कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
भारत पाक विभाजन को लेकर बहुत-सी भ्रांतियां हैं. लोगों को इतिहास की बातें सूचित तक नहीं है, फिर भी लेख पर लेख लिखे जा रहे हैं. कुछ तथ्यों की मैंने जांच करने की विनम्र कोशिश की है. आप देखिए.
भारत-पाक विभाजन इस महाद्वीप और महादेश के इतिहास की सबसे बड़ी राजनीतिक त्रासदी है. विभाजन नहीं होता तो हिंदुस्तान हिंदू-मुस्लिम गंगा-जमुनी संस्कृति का दुनिया को सच्चा संदेश दे सकता था. ऐसा भी नहीं है कि विभाजन रोका नहीं जा सकता था. यह भी सच है कि इतिहास में विभाजन घटित हो ही गया तो उसको लेकर अगली संभावनाओं के गाल बजाने से भी क्या कुछ हासिल होने वाला है.
भारत-पाक विभाजन को लेकर जो भी उपलब्ध साहित्य है, उसमें महात्मा गांधी, मौलाना आजाद और डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे राजनीतिक व्यक्तित्वों की किताबों में बहुत संदेश मिलते हैं. सबसे ज्यादा, सीधी और प्रामाणिक जानकारी मशहूर पत्रकार द्वय लैरी काॅलिन्स और दाॅमिनिक लाॅ पियरे की किताबों ‘फ्रीडम एट मिडनाइट‘ और ‘माउंटबेटन एंड दि पार्टिशन ऑफ इंडिया’ में मिलती है. भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का प्रामाणिक इतिहास लिखने वाले इतिहासविद् ताराचंद ने भी अपनी राय इस संबंध में कायम की है. बेहद चलताऊ ढंग से और संक्षेप में लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी पुस्तक ‘माइ कंट्री, माइ लाइफ’ में विभाजन के मुद्दे का स्पर्श किया है लेकिन उसमें गवेशणात्मक तथ्य नहीं हैं.
‘इंडिया विन्स फ्रीडम‘ में मौलाना आजाद ने बेहद संजीदा ढंग से इस मुद्दे को तार्किक आधार पर परिभाषित करने की कोशिश की है. मौलाना का यह कथन मान लेने में कोई बुराई नहीं है कि वे पूरी जिंदगी विभाजन के विरोधी रहे. दरअसल विभाजन की पृष्ठभूमि का खुलासा और विचारण किए बिना लाॅर्ड माउंटबेटन के भारत के वाइसराॅय और गवर्नर जनरल की नियुक्ति के बाद घटनाएं 22 मार्च 1947 से तेजी से घटना शुरू हुईं. उनमें ही विभाजन के निर्णय ने जन्म लिया.
मौलाना फरमाते हैं कि माउंटबेटन ने अपनी चाल के लपेटे में सबसे पहले सरदार वल्लभभाई पटेल को ले लिया. उन्होंने न केवल भारत का विभाजन स्वीकार किया, बल्कि उस विचार पर वे ज्यादा अडिग होते गए. मौलाना की समझ से उसका सबसे बड़ा कारण यह था कि वाइसराॅय की कार्य परिषद में कांग्रेस की सद्भावनाजन्य गलती के कारण मुस्लिम लीग के लियाकत अली खान को वित्त विभाग के सदस्य की हैसियत से नामांकित कर दिया गया. यह भी सरदार पटेल के कारण क्योंकि वे गृह विभाग अपने लिए चाहते थे. लियाकत अली खान की हठधर्मी और टांग अड़ाने की नीति के कारण बाकी विभागों का काम देख रहे कांग्रेस सदस्यों की कार्यक्षमता पर विपरीत असर पड़ने लगा. सरदार पटेल ने तो झल्लाकर यहां तक कहा कि वे मुस्लिम लीग की मदद के बिना एक चपरासी तक की नियुक्ति नहीं कर सकते.
