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भारतीय शिक्षा जगत का स्वायत्त कॉलेज यानी आत्मघात के रास्ते

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भारतीय शिक्षा जगत का स्वायत्त कॉलेज यानी आत्मघात के रास्ते

हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

खबर छोटी है, लेकिन संकेत गहरे हैं. आप इसमें भविष्य की आतंकित करने वाली पदचाप सुन सकते हैं. पटना के नामी वीमेंस कॉलेज में शिक्षकों की कुछ रिक्तियां निकली हैं. नियुक्तियां कांट्रेक्ट बेसिस पर होंगी. योग्यता वही, जो स्थायी नियुक्ति के लिये यूजीसी की गाइडलाइन है, लेकिन वेतन स्थायी से आधा मिलेगा.

यह कॉलेज अब ‘स्वायत्त’ है. नई शिक्षा नीति के पैरोकार अंग्रेजी में जिसे ‘ऑटोनोमस कॉलेज’ कह कर इन नीतियों को महिमामण्डित करते हैं. वे कहते हैं कि स्वायत्त कॉलेज भारत की उच्च शिक्षा को प्रगति के एक नए शिखर पर ले जाएंगे.

यह तो समय बताएगा कि वह ‘नया शिखर’ कितना ऊंचा, कितना चमकीला होगा, उस पर चढ़ कर हमारे शिक्षक और छात्र हाथों में तिरंगा थामे भारतीय शिक्षा जगत की गौरव-गरिमा को कितना बढाएंगे, लेकिन, वर्त्तमान ने संकेत दे दिया है कि बौद्धिकों का एक वर्ग जो कहता था कि ‘स्वायत्तता’ के नाम पर संस्थानों का कारपोरेटीकरण किया जाएगा, शिक्षकों के सम्मान और अधिकारों पर प्रहार किया जाएगा, छात्रों से मोटी फीस वसूली जाएगी, वे तमाम आशंकाएं सच बन कर सामने खड़ी होती जा रही हैं.

अधिक दिन नहीं बीते जब पटना वीमेंस कॉलेज ने स्वायत्त होने के बाद विभिन्न कोर्सों की फीस में अनाप-शनाप वृद्धि कर दी थी और छात्र संगठनों के किसी भी विरोध को कोई तवज्जो नहीं दी थी.

‘स्वायत्त कॉलेज’ नवउदारवादी अवधारणाओं से प्रेरित नई शिक्षा नीति का एक अध्याय है, जिसमें संस्थानों को अपना फीस स्ट्रक्चर और शिक्षकों को दिए जाने वाले पारिश्रमिक आदि को तय करने की ‘ऑटोनोमी’ दी गई है. तो, ऑटोनोमस होने के बाद इन संस्थानों के प्रबंधनों ने अपनी शक्ति का प्रयोग करना शुरू कर दिया.

छात्रों से वसूली जाने वाली फीस पहले से तिगुनी-चौगुनी, किसी-किसी मामले में आठ-दस गुनी, जबकि शिक्षकों को दिया जाने वाला वेतन पहले से आधा. स्थायी नियुक्तियों की जगह कांट्रैक्ट पर नियुक्तियों पर जोर. पटना वीमेंस कॉलेज अकेला उदाहरण नहीं है. देश में जिन-जिन संस्थानों को स्वायत्तता मिली है, उन सब में इसी तरह सिलसिला शुरू हुआ है.

अभी तो शुरुआत है. यह सिलसिला जोर पकड़ रहा है. नई शिक्षा नीति में कहा गया है कि समय के साथ अन्य संस्थानों को भी स्वायत्तता दी जाएगी. जाहिर है, वे भी फीस को बेतहाशा बढाएंगे, अपने द्वार निर्धन छात्रों के लिये बन्द करेंगे, शिक्षकों के वेतन को आधा करेंगे, स्थायी की जगह कांट्रैक्ट पर बहाली को प्राथमिकता देंगे, गरिमापूर्ण पद पर नियुक्त होने वाले पढ़े-लिखे लोगों के साथ प्रबंधन पर काबिज लोग गुलामों सरीखा व्यवहार करेंगे.

इसमें क्या आश्चर्य कि शिक्षक संगठनों की चेतावनियों के बावजूद शिक्षक समुदाय में नई शिक्षा नीति के इन अध्यायों के खिलाफ प्रतिरोध की कोई प्रभावी आवाज नहीं उठी, कुछेक छात्र संगठनों के विरोध को छात्रों के बड़े समुदाय का सक्रिय समर्थन नहीं मिला. ऐसी आत्मघाती पीढ़ी से कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती.

जो आज उच्च शिक्षा में अपना कैरियर बनाने के लिये उत्सुक हैं, वे अपने भविष्य की पदचाप को सुन सकते हैं. उन्हें मानसिक रूप से खुद को तैयार करना होगा कि आने वाले समय में ऐसे उच्च शिक्षा संस्थानों की संख्या बढ़ती जाएगी, जो स्वायत्त होंगे, जो उन्हें नियुक्तियां तो देंगें लेकिन स्थायी नहीं, जो उन्हें वेतन तो देंगे तो पूरी से आधी या उससे भी कम.

बाकी, इस देश का मध्य वर्ग मान चुका है कि उसे अपने बच्चों की उच्च शिक्षा के लिये अपनी औकात से बहुत बहुत अधिक फीस चुकानी होगी, वह अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा इस पर खर्च करने के लिये तैयार है, वह पीएफ से लोन लेने के लिये तैयार है, ज़मीनें बेचने के लिये तैयार है. उसे उम्मीद है कि इस तरह वह अपने बच्चों का कैरियर ‘सेट’ कर लेगा क्योंकि उसके कॉम्पिटीशन में निर्धन बच्चों की विशाल संख्या के द्वार बंद होते जा रहे हैं.
बात रही निर्धन जमातों की, तो वे इसी बात से खुश हैं कि उनकी जाति के नेता जी को मन्त्रिमण्डल में जगह मिल गई है, उन्हें सस्ते में चावल-गेहूं मिल रहा है.

पीढ़ियों के भी अपने संस्कार, अपने पराक्रम होते हैं. किसी पीढ़ी ने शिक्षकों की गरिमा और उनके आर्थिक अधिकारों के लिये लंबा संघर्ष किया, किसी पीढ़ी ने उन अधिकारों को हासिल किया और भारतीय शिक्षा जगत को उपलब्धियों के नए मुकाम तक पहुंचाया. हमारी पीढ़ी आत्ममुग्ध है, आत्मतुष्ट है.

आत्ममुग्धता, आत्मतुष्टता आत्मघाती बनने की ओर प्रेरित करती है. तो, हम आत्मघात के रास्ते पर बढ़ चले हैं. हम यह सोचने की जहमत भी नहीं उठा रहे कि हमारे बच्चे अपने पूर्वजों के संघषों से प्राप्त गरिमा और अधिकारों से वंचित हो बेबस गुलाम बनने के लिये अभिशप्त होंगे.

हमारी पीढ़ी ऐसी दुनिया रच रही है जिसके लिये न इतिहास हमें माफ करेगा, न हमारे बच्चे हमें माफ करेंगे. लेकिन, आत्ममुग्ध और आत्मतुष्ट लोग इतना कुछ सोच सकने की सामर्थ्य खो देते हैं.

हम वैचारिक रूप से दिवालिया पीढ़ी तो हैं ही, मानसिक रूप से रुग्ण पीढ़ी भी हैं. हमारी राजनीतिक प्राथमिकताएं इसकी तस्दीक करती हैं जो हमारे बच्चों को गुलाम बनाने की सारी कवायदें कर रही हैं.

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