हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
भाजपा राज आज है, कल नहीं रहेगा. परिवर्त्तन ही शाश्वत सत्य है लेकिन, इस राज में शहरी मध्य वर्ग ने अहसास करवा दिया कि वह किस कदर मानवता विरोधी है. जेएनयू में छात्रों-छात्राओं की हुई मार कुटाई पर यह वर्ग अगर मुदित है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं.
एक दौर में हिन्दी पट्टी में कांग्रेस का भी मुख्य समर्थन आधार सवर्णों, खास कर ब्राह्मणों में ही था. इनके साथ मुसलमानों और कुछ अनुसूचित जातियों का चुनावी समर्थन कांग्रेस को अजेय बनाता था. हालांकि, राज-काज में सवर्णों का बोलबाला था. वक्त पड़ने पर मुसलमानों और अनुसूचित जातियों को अहसास करवा दिया जाता था कि उनकी भूमिका कांग्रेस को वोट देने तक ही है, राज-काज में अधिक हिस्सेदारी की बात उन्हें नहीं करनी है. खानापूरी के लिये मन्त्रिमण्डल में प्रतीक के तौर पर उन्हें कुछ हिस्सा मिल जाता था. जब भी द्वंद्व का वक्त आया, मुसलमानों और दलितों को उनकी औकात भी दिखा दी जाती थी. कांग्रेस राज में हुए दंगों और अनुसूचित जातियों पर हुए अमानुषिक अत्याचारों की याद करें. शासन की बन्दूक की नली किस ओर घूमती थी, यह कोई छिपी बात नहीं थी.
कांग्रेस राज के दौरान न्याय-तंत्र और मीडिया के जातीय स्वरूप पर कुछ अलग से कहने की जरूरत नहीं. तो, राज-काज में जिनका प्रभावी दबाव था वही न्याय और मीडिया में भी प्रभावी थे. नतीजा, स्वतंत्रता के बाद हमने जिस समाज को विकसित होते देखा, उसमें समान न्याय और समान अधिकारों की बातें संविधान की पुस्तक से निकल कर व्यवहार की धरती पर नहीं उतर सकी.
लेकिन, स्वतंत्रता आंदोलन की तपिश से निखर कर सत्ता में आई कांग्रेस के अपने आदर्श भी थे. उसके नेताओं ने उसे उसके आदर्शों से पतित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी, लेकिन उसकी रगों में बहती आदर्श की धाराओं ने इतना तो किया ही कि सामाजिक तौर पर वंचित तबकों की शिक्षा के लिये बहुत कुछ हुआ.
तो, दशक दर दशक बीतते वंचित सामाजिक तबकों में भी पढ़े-लिखे लोगों की संख्या बढ़ी. उन्होंने अपने साथ हो रहे अन्याय को न सिर्फ महसूस किया, बल्कि उसकी मुखालफत में वे मुखर भी हुए. 90 के दशक में जब लालू प्रसाद, रामविलास पासवान, मुलायम यादव, कांशीराम आदि ने राजनीति की सामाजिक जड़ता को तोड़ने का अभियान चलाया तो वंचित तबकों के इन्हीं पढ़े-लिखे लोगों का समर्थन उनके बहुत काम आया. बाकी तो इतिहास ही है कि कैसे लालू और मुलायम या फिर मायावती, नीतीश, रामविलास आदि ही हिन्दी पट्टी की राजनीतिक धुरी बन गए.
लेकिन, सामाजिक न्याय के इन योद्धाओं का भटकाव उनके आंदोलन के लिये बेहद घातक साबित हुआ. नतीजा में वंचित तबकों का राजनीतिक विभाजन सामने आया और कांग्रेस की जगह ले चुकी भाजपा ने इस विभाजन का लाभ उठा कर हिन्दी क्षेत्र का राजनीतिक परिदृश्य बदल दिया.
जैसे कांग्रेस के लिये सवर्ण, मुख्यतः ब्राह्मण के साथ मुसलमान और दलित थे, उसी तरह भाजपा के मुख्य समर्थन आधार में आज सवर्णों के साथ अति पिछड़ी जातियां हैं. बाकी का काम कुछ स्थानीय गठबंधन पूरा कर देते रहे और भाजपा उसी तरह अजेय भूमिका में आई जैसे कभी कांग्रेस थी.
निष्कर्ष यह सामने आया कि 90 के दशक में सामाजिक न्याय के प्रभावी आंदोलन और लालू प्रसाद के शब्दों में ‘वोट का राज मतलब छोट का राज’ आदि के बावजूद जिन सामाजिक समूहों का कांग्रेस के दौर में राज-काज में प्रभावी हस्तक्षेप था, आज भाजपा के राज में भी वही राज-काज पर हावी हैं. इस बात को भूल जाइए कि भाजपा के मंत्रिमंडलों का जातीय समीकरण क्या है या माननीय नरेंद्र मोदी जी अपने को अति पिछड़ा बताते नहीं थकते.