मौलाना के अनुसार सरदार पटेल ने समझ लिया था कि किसी भी हालत में कांग्रेस मुस्लिम लीग के साथ सरकार चलाने जैसा जोखिम नहीं उठा सकती थी. इसलिए यथार्थ को समझते हुए विभाजन को स्वीकार करने के अलावा कांग्रेस के पास विकल्प नहीं था. मौलाना ने अलबत्ता नहीं बताया कि क्या इस संबंध में सरदार पटेल और नेहरू की आपसी सहमति या समझ स्वयमेव विकसित हो गई थी. यह ज़रूर कहा कि सरदार पटेल को अपनी तरफ मिलाने के बाद माउंटबेटन ने अपनी सारी ताकत जवाहरलाल नेहरू को पटाने में खर्च कर दी.
यही नहीं लेडी माउंटबेटन ने नेहरू पर अपनी ऐसी मोहिनी बिखेरी कि वे पूरी तौर पर विभाजन के पक्ष में खड़े हो गए. यह भी लेकिन मौलाना ने लिखा कि शुरुआत में जब उन्होंने नेहरू से विभाजन के संदर्भ में सरदार पटेल के आचरण की शिकायत की तो नेहरू उखड़ गए और उन्होंने पूरी ताकत और शिद्दत के साथ विभाजन के विचार का विरोध किया. बाद में धीरे धीरे लाॅर्ड माउंटबेटन ने उन्हें अपने झांसे में लिया और नेहरू और पटेल मिलकर कांग्रेस की ओर से विभाजन के पैरोकार बन गए.
मौलाना आजाद ने गांधी को लेकर भी अपनी वेदना प्रकट की. उनके अनुसार गांधी मांउटबेटन के हिंदुस्तान आने के तत्काल बाद उनसे मिले थे और विभाजन के खिलाफ अपनी राय दी थी. पटेल और नेहरू के रुख को जानने के बाद गांधी में बकौल मौलाना वह जोश नहीं रह गया था जिसे विभाजन के विचार के खिलाफ मुखर होना चाहिए था. जिस गांधी ने कहा था कि विभाजन उनकी लाश पर होगा, उनका नरम रुख मौलाना की समझ में नहीं आया.
आजाद ने यह साफ लिखा है कि गांधी के विचारों में यह परिवर्तन सरदार पटेल के दबाव के चलते आया. मौलाना आजाद की सलाह के अनुसार गांधी ने पहले तो सहमति व्यक्त की कि मोहम्मद अली जिन्ना को ही अविभाजित भारत की सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर लिया जाए जिससे एक बड़ी राजनीतिक दुर्घटना को टाला जा सके. नेहरू और पटेल ने इसका पुरजोर विरोध किया और गांधी को अपना सुझाव वापस लेना पड़ा.
भारत विभाजन और गांधी जी
गांधीजी ने 10 मार्च 1947 को पटना की प्रार्थना सभा में भारी मन से स्वीकार किया था कि मुसलमान पाकिस्तान चाहते हैं, जिससे मुसलमान पाकिस्तान और हिंदू हिंदुस्तान में हुकूमत कर सकें. उन्होंने कहा – समझ नहीं आता धार्मिक और राजनीतिक मतभेद होने पर युद्ध क्यों किया ही जाना चाहिए. अगले दिन प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा जिन्ना उनके मित्र हैं. जिन्ना उनके सामने शर्त रखें कि या तो गांधी पाकिस्तान का निर्माण कबूल करें अथवा जिन्ना उनकी हत्या कर देंगे, तो वे मर जाना कबूल करेंगे.
उन्होंने यह भी कहा यदि उन्हें आश्वस्त कर दिया जाए कि पाकिस्तान का निर्माण एक आदर्शवादी परिकल्पना है और हिंदू उसमें बाधाएं खड़ी कर रहे हैं तो वे हिंदुओं के घरों की छतों पर खड़े होकर घोषणा करेंगे कि पाकिस्तान बन जाना चाहिए.
