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लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा – परिवारवाद या पैसावाद ?

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कौन है जो बीजेपी को हज़ारों करोड़ का चंदा दे रहा है ? और बीजेपी के सांसद क्यों अडाणी अंबानी की पूजा करने के लिए कह रहे हैं ? पैसावाद की जगह प्रधानमंत्री परिवारवादी का नाम लेते हैं लेकिन सैंकड़ों करोड़ के चंदे की पारदर्शिता पर चुप हो जाते हैं. आप जिन दलों के लिए जान देते हैं, क्या आप जानते हैं कि उनकी जान किसकी जेब में है ?

लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा - परिवारवाद या पैसावाद ?

रविश कुमार

लोकतंत्र के कई ख़तरे होते हैं. हर ख़तरे का सबंध दूसरे ख़तरे से होता है इसलिए एक साथ सभी ख़तरों पर नज़र रखनी चाहिए. कोई किसी से बड़ा या छोटा नहीं होता है. प्रधानमंत्री परिवारवाद को सबसे बड़ा ख़तरा बताते हैं लेकिन पैसावाद को नहीं बताते. विपक्ष भी संस्थाओं के डरपोक और रीढ़हीन हो जाने के ख़तरे की बात करता है लेकिन पैसावाद को ख़तरा नहीं बताता है. इससे हो यह रहा है कि पार्टी और राजनीति दोनों उसके हाथों में है जिसके पास पैसा है. लोकतंत्र को झूठ से भी बहुत ख़तरा है. अब जैसे रफाल का ही उदाहरण लीजिए. भारत के सुप्रीम कोर्ट से क्लिन चिट की मुहर लग गई लेकिन आज तक फ्रांस से इस मामले में जांच होने और दलाली दिए जाने की ख़बर आती रहती है. आज भी एक ख़बर आ गई है, जो फिर से इस बंद अध्याय के पन्ने खोल देती है.

सच और झूठ की तमाम परतों के बीच आसमान में उड़ान भरने के बाद यह रफाल ज़मीन पर उतरता है तो उसकी ख़रीद से जुड़े सवाल भी वापस लौट आते हैं. 10 फरवरी को इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता से आई ख़बर के बाद से भारत में रफ़ाल के सवाल फिर से उड़ान भरने लगे हैं. फ्रांस के रक्षा मंत्रालय ने बताया है कि इंडोनेशिया से 42 रफाल विमान बेचने का सौदा हुआ है. 42 विमानों का सौदा 8.1 अरब डॉलर में हुआ है.

रायटर से आई इस खबर के कई मायने हैं. इंडोनेशिया 42 विमान 8.1 अरब डॉलर में खरीदने जा रहा है जबकि भारत में 36 रफाल विमान 8.84 अरब डॉलर में खरीदने का करार किया है. हिन्दी में एक लाइन में समझें. भारत ने कम विमान ख़रीदे लेकिन ज़्यादा दाम दिया. इंडोनेशिया ने भारत से 6 रफाल ज़्यादा खरीदे लेकिन भारत से कम दाम दिया. हर बार सवाल आते हैं, हर बार सफाई दी जाती है मगर रफाल के सौदे का विवाद मंडराता ही रहता है.

किसी सौदे की जानकारी की तहत तक पहुंचने का रास्ता अगर बंद लिफाफा हो तो इसे भी आप लोकतंत्र के ख़तरों में गिन सकते हैं. विपक्ष गंभीरता से इस सवाल को उठाते रहता है कि इस सरकार में संस्थाएं राजनीतिक हो गई हैं. केवल विपक्ष के खिलाफ काम करती हैं. इसके जवाब में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि ED और CBI निष्पक्ष संस्था हैं, वो अपना काम करती रहती हैं लेकिन बीच में चुनाव आ जाता है. सरकार का कोई रोल नहीं है. ऐसा लगता है कि ED और CBI का सिस्टम ऑटोमेटिक हो चुका है और ये सिर्फ इत्तफाक की बात है कि चुनाव आते ही इनके अधिकारियों को केवल विपक्ष के नेता या समर्थक नज़र आने लगते हैं.

