्टा लग गया.

वैसे, चिराग पासवान भी अत्यधिक होशियार बन रहे हैं. भाजपा की गोद में बैठ कर दलितों की राजनीति करना, चाहे वह रामविलास पासवान हों, रामदास अठावले हों, अब चिराग हों, यह समझ से परे है. लेकिन, यह राजनीति है, उसमें भी वोट बैंक की राजनीति. तो, ऐसी राजनीति में वास्तविक सवालों को तो नेपथ्य में धकेला ही जाएगा.

बहरहाल, नीतीश जाएंगे या रहेंगे, यह अब कुछ सप्ताहों का सवाल है. कहा जाता है कि नीतीश अच्छे रणनीतिज्ञ हैं तो, अपने राजनीतिक जीवन के सबसे कठिन दौर में उनकी भी परीक्षा ही है. बात रही भाजपा की, तो यह उसके सिद्धांतकारों की सफलता है कि विफलताओं में केंद्रीय स्तर पर नेतृत्व देने और राज्य स्तर पर भागीदार होने के बावजूद मीडिया के सहयोग से ऐसा माहौल निर्मित किया जा रहा है, जिसमें चित भी उसकी, पट भी उसकी. तब, जबकि उसके पास ऐसी कोई नीति नहीं है जिससे बिहार के निर्धनों का वास्तविक कल्याण हो सके.

जब अपने घोषणा पत्र में भाजपा 19 लाख रोजगार देने की बात वह करती है तो इस पर सिर्फ हंसा जा सकता है. 6 वर्षों में देश भर में तो बेरोजगारी का रिकार्ड कायम करवा दिया, अब बिहार में रोजगार क्रांति का दावा करना चुनावी स्टंट के सिवा कुछ नहीं. हालांकि, स्टंट करने और फैलाने में उसका कोई सानी नहीं. 6 वर्षों का इतिहास इसका गवाह है. संतोष की बात यही है कि बिहार के इस चुनाव ने रोजगार ही नहीं, सरकारी नौकरियों को विमर्श के केंद्र में ला खड़ा किया है. तेजस्वी यादव जीतें या हारें, इस श्रेय से उन्हें वंचित नहीं किया जा सकता.

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ROHIT SHARMA

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