नई दिल्ली की 7 अप्रैल 1947 की प्रार्थना सभा में गांधी ने मुसलमानों को विनम्र चेतावनी भी दी कि यदि मुसलमान हिंदुओं और सिक्खों से लड़कर पाकिस्तान बनाना चाहते हैं, तो वह निरा पागलपन होगा. उन्होंने कांग्रेस को भी चेतावनी दी कि उसे हिंदू और मुसलमान दोनों का समुचित प्रतिनिधित्व करना चाहिए. गांधी ने कहा वे ऐसे हिंदुस्तान या पाकिस्तान की कल्पना नहीं कर सकते जहां अल्पसंख्यकों के अधिकार सुरक्षित नहीं हो. गांधी के मन में भी पाकिस्तान बनने का डर पैठ गया था. गांधी इतने विचलित थे कि उन्होंने यह तक कह दिया कि यदि मुसलमान ताकत के जोर पर हिंदुस्तान चाहते हैं तो वह संभव नहीं होगा भले ही प्यार से वे पूरा हिंदुस्तान मांग लें.
9 अप्रैल 1947 की प्रार्थना सभा में नई दिल्ली में यह कहते हुए गांधी ने आगे कहा था कि वे तो जिन्ना को अविभाजित भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में देखना चाहेंगे, शर्त यही होगी कि उनकी मंत्रिपरिषद में हिंदुओं, मुसलमानों, पारसियों और अन्य कौमों का समान प्रतिनिधित्व हो. यही बात गांधी ने 10 अप्रैल को भी कही और कांग्रेस कार्य समिति ने इस मुद्दे पर विचार विमर्श किया. उन्होंने बंगाल के विभाजन के सिलसिले में यहां तक कहा कि यदि मुस्लिम लीग चाहे तो उनके साथ आने के लिए वह बंगाल के हिंदुओं से अपील कर सकते हैं.
रायटर के प्रतिनिधि डून कैम्पबेल को 5 मई 1947 के इंटरव्यू में गांधी ने दृढ़तापूर्वक कहा कि वे व्यक्तिगत तौर पर भारत विभाजन के खिलाफ हैं. इससे देश में पनप रही सांप्रदायिक समस्या का कोई हल नहीं निकलेगा. अरुणा आसफ अली और अशोक मेहता के इस प्रश्न का कि क्या पाकिस्तान बनाने का कोई विकल्प है ? गांधी ने कहा उसका एकमात्र विकल्प अविभाजित अखंड भारत है.
उन्होंने कहा यदि विभाजन के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया गया तो कठिनाइयों का समुद्र हमें डुबा देगा. अविभाजित भारत का सिद्धांत ही हमें सब कठिनाइयों के पार लगा सकता है. उन्होंने खेद सहित कहा इस मामले में कांग्रेस खुद को असहाय पा रही है. उस लंबी बातचीत में लेकिन महात्मा का आत्मविश्वास डगमगाता हुआ भी दिखाई पड़ा और गांधी ने खुद को कांग्रेस के समर्थन के अभाव में बिल्कुल एकाकी पाया. यह इंटरव्यू गांधी के जीवन की त्रासद कथाओं में एक है. उन्होंने जयप्रकाश नारायण, अरुणा आसफ अली और अत्च्युत पटवर्धन जैसे समाजवादी नेताओं की खुलकर तारीफ की.
अपनी नाकाम कोशिशों के चलते 7 मई 1947 की प्रार्थना सभा में गांधी ने एक बार फिर कहा कि यदि मुसलमान पाकिस्तान बनाना ही चाहते हैं तो वे बातचीत के जरिए गांधी को आश्वस्त तो करें. ऐसा ही उन्हें दूसरों को भी आश्वस्त करने के बारे में सोचना चाहिए. यदि वे दबाव डालकर मेरा समर्थन चाहते हैं तो वह किसी भी हालत में उन्हें नहीं मिल पाएगा.
8 मई 1947 को पटना जाते हुए रेलगाड़ी में गांधी ने लार्ड माउंटबेटन को पत्र लिखा यदि ब्रिटिश हुकूमत किसी भी तरह भारत विभाजन का पक्षकार होगा तो उसे इतिहास की दुर्घटना समझा जाएगा. उन्होंने कहा यदि पाकिस्तान को बनना ही है तो वह ब्रिटिश हुकूमत की वापसी के बाद हिंदुओं और मुसलमानों के आपसी सद्भाव के आधार पर भले ही सोचा जाए. वाइसराॅय को घेरते हुए गांधी ने ब्रिटिश हुकूमत की आलोचना की कि वह अपनी सार्वभौम ताकत के चलते इस मुद्दे का उस भावना के साथ हल नहीं निकाल पा रहा है जो उसका प्राथमिक उत्तरदायित्व है.