चुनाव आता है तो एक और काम होता है. प्रधानमंत्री जिस ED को निष्पक्ष बताते हैं उसके संयुक्त निदेशक और आई पी एस राजेश्वर सिंह अपनी सेवा से रिटायरमेंट लेते हैं और सीधे बीजेपी में शामिल हो जाते हैं. ED की निष्पक्षता को संदिग्ध बताने वाले प्रधानमंत्री से पूछा जाना चाहिए था कि इसके संयुक्त निदेशक आई पी एस राजेश्वर सिंह यूपी चुनाव से ठीक पहले पद से इस्तीफा देते हैं और बीजेपी में शामिल हो जाते हैं. बीजेपी अपने विधायक का टिकट काट कर राजेश्वर सिंह को उम्मीदवार बना देती है.

2018 में छत्तीसगढ़ विधानसभा के समय रायपुर के ज़िलाधिकारी ओ. पी. चौधरी ने पद से इस्तीफा दे दिया था और बीजेपी से चुनाव लड़े थे. 2014 में मुंबई पुलिस कमिश्नर के पद से इस्तीफा देकर सत्यपाल सिंह बीजेपी से चुनाव लड़े थे. गुजरात काडर के अफसर ए. के. शर्मा इस्तीफा देते हैं और लखनऊ जाते ही विधान परिषद के सदस्य बन जाते हैं.उप मुख्यमंत्री बनने की चर्चा चलती ही रही.

बहुत से अफसर तो रिटायर होने के तुरंत बाद ही बीजेपी में शामिल हुए और मोदी सरकार में मंत्री हैं. जब विदेश सेवा से रिटायर होकर एस. जयशंकर और हरदीप सिंह पुरी बीजेपी में शामिल होकर मंत्री बने तो भारतीय विदेश सेवा के ट्विटर हैंडल से दोनों को बधाई दी गई थी. बीजेपी और मोदी मंत्रिमंडल में कई आईएएस अफसर हैं जिन्होंने इस्तीफा देकर पार्टी ज्वाइन किया है और रिटायरमेंट के तुरंत बाद ज्वाइन किया है. इनमें से आज कुछ सांसद हैं और कुछ मंत्री हैं.

रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव, ऊर्जा मंत्री आर. के. सिंह, इस्पात मंत्री आर. सी. पी. सिंह वाणिज्य राज्य मंत्री सोम प्रकाश, संसदीय कार्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल. इन पदों पर बीजेपी के सांसद और कार्यकर्ता का हक हो सकता था मगर रातों रात मारा गया. राजनीति को प्रतिभा चाहिए औऱ नौकरशाही से भी स्वागत है लेकिन जब इतने बड़े तादाद में अफसर एक दल में जाने लगें तो देखना चाहिए कि इन्होंने पद रहते हुए कार्यकर्ता की तरह काम किया या अफसर की तरह.

बीजेपी अपने कार्यकर्ताओं को नारा देती है कि मेरा बूथ सबसे मज़बूत. जो बूथ बचाने में लगा है क्या उसे पता है कि ऊपर से कोई सांसद या विधायक थोपा जा रहा है ? जवाब होगा कि सब करते हैं लेकिन सवाल है क्या ऐसा करना चाहिए ? कांग्रेस में भी मीरा कुमार और मणि शंकर अय्यर विदेश सेवा से राजनीति में आए और मंत्री बने. और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं. क्या अफसरों का राजनीतिक विचारधारा में घुल मिल जाना लोकतंत्र के लिए ख़तरा नहीं है ?

अलग अलग राय हो सकती है लेकिन कार्यकर्ताओं से पूछिए कि उनकी कितनी राय होती है पार्टी में !!! हम बिल्कुल इस की बात नहीं कर रहे हैं कि नौकरशाही से किसी को चुनाव लड़ने पर रोक नहीं है और न रोक होनी चाहिए लेकिन यह सवाल इतना सरल भी नहीं है. मुमकिन है खुद कमाने खाने के लिए नौकरशाही राजनीतिक दल की विचारधारा से समझौता कर ले. यह भी संभव तो है ही कि दल की विचारधारा के हिसाब से सेवा में रहकर फैसले ले और फिर दल में शामिल हो जाए. हमारे पास जानने का कोई तरीका नहीं है कि अफसर नौकरी में रहते हुए कार्यकर्ता की तरह काम कर रहा था या अफसर की तरह.