जो तब राज-काज पर हावी थे, वे अब भी राजकाज पर हावी हैं. सिर्फ बैनर बदल गया. पहले वे कांग्रेस के बैनर तले थे, अब भाजपा के बैनर तले हैं. पहले उनकी चुनावी पालकी मुसलमान और दलित उठाते थे, आज अति पिछड़े उठाते हैं.
लेकिन एक फर्क है. बैनर का भी अपना प्रभाव, अपना संस्कार होता है. कांग्रेस के राज में उसके धुर समर्थकों पर कांग्रेस की संस्कृति का प्रभाव था, जो मुख्यतः नेहरू की वैचारिक विरासत थी. आज भाजपा के राज में सांस्कृतिक और राजनीतिक मूल्य ही बदल गए हैं. तो, उसके मुख्य समर्थन आधार पर इन मूल्यों का प्रभाव पड़ रहा है. इस फर्क को महसूस भी किया जा सकता है.
इस बीच, नव सवर्णों की भी अच्छी खासी जमात खड़ी हो गई है, जो जातीय आधार पर तो पिछड़े या दलित हैं लेकिन अब वे नव सवर्ण हैं. सरकारी नौकरियों में आ कर या व्यवसाय आदि से संपन्नता पा कर ये जमात शहरों की शोभा बढ़ा रही है और उसी तरह सोचने और करने में गर्व का अनुभव करती है, जैसा सवर्ण शहरी समुदाय सोचता या करता है. इनके ड्राइंग रूम्स में भी बालाकोट एयरस्ट्राइक पर नसें फड़काते युवा और मन्द-मन्द मुस्काते अधेड़ ही पाए जाते हैं.
सबसे अधिक छला जाने वाला समुदाय है गरीब सवर्णों का, उनके युवाओं का. वे तो बस इसी में मगन हैं कि भाजपा का राज मतलब उनका राज. कांग्रेस के दौर में भी सम्पन्न सवर्णों ने लाठी की तरह उनका उपयोग किया और आज भाजपा के राज में भी वही युवा सिर पर भगवा लपेट कर ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाते घूम रहे हैं. न उन्हें तब राज में हिस्सा मिला, न आज मिल रहा है. वे तब भी लठैत मात्र की भूमिका में थे, आज भी उनकी वही भूमिका है. बल्कि, अब तो उनकी स्थिति और भी बुरी है. उनकी नौकरियों की संभावनाओं पर ताले लग रहे हैं, उनकी शिक्षा के द्वार बंद किये जा रहे हैं और उनसे उम्मीद की जा रही है कि वक्त पड़ने पर ‘राष्ट्र’ के लिये वही सड़कों पर भी उतरें, हंगामा मचाएं, मारपीट करें. वे अक्सर सड़कों पर उतर भी रहे हैं.
कांग्रेस के दौर में हिन्दी पट्टी का सवर्ण तबका व्यापक सामाजिक परिदृश्य में उतना नजरों पर नहीं चढ़ा जितना भाजपा राज में चढ़ रहा है. हासिल कुछ नहीं. जिन्हें हासिल है वे तब भी हासिल कर रहे थे, आज भी हासिल कर रहे हैं.
भाजपा जिस रास्ते आज चल रही है, जिस तरह सरकार चला रही है, यह रास्ता बहुत दूर तक नहीं जाता. उसका पराभव अधिक दूर नहीं. हमारे-आपके लिये 5-10 वर्ष बहुत मायने रखते हों, इतिहास के लिये इस अवधि के अधिक मायने नहीं.
जो सरकार आर्थिक मोर्चे पर लगातार लचर प्रदर्शन करती रहेगी, वह अस्मिता मूलक और विभाजनकारी विमर्शों को हवा देकर आखिर कितने दिनों तक सत्ता में बनी रह सकती है। आखिर, भूख से बढ़ कर कोई सवाल नहीं, रोजगार से बढ़ कर कोई समस्या नहीं. कुछ कवियों को चांद में भी रोटी की छवि यूं ही नजर नहीं आती थी.
भाजपा राज आज है, कल नहीं रहेगा. परिवर्त्तन ही शाश्वत सत्य है लेकिन, इस राज में शहरी मध्य वर्ग ने अहसास करवा दिया कि वह किस कदर मानवता विरोधी है. जेएनयू में छात्रों-छात्राओं की हुई मार कुटाई पर यह वर्ग अगर मुदित है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं. उदारवाद, उपभोक्तावाद और बढ़ती समृद्धि ने इसके मानस का ऐसा ही निर्माण किया है, मानव द्रोही मानस.
और, जब हम शहरी मध्यवर्ग की बात करते हैं तो भले ही इसमें बहुत सारी जातियां शामिल हैं, इसका मानस लोक शहरी सवर्ण मध्यवर्ग ही निर्मित करता है. बाकियों को तो अभी तक भी नकल में ही गर्व की अनुभूति होती है.
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