गांधी की भारत-विभाजन व्यथा बरकरार रही. 12 जून 1947 की प्रार्थना सभा में थक हारकर गांधी ने यहां तक कह दिया कि शायद इसमें ईश्वर की ही इच्छा है जो हिंदू और मुसलमान दोनों की परीक्षा ले रहा है कि हम एक दूसरे के प्रति कितने उदार हैं. गांधी ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को एक समान संस्थाएं समझने पर जोर दिया. गांधी की असहमति, हताशा और भविष्य की संभावनाओं के कई बिंदु भारत पाक संबंधों को लेकर गांधी वांग्मय में झिलमिलाते रहते हैं.
उन्होंने केवल मुस्लिम लीग को ही दोषी नहीं समझा बल्कि हिंदुओं को भी समझाइश दी. उन्होंने कहा वे असहाय महसूस कर रहे हैं लेकिन वक्त बताएगा कि गांधी में साहस की कमी नहीं थी. उन्होंने कहा यदि बहुसंख्यक लोग धैर्य से काम लें तो पाकिस्तान बनाने का जुनून धीरे-धीरे खत्म भी हो सकता है, क्योंकि सच्चा पाकिस्तान तो सच्चा हिंदुस्तान ही है. यही बात गांधी अपनी प्रार्थना सभाओं में बार-बार दोहराते रहे.
मुस्लिम लीग, कांग्रेस नेतृत्व और ब्रिटिश शासन से निराश होने के बाद गांधी का भरोसा अपने उन नैतिक अनुयायियों में ही रह गया था जो उनकी प्रार्थना सभाओं को गांधी विचार की गंगोत्री समझते रहे होंगे, भले ही अपनी नैतिक ताकत के बावजूद वे भारतीय राजनीति को प्रभावित नहीं कर पाने की असमर्थता से भी परिचित रहे होंगे.
गांधी को सदैव यह संदेह रहा कि क्या कांग्रेस कार्य समिति ने पाकिस्तान निर्माण के सिद्धांत को यथार्थ के पूरे वास्तविक आकलन के बाद ही किया होगा. अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की राजनीति से विक्षुब्ध होकर गांधी ने जयप्रकाश नारायण वगैरह समाजवादियों से 27 मई 1947 को बातचीत करते हुए कहा कि यदि विभाजन को अपनी छाती पर ढोना ही है तो दो भाइयों के बीच कोई तीसरा पक्ष हस्तक्षेप करने के लिए क्यों बुलाया जाए. अंततः 2 जून 1947 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के अपने भाषण में गांधीजी ने फिर साफ किया कि वे विभाजन संबंधी कार्यसमिति के प्रस्ताव से यद्यपि सहमत नहीं हैं, फिर भी वे अपनी वजह से कार्य समिति के सामने कोई अड़ंगा नहीं खड़ा करना चाहते.
भारत—पाक विभाजन और लोहिया
‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ के अनुसार गांधी के रुख की नरमी का कारण उनसे सरदार पटेल की दो घंटे की मुलाकात थी जिसमें सरदार पटेल ने बंद कमरे की गुफ्तगू में गांधी को विभाजन की अनिवार्यता के बारे में आश्वस्त किया. देश और इतिहास यह नहीं जानते कि सरदार पटेल ने आखिर गांधी को क्या समझाया होगा, जिसके अनुसार भारत का विभाजन एक हकीकत में बदले जाने को लेकर कांग्रेस और मुस्लिम लीग का नेतृत्व आखिरकार एक हो गए. हालांकि इसको समझना बहुत कठिन भी नहीं है.