‘द वायर’ की यह रिपोर्ट 2 जून, 2021 की है. इसके अनुसार नरेंद्र मोदी सरकार ने सेंट्रल सिविसेज़ पेंशन रुल में बदलाव कर दिया है. इसके अनुसार अगर सेवा से रिटायर होने के बाद अपने विभाग से संबंधित वे किताब लिखते हैं, कोई पत्र प्रकाशित करते हैं या मीडिया में बोलते हैं तो उन्हें विभाग से मंज़ूरी लेनी होगी. इस सेवा से इस्तीफा देकर बीजेपी या किसी दल में शामिल होने पर कोई रोक नहीं है, लेकिन किताब लिखेंगे तो पहले अनुमति लेनी होगी. क्या आपको इस एंगल से लोककंत्र का ख़तरा नज़र नहीं आता है ? आप बीजेपी का प्रचारक बन सकते हैं मगर रिटायर होने के बाद किताब सरकार से पूछ कर लिखेंगे और खतरा केवल परिवारवाद !

जब आप अफसर को चुनाव लड़ने से नहीं रोक सकते तो किसी नेता के बच्चे को राजनीति में आने और पार्टी बनाने से कैसे रोक सकते हैं ? इस पर ठोस राय होनी चाहिए. क्या जयंत चौधरी मान जाते तो प्रधानमंत्री इस वजह से समझौता करने से मना कर देते कि हम परिवारवाद को लोकतंत्र का सबसे बड़ा ख़तरा मानते हैं ? यूपी में ही अनुप्रिया पटेल की पार्टी अपना दल से समझौता है. क्या प्रधानमंत्री यह कहना चाहते हैं कि अपना दल में परिवारवाद नहीं है ?

क्या शिवसेना, अकाली दल और लोक जनशक्ति पार्टी में परिवारवाद नहीं था जब बीजेपी ने दशकों गठबंधन किया ? स्व. रामविलास पासवान और अकाली सांसद हरसिमरत कौर बादल को मंत्री बनाते समय क्यों प्रधानमंत्री ने परिवारवाद के ख़तरे को दरकिनार कर दिया  ?  प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि बीजेपी में परिवारवाद नहीं है जबकि बीजेपी के भीतर भी परिवारवाद के कई रुप हैं. बिहार बीजेपी के अध्यक्ष संजय जायसवाल हैं. वे भी सांसद हैं और उनके पिता भी सांसद हैं. वसुंधरा राजे, यशोधरा राजे और ज्योतिरादित्य सिंधिया परिवारवाद से कैसे अलग हैं ?

2019 में ज्योतिरादित्य सिंधिया को हरा देने वाले बीजेपी के सांसद को मंत्री नहीं बनाया गया लेकिन ज्योतिरादित्य को दूसरे दल से लाकर सासंद बनाया जाता है और मंत्री भी बनाया जाता है. क्या यह परिवारवाद नहीं है ? अगर प्रतिभावाद है तो ज्योतिरादित्य सिंधिया को सवा लाख से अधिक वोट से हराने वाले भाजपा सांसद के. पी. सिंह को प्रतिभाशाली नहीं मानने का आधार क्या है ?

एक और उदाहरण देना चाहूंगा. यूपी में बीजेपी ने तय किया कि सांसद और विधायक के परिवार के सदस्य को टिकट नहीं देंगे. फिर कुछ को देिया जाता है और कुछ को नहीं. यूपी के पंचायत चुनाव में इस नियम की खूब वकालत हुई लेकिन जब ज़िला पंचायत और क्षेत्र पंचायत के चुनाव की बारी आई तब परिवार के सदस्यों को टिकट दिया गया और जीते भी.

