भारतीय संविधान पूरी दुनिया में शायद इकलौता ऐसा संविधान है, जिसका सीधा टकराव अपने ही सामाजिक मूल्यों से रहा है. जैसे हमारा संविधान सभी को बराबर मानता है लेकिन समाज एक दूसरे को छोटा-बड़ा मानता है. संविधान छुआ छूत को अपराध मानता है लेकिन समाज उसे अपनी प्यूरिटी को बचाये रखने के लिए ज़रूरी मानता है. संविधान वैज्ञानिक सोच विकसित करने की बात करता है लेकिन समाज कर्मकांड को अपना प्राण मानता है.
इसतरह हम कह सकते हैं कि सभी तरह के जातीय, साम्प्रदायिक और लैंगिक संघर्ष में शामिल लोग संविधान के दोनों छोर पर पाए जाने वाले लोग हैं. और ये संघर्ष दरअसल संविधान को न मानने और मानने वालों के बीच का ही संघर्ष है.
मसलन हिंसा के शिकार दलित चाहते हैं कि उनको संविधान प्रदत अधिकार मिले और हमलावर चाहते हैं कि उन्हें दलितों को पीटने का संविधानपूर्व का पारंपरिक अधिकार अभी भी मिलना जारी रहे.
इसी तरह साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार मुसलमान चाहते हैं कि देश संविधान में वर्णित धर्मनिरपेक्ष मूल्यों से चले. लेकिन उनके हमलावर चाहते हैं कि देश संविधान विरोधी संघ के इशारे पर चले. इस तरह, हम एक राष्ट्र के बतौर पिछले 70 साल से संविधान को उखाड़ने और लागू करने की लड़ाई लड़ रहे हैं. दुनिया के किसी भी दूसरे देश में संविधान को लेकर इतना तीखा और लम्बा संघर्ष फिलहाल कहीं नहीं चल रहा है. जो बहुत हद तक स्वाभाविक भी है क्योंकि आप सिर्फ एक दसतावेज़ लिखकर हज़ारों सालों के सामाजिक रिश्तों को तो नहीं बदल सकते. ना वर्चश्वशाली तबका जिसे उस पारंपरिक व्यवस्था से लाभ था, ऐसे ही तो हथियार डाल नहीं देगा. हो सकता है वो मुह पर कुछ ना बोले लेकिन मन से वो तैयार थोड़े ही होगा इसके लिए.
मसलन समतामूलक संविधान देने वाले अम्बेडकर का सम्मान तो उनके सहयोगी करते थे लेकिन उनके घर जाने पर मंत्रिमंडल के ही कई लोग पानी पीने से इनकार करने के लिए कई तरह के बहाने बना देते थे. कोई कहता था कि उसका व्रत है तो कोई प्यास नहीं लगी है कह कर अपने मन मस्तिष्क को संविधानपूर्व की स्थिति में ही रखने की कोशिश करता था. लेकिन सभी तो अम्बेडकर हो नहीं सकते ना, जिन्हें सिर्फ मौखिक तरीके से ही टरकाया जा सके.
दशरथ मांझी जैसे आम लोगों को तो जिन्हें लगता था कि क़ानून बन जाने से देश अचानक अपने को उसके अनुरूप ढाल लेता है, चट्टी चैराहों पर पिटना पड़ता था. तब उन्हें समझ में आता था कि जमींदारी उन्मूलन कानून बन जाने से ज़मींदार और हरवाहा बराबर नहीं हो जाते. यानी उन्हें इस पिटाई से संदेश दिया जाता था कि संविधान बन जाने से वे ज़्यादा उड़े नहीं, नहीं तो ठीक कर दिए जाएंगे. लेकिन अम्बेडकर और दशरथ मांझी दोनों ने पलटवार किया. एक ने गुस्से में धर्म बदल लिया और एक ने पहाड़ ही काट दिया.
हां, जब कभी संविधान समर्थक लोगों का पलड़ा भारी रहा है, देश आगे बढ़ा है और हम आधुनिक दुनिया का हिस्सा लगने लगे हैं. लेकिन जब संविधान विरोधी खेमा मजबूत हुआ है तो देश प्राचीन युग की उल्टी यात्रा पर निकल गया है. फिलहाल हम इसी उल्टी यात्रा पर हैं, जिसमें कई साल पीछे छूट चुके कई स्टेशन हम लोग पिछमुकिया क्रॉस करेंगे. जैसे अभी कुछ दिन पहले ही हम कभी विकासशील से अविकसित घोषित होने वाले स्टेशन से गुज़रे हैं.
सबसे मजेदार कि इस उलट यात्रा में खूब लंबे-लंबे अंधेरे सुरंग हैं, जिनसे गुज़रते हुए सभी यात्री खूब उत्साह से चिल्ला भी रहे हैं. वैसे भी हम अंधेरे में रोमांचित होने वाले समाज तो हैं ही. लेकिन इंतज़ार करिये जल्दी ही दूसरी तरफ जाने वाली इसी नाम की अप ट्रेन भी आने वाली है, जो रोशनी की तरफ जायेगी.
ये रस्साकशी चलती रहेगी. कई बार एक ही स्टेशन पर दोनों गाड़ियां एक दूसरे को क्रॉस करेंगी या एक साथ किसी तीसरी गाड़ी जो निश्चित है मालगाड़ी होगी, के निकल जाने का इंतज़ार करेंगी. इस दौरान बहुत से यात्री इसमें से उसमें और उसमें से इसमें भी आएंगे जाएंगे. खूब लिहो लिहो भी होगा. पता नहीं कौन कहाँ और क्यों पहुँचेगा, लेकिन यात्रा मज़ा देगी. जैसे ये देश मज़ा देता है. इस मज़ेदार देश को हिंदी दिवस की तरह ही संविधान दिवस भी मुबारक हो.
- शहनवाज आलम
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