इसमें शक नहीं कि मौलाना आजाद ने भी मुस्लिम लीग और जिन्ना को भारत विभाजन का मुख्य दोषी बताया है. साथ साथ यह भी कहा है कि शीर्ष कांग्रेस नेतृत्व से ऐसी कुछ गलतियां भी हुईं जिनका खमियाजा देश, इतिहास और भविष्य को भुगतना पड़ा. ये गलतियां नहीं हुई होतीं अथवा उन्हें सुधारने की सार्थक कोशिशें की गईं होतीं तो विभाजन के अभिशाप से बचा जा सकता था.
पाकिस्तान के निर्माण के संदर्भ में संघ परिवार की क्या भूमिका थी, इसे डॉ. लोहिया ने अपनी पुस्तक ‘विभाजन के अपराधी’ में व्यक्त किया है. लोहिया की विश्वसनीयता पर आज तक कोई सवाल संघ परिवार ने खुद नहीं उठाया है इसलिए उसे इतिहास के सच के रूप में स्वीकार कर लिया जाना चाहिए.
लोहिया लिखते हैं –
कट्टर हिंदूवाद द्वारा विभाजन के विरोध का कोई मतलब नहीं था, और न ही हो सकता था क्योंकि देश का विभाजन करने वाली शक्तियों में एक शक्ति वही कट्टर हिंदूवाद थी. वह वैसी ही थी जैसे कोई खूनी खून करने के बाद उस गुनाह के धक्के से पीछे हटता है.’ इसके बारे में कोई गलती नहीं होनी चाहिए, जिन्होंने अखंड भारत-अखंड भारत जोर-जोर से चिल्लाया यानी वर्तमान जनसंघ और हिंदूवाद की विचित्र अहिंदू भावना वाले उसके पुरखों ने, अगर करतूतों के परिणाम की दृष्टि से देखें न कि उनकी नीयत की दृष्टि से, तो देश का विभाजन करने में उन्होंने ब्रिटिश और मुस्लिम लीग की मदद की है.
उन्होंने एक ही देश के अंदर मुसलमान को हिंदू के करीब लाने का कोई जरा-सा भी काम नहीं किया. उन्होंने दोनों को एक-दूसरे से अलग करने का करीब-करीब हर काम किया. इस तरह का अलगाव ही विभाजन की जड़ बना. अलगाव के दर्शन को स्वीकार करना और, साथ ही साथ, अखंड भारत की अवधारणा करना खुद को धोखा देने का गंदा काम है. हिंदुस्तान में मुसलमानों का विरोधी पाकिस्तान का दोस्त है. जनसंघी और हिंदू ढब के सभी अखंड भारती पाकिस्तान के दोस्त हैं.
‘मौलाना आजाद की अंग्रेजी किताब इंडिया विन्स फ्रीडम को मैंने थोड़ा-थोड़ा कर-कर ही सही, पर पूरा पढ़ा है. समुदायों और राष्ट्रों के आचरण के संबंध में इस किताब ने मुझ पर एक अमिट छाप छोड़ी है…इसमें कोई शक नहीं कि मौलाना आजाद एक अच्छे मुसलमान थे और श्री जिन्ना उनके जितने अच्छे मुसलमान न थे…मौलाना मुस्लिम हितों के जिन्ना से बेहतर साधक थे लेकिन मुसलमानों ने उनकी सेवा को ठुकरा दिया…मौलाना ने उस मोहिनी या गुप्त विद्या को प्रगट करने की परवाह नहीं की है जिससे गांधी जी बदल गए. वे अकेले ही आखिर तक विभाजन के विरोधी रहे.