यह एक भ्रम है और झूठ है कि जिन दलों के शीर्ष पर परिवारवादी नेता नहीं हैं वहां लोकतंत्र है. पार्टियों के भीतर के लोकतंत्र पर कोई खुल कर कोई बात नहीं करता है और प्रधानमंत्री तो कभी नहीं बात करेंगे कि बीजेपी को हज़ारों करोड़ का चंदा कौन दे रहा है ? तृणमूल कांग्रेस को ममता बनर्जी ने अपने दम पर बनाया लेकिन उस पार्टी मे वही कई साल से अध्यक्ष हैं. आम आदमी पार्टी तो नई पार्टी है लेकिन यहां भी अरविंद केजरीवाल दस साल से अध्यक्ष हैं. क्या हम जान सकते हैं कि किस दल में उम्मीदवार कैसे तय होता है, टिकट कैसे मिलता है और बिकता है ? किस दल के पीछे कौन सी कंपनी का पैसा लगा है ?

तभी कहा कि प्रधानमंत्री कभी खुलकर बात नहीं करते और हां केवल बात ही करते हैं. यह एक लंबा और जटिल विषय है, इसे यहीं रहने देते हैं. लोकतंत्र का एक और ख़तरा है पैसावाद. इस पर प्रधानमंत्री कभी बात नहीं करेंगे. 2017 में जब इलेक्टोरोल बान्ड लाया गया तब कहा गया कि यह सबसे पारदर्शी तरीका है लेकिन क्या अब पारदर्शिता का मतलब दिखाई नहीं देना हो गया है. यह कौन-सी पारदर्शिता है कि आप नहीं जानते कि एक पार्टी के पास कहां से हज़ारों करोड़ रुपये आ रहे हैं ?

क्या यह लोकतंत्र के लिए ख़तरा नहीं है कि एक ही दल के पास पैसा हो और बाकी के पास नहीं ? एक ही दल देश के हर अखबार के पहले पन्ने पर महंगे विज्ञापन दे और दूसरे दलों की खबर तक उन अखबारों में न छपे ? कौन लोग हैं जो एक दल को हज़ारों करोड़ का चंदा दे रहे हैं और उस दल की सरकार में उन कंपनियों या लोगों के हिसाब से किस तरह के नियम कानून बनाए जा रहे हैं ?

क्यों इस जानकारी को इलेक्टोरल बान्ड के ज़रिए रोका गया है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि पैसावाद से ध्यान हटाने के लिए परिवारवाद की तरफ निगाह मोड़ी जा रही है और उस पर भी खुलकर बात नहीं हो रही है ? क्या पार्टी पर केवल परिवार से नियंत्रण होता है, पैसे से होता ही नहीं है ? जब से इल्कोटोरल बान्ड आया है तब से जितने इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदे गए हैं उसका सबसे बड़ा हिस्सा बीजेपी को गया है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफ्राम के अनुसार 2017-18 से 2020-21 के बीच तीन वर्षों में 6207 करोड़ के बॉन्ड बिके हैं, जिसका 67 फीसदी बीजेपी को गया है. कांग्रेस को 706 करोड़ के बान्ड मिले हैं.

इलेक्टोरल बान्ड कई तरह के रहस्य पैदा करता है. एक उदाहरण देकर समझाता हूं. काल्पनिक है लेकिन ऐसा तो इस देश में कई बार हो चुका है. मान लीजिए नल जल योजना है. इसमें नल की सप्लाई के लिए एक कंपनी सामने आती है. उसे ठेका मिलता है और उस कंपनी को पीछे से राजनीतिक लोग चलाते हैं. कंपनी कमाती है और फिर उस दल को चंदा दे देती है. हर योजना के साथ अपनी कंपनी खड़ी कर दी जाती है माल की सप्लाई के लिए. इस तरह कंपनी और पार्टी दोनों पर उनका कब्ज़ा हो जाता है जिनके पास पैसा है. पैसावाद सबका बाप है.

चुनावी बान्ड के अलावा एक और आधार है संपत्ति. इसके आधार पर भी देखा जाता है कि किस पार्टी के पास कितने करोड़ की संपत्ति है. इसके तहत देखा जाता है कि किसी दल के पास FD कितनी है, ज़मीन या इमारतें कितनी हैं ? ADR ने बताया है कि राष्ट्रीय दलों के पास जो कुल संपत्ति है उसका 65 फीसदी फिक्स डिपाज़िट है. राष्ट्रीय दलों में संपत्ति के मामले में बीजेपी बाकी तमाम दलों से सात से आठ गुना आगे निकल चुकी है.

ADR की रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय दलों के पास जो संपत्तियां हैं, उसका 70 फीसदी अकेले बीजेपी के पास है. बीजेपी की संपत्तियों की कीमत 4,847 करोड़ है जबकि कांग्रेस के पास 588 करोड़ की संपत्ति है. दूसरे नंबर पर बसपा है जिसके पास 698 करोड़ की संपत्ति है. सपा के पास 563 करोड़ की संपत्ति है.

इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है मगर आज तक इसकी अगली सुनवाई का इंतज़ार ही हो रहा है. हिन्दू अखबार में मद्रास हाईकोर्ट के एक वकील सुहरीथ पार्थसार्थी ने 8 दिसंबर, 2018 को एक लेख लिखा था. इसमें 1957 में बांबे हाईकोर्ट के एक फैसले का ज़िक्र है जिससे आप समझ सकते हैं कि हम कहां से चले थे और कहां आ गए हैं.

टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी लिमिटेड ने अनुमति मांगी थी कि नियमों में बदलाव किए जाएं ताकि कंपनी अलग-अलग राजनीतिक हितों को चंदा दे सके. तब कंपनी की पैरवी कर रहे वकील एच. एम. सीरवाई ने भी माना था कि कंपनी को अपने बहीखाते में बताना चाहिए कि किसी चंदा दिया गया है. बांबे हाई कोर्ट के तब के चीफ जस्टिस चागला ने कहा कि यह केवल कंपनी के शेयरहोल्डर के लिए ही नहीं, मतदाताओं के लिए भी जानना ज़रूरी है कि पार्टी को चंदा कैसे मिल रहा है. जब तक मतदाता के पास मुक्त और निष्पक्ष सूचनाएं नहीं होंगी, लोकतंत्र काम नहीं कर सकेगा.

पैसावाद खुल कर लोकतंत्र को रौंद रहा है. हर चुनाव को एकतरफा बनाए जा रहा है. पैसे के दम पर मीडिया ख़रीदा जा चुका है और आपको जानने से रोका भी जा रहा है कि इन दलों को पैसा कौन दे रहा है और तो और राज्यसभा में बीजेपी के सांसद जब उद्योगपतियों की पूजा करने की बात करते हैं तब यह सवाल और महत्वपूर्ण हो जाता है कि हज़ारों करोड़ों का चंदा देने वाले कौन लोग हैं ? कहीं उनका अहसान दूसरे तरीके से तो नहीं चुकाया जा रहा है ? रोज़गार के नाम पर उनकी पूजा करने के लिए कहा जा रहा है.

यह कोई नहीं कह रहा है कि उद्योगपति रोज़गार पैदा नहीं करते हैं. कहा जा रहा है कि कहीं सिस्टम दो चार उद्योगपतियों के हाथ में तो नहीं चला गया है. जिस पूंजीवाद की सांसद महोदय कसमें खा रहे हैं उसी पूंजीवाद के सबसे बड़े देश में ऐसा न हो, इसके लिए एंटी ट्रस्ट कानून बनाए गए हैं ताकि किसी कंपनी का एकाधिकार न हो. दिव्य भास्कर की एक खबर आई है. शायर रावल की यह खबर बता रही है कि हमारे दल लोकतंत्र की धज्जियां भी उड़ाते हैं और लोकतंत्र को बचाने की बात भी करते हैं.