समूचा किस्सा बेलज्जत झूठ है…देश में इस ख्याल को बढ़ाने दिया गया है कि श्री नेहरू पर लेडी माउंटबैटन का कुछ दुष्ट प्रभाव था. इतिहास की गप-गोष्ठियां वास्तव में इस झूठ को सही बना सकती हैं. इतने बरसों तक जो सामयिक गप लड़ाई जा रही थी, उसे इतिहास बनाने की पहली कोशिश मौलाना आजाद ने की है…इन दोस्तियों पर कोई राजनैतिक अर्थ आरोपित करना अनुचित होगा…
लार्ड माउंटबेटन के रोल को नीति-निर्माता का रोल कहने में मौलाना आजाद ने निश्चय ही गलती की है. लार्ड माउंटबैटन उनके ओहदेदारों द्वारा उनके लिए बनाई गई नीतियों पर निःसंदेह कुशलतापूर्वक अमल करते थे…लार्ड माउंटबेटन का रोल इस मानी में सचमुच बड़ा था कि उन्होंने अपनी सरकार द्वारा बनाई गई नीतियों पर बखूबी अमल किया, पर वह महान न था.
यह लोहिया ही हैं जिन्होंने गैर कांग्रेसवाद का नारा देकर आखिरकार संघ परिवार को सत्ता में पहुंचने की सीढ़ी उपलब्ध कराई. इसके अतिरिक्त सरदार पटेल ने संविधान सभा में पाकिस्तान और मुसलमानों की भूमिका को लेकर जो कटाक्ष किए हैं, वे तिलमिलाने वाले हैं. एक देशभक्त के रूप में सरदार पटेल की अद्वितीय स्थिति है खुद लोहिया गांधी से उनके अंतरंग संबंधों के मद्देनजर एक चश्मदीद गवाह की तरह लिखते हैं –
इसी मीटिंग में श्री नेहरू और सरदार पटेल ने गांधी जी के साथ असभ्य और टुच्चेपन का व्यवहार किया. उन दोनों के साथ मेेरी कुछ झड़प हो गई. उनमें से कुछ की मैं चर्चा करूंगा. अपने अधिष्ठाता के प्रति इन दो चुनिंदा चेलों के अत्यधिक अशिष्ट व्यवहार से मुझे जैसे पहले आश्चर्य हुआ था, वैसे अब भी आश्चर्य होता है, हालांकि आज उसे मैं कुछ बेहतर समझ सका हूं. इस चीज में कुछ मनोविकार था. ऐसे लगता था कि वे किसी चीज के लिए ललक गए हैं, और, जब कभी उन्हें इसकी गंध मिलती कि गांधी जी उनको रोकने लगेंगे, वे जोर से भौंकने लगते.
…मौलाना ने सरदार पटेल के प्रति अपने विद्वेश को भरपूर उड़ेल दिया है. यह बिल्कुल स्वभाविक था. सरदार पटेल अपने राजनैतिक हेतुओं में जितने असंदिग्ध हिंदू थे मौलाना आजाद उतने ही मुस्लिम थे…श्री आजाद और श्री पटेल के बीच की कलह उनके सहकर्मियों के बीच के सामान्य रिश्तों के अनुरूप ही है…श्री पटेल शायद उतने ही तुच्छ, व्यक्तिवादी और प्रतिहिंसात्मक थे, जितने कि श्री आजाद या श्री नेहरू, लेकिन वे इनसे कहीं अच्छी धातु के बने थे. राजविद्या के क्षेत्र में उनके विस्तार का कोई मुकाबला न था. जहां उनका अधम ‘स्व’ जुड़ा न होता, वे परिपूर्ण कुशलता और साहस के साथ काम करते थे, जैसा कि उन्होंने देशी राज्यों के मामले में किया…मैं नहीं समझता कि श्री नेहरू या श्री आजाद इस काम को कर पाते. अपने सहकर्मियों के बौनेपन के कारण श्री पटेल इतने अतुलनीय विराट लगते थे. ऐसा नहीं कि उनकी उपलब्धि कठिन या असाध्य थी. सामान्य काल की औसत प्रतिभा में श्री पटेल जैसी कुशलता और साहस का कोई विशेष उल्लेख न होता.’
भारत-पाक विभाजन
‘फ्रीडम ऐट मिडनाइट’ लिखते वक्त काॅलिन्स और लाॅ पियरे को सरकारी और दूसरे दस्तावेज खंगालने पड़े. उनका वजन कोई नौ सौ किलो था. इसमें से एक रहस्य उनके हाथ लगा कि जिन्ना को तपेदिक की असाध्य बीमारी हो गई थी. जिन्ना को डाॅक्टरों ने बता रक्खा था कि उनका जीवन बमुश्किल छह सात महीनों का ही बचा है. शायद कांग्रेस के नेताओं को यह गोपनीय जानकारी नहीं रही होगी. ब्रिटिश हुक्मरानों को जिन्ना की बीमारी का कुछ तो भान था लेकिन उसकी गंभीरता का नहीं.