इस खबर के अनुसार गांधीनगर में निगम के चुनाव हुए थे. शायर रावल ने बीजेपी के 41 उम्मीदवारों के हलफनामे और खर्चे के रसीद का अध्ययन किया है. दिव्य भास्कर की इस रिपोर्ट के अनुसार बीजेपी के विजयी 41 उम्मीदवारों ने हलफनामे में करीब-करीब एक ही प्रकार की सूचना दी है. सभी ने एक ही मंडप वाले से, डीजे वाले का बिल दिया है. सभी 41 उम्मीदवारों ने डी. के. वॉटर से पानी लिया है. और तो और अलग-अलग वार्ड के 41 उम्मीदवारों ने एक ही चाय की दुकान का बिल दिया है. चामुंडा टी स्टोर का. सरकार यही बता दे कि चामुंडा टी स्टोर है भी या नहीं है. बीजेपी के 41 उम्मीदवारों ने खर्चे का जो हिसाब दिया वो इतना सटीक है कि गूगल और फेसबुक का अलगोरिदम फेल हो जाए. सबने 1 लाख 33 हज़ार 380 रुपये खर्च किए हैं.

कमाल का चुनाव रहा होगा. बीजेपी के 41 अलग-अलग उम्मीदवार लेकिन सबका खर्चा एक समान. 1 लाख 33 हज़ार 380 रुपए. एक नया नारा निकल सकता है – एक राष्ट्र, एक हिसाब. हमने हलफनामा नहीं पढ़ा है. दिव्य भास्कर ने रिपोर्ट किया है तो उनके हवाले से दिखा रहे हैं क्योंकि इस रिपोर्ट में राज्य चुनाव आयोग से रिपोर्टर ने बात की है. राज्य चुनाव कार्यालय के अधिकारी एन. के. दामोर का बयान है कि एक समान खर्च दिखाने पर वे एक्शन नहीं ले सकते हैं. तभी ले सकते हैं जब वे छह लाख की सीमा से ज्यादा खर्च करेंगे. हैं न कमाल की बात.

इतनी ईमानदारी किसी दल के कार्यकर्ता में हो ही नहीं सकती है. ईमानदारी से प्रधानमंत्री मोदी का एक पुराना भाषण याद आ गया है. उस समय भी फरवरी का ही महीना चल रहा था, बस साल 2014 था. जब महंगाई के लिए नेहरु के भाषण को याद किया जाने लगा है तो प्रधानमंत्री मोदी के सात साल पुराने भाषणों को याद करने में कोई दिक्कत नहीं है. उसमें से कुछ परसेंटेज नियमित सैलरी वाले के खाते में आया क्या ?

प्रधानमंत्री मोदी को स्टेट्समैन कहा जाता है. स्टेट्समैन की कोई भी बात मामूली नहीं होती है, युग बदलने वाली होती है. और प्रधानमंत्री खुद भी कहते हैं कि जो करते हैं करके दिखा देते हैं. ये भी इसी फरवरी का बयान है और इसी साल का. इसलिए पूछा कि इनाम के तौर पर टैक्स भरने वाले सैलरी क्लास के खाते में कालाधन का पैसा आया क्या.हिमाचल प्रदेश के सरकारी नौकरी करने वालों के खाते में पैसा आया क्या ? जो दर्शक अभी अभी जुड़े हैं और सरकारी नौकरी में हैं, उनके फायदे के लिए यह बयान फिर से सुना रहे हैं. क्या पता याद आ जाए और सैलरी वालों के खाते में पैसे आने लगे.

लोकतंत्र को इससे भी ख़तरा है कि लोगों से वादा कर दें कि पंद्रह लाख खाते में आएगा और बाद में जुमला कह दें. इससे भी ख़तरा है कि सैलरी वालों के खाते में काला धन का परसेंटेज भेजा जाएगा और भूल जाया जाए. जुलाई 2021 में लोकसभा में सांसद विंसेंट एक पाला ने सरकार से पूछा कि दस साल में स्वीस बैंक में कितना काला धन जमा हुआ है, उसकी राशि बताएं ?तब वित्त राज्य मंत्री ने जवाब दिया कि इसका कोई आधिकारिक अनुमान नहीं है कि कितना काला धन जमा है. अब तीसरी बार प्रधानमंत्री का वो बयान नहीं सुनाऊंगा.

अमित शाह ने कह दिया है कि वो जुमला था फिर भी उम्मीद गई नहीं है. भरोसा है कि आएगा. आज भी कुछ लोग 15 लाख का इंतज़ार कर रहे हैं. 9 फरवरी, 2022 का यह हिन्दू बिजनेस लाइन है. महाराष्ट्र के औरंगाबाद ज़िले के ध्यानेश्वर जनार्धन आवटे नामक एक सीमांत किसान के खाते में एक दिन 15,34,624 रुपये आ गए. उन्हें लगा कि प्रधानमंत्री मोदी ने 15 लाख भेज दिया है, उन्होंने वादा पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री को धन्यवाद पत्र भी लिख दिया और बैंक से पैसे निकाल कर घर बनाना शुरू कर दिया. 9 लाख खर्च कर डाले. जैसे ही घर बनने का काम पूरा होने वाला था बैंक आफ बड़ौदा ने बाकी का पैसा निकालने पर रोक लगा दी. पता चला कि 15 वें वित्त आयोग के तहत पिंपलवाड़ी ग्राम पंचायत के खाते में जो पैसा जाना था, वो पैसा ध्यानेश्वर जी के खाते में चला गया.

यह घटना लोकतंत्र के लिए ख़तरा भले न हो मगर किसी से उम्मीद रखने और धोखा खा जाने कि ऐसी सज़ा किसी को न मिले कि जो नौ लाख खर्च हो गए, उसे अब वापस लिए जाएं. प्रधानमंत्री को चाहिए कि वे सामान्य मानवी के प्रति मानवीय दृष्टिकोण रखते हुए किसान का पैसा माफ कर दें. छोटे किसानों की वे चिन्ता भी बहुत करते हैं. लेकिन किसानों को कुचलने के आरोप में गिरफ्तार आशीष मिश्रा के पिता अजय मिश्रा को अपने मंत्रिमंडल से नहीं हटाते हैं. लोकतंत्र को खतरा परिवारवाद, पैसावाद और संवैधानिक मर्यादाओं को खत्म कर असंवैधानिकवाद से भी है.

इस वीडियो को देखकर प्रधानमंत्री को संवैधानिक नैतिकता की याद नहीं आती होगी, लोकतंत्र के खतरे नज़र नहीं आते होंगे, यकीन करना मुश्किल है. लखीमपुर खीरी में गृह राज्य मंत्री के बेटे की जीप किसानों को कुचल देती है. मंत्री का बेटा है लेकिन प्रधानमंत्री उस मंत्री से इस्तीफा तक नहीं लेते हैं. किस संवैधानिक नैतिकता और लोकतंत्र की भलाई में यह उनसे इस्तीफा नहीं लिया गया ? क्या लाल बहादुर शास्त्री ने रेल दुर्घटना होने पर इस्तीफा देकर गलत नैतिकता कायम की थी ?

अजय मिश्रा गृह विभाग में मंत्री हैं. क्या जांच प्रभावित करने की ज़रा भी आशंका नहीं होगी ? क्या तब भी नहीं मानी जाएगी जब बेटे को ज़मानत मिलने के अगले दिन मंत्री जी मोदी ज़िंदाबाद योगी ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे हैं ? और जब हमारे सहयोगी आलोक पांडे सवाल करते हैं तो उनके साथ धक्का मुक्की की जाती है. क्या प्रधानमंत्री के हिसाब से यह सब लोकतंत्र के ख़तरे के खाते में नहीं आता है ? संवैधानिक मान्यताएं, मर्यादाएं किस तरह से बदली जा रही हैं, उनसे नज़र मोड़ कर आप लोकतंत्र के ख़तरे को परिवारवाद पर शिफ्ट नहीं कर सकते. परिवारवाद से ही गलबहियां करते हुए उसे ख़तरा नहीं बता सकते.

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