अपनी दूसरी पुस्तक माउन्टबेटन ऐण्ड दी पार्टिशन ऑफ इंडिया में काॅलिन्स और लाॅ पियरे माउंटबेटन से लिए साक्षात्कार का उल्लेख करते हैं कि माउंटबेटन ने भी यह स्वीकारा था कि उन्हें जिन्ना की इस असाध्य बीमारी और डाॅक्टरों द्वारा की गई भविष्यवाणी की कोई जानकारी नहीं थी. माउंटबेटन ने यह भी कहा यदि उन्हें जानकारी होती तो शायद जिन्ना को अंतिम निर्णय लेने में कुछ अरसा के लिए टाला भी जा सकता था.
आखिरी वाइसराॅय का यह कहना था कि ब्रिटिश हुकूमत और वे वास्तव में भारत का विभाजन नहीं चाहते थे और उन्होंने लगातार कोशिश की कि किसी तरह विभाजन से बचा जाए. वे जिन्ना के अडि़यल रुख की वजह से नाकामयाब हो गए. माउंटबेटन विकल्प में यह भी कहते हैं कि शायद ऐसा नहीं भी हो सकता था क्योंकि जिन्ना को तो अपनी बीमारी और संभावित मौत के बारे में सही सही जानकारी रही होगी.
वाइसराॅय इस विकल्प से भी इंकार नहीं करते कि डाॅक्टरों ने शायद जिन्ना को उनकी गंभीर बीमारी और संभावित बची हुई जिंदगी के बारे में कुछ भी नहीं बताया हो. इसके बावजूद जिन्ना वह संघर्ष कर रहे थे जिसके फलस्वरूप उन्हें पाकिस्तान का संस्थापक राष्ट्रपति बनने का इतिहास अवसर दे दे.
काॅलिन्स और लाॅ पियरे ने 1983 में अपनी पुस्तक ‘माउंटबेटन एण्ड दि पार्टिशन ऑफ इंडिया‘ प्रकाशित की. यह पुस्तक लार्ड माउंटबेटन समेत भारत के विभाजन संबंधी कुटिल ब्रिटिश राज की रहस्य परतों की एक एक गांठ खोलती है. माउंटबेटन ने अपनी लंबी इंटरव्यू श्रृंखला में तमाम तरह की कलाबाजियों का प्राथमिक साक्ष्य दिया और स्वीकारोक्तियां भी की.
वैसे तो माउंटबेटन को मार्च 1948 तक भारत को आजादी देने या सत्ता हस्तांतरित करने का समय दिया गया था, लेकिन माउंटबेटन को बहुत जल्दी थी. भारत आने के पहले लाॅर्ड वैवेल ने माउंटबेटन के कान फूंके थे कि गांधी तो एक प्यारा आदर्शवादी व्यक्ति है और जरूरत पड़ने पर वह अपनी शक्ति उपवास के जरिए बटोर लेता है. वैवेल के अनुसार जिन्ना एक बकवादी व्यक्ति है. वह शिक्षा दीक्षा और आचरण से पूरा अंग्रेज है.
माउंटबेटन ने अपनी रणनीति का खुलासा करते हुए वी. पी. मेनन जैसे उन भारतीय सलाहकारों का जिक्र भी किया जिसका माउंटबेटन ने इस्तेमाल किया और मेनन का तो खासतौर पर सरदार पटेल को पटाने में. माउंटबेटन नेहरू के खासमखास कृष्ण मेनन से भी परिचित थे और उनकी नेहरू के लिए महत्ता को समझते थे. इस वाइसराॅय ने गांधी, नेहरू, पटेल, लियाकत अली खान और जिन्ना को भारतीय राजनीति का नियंत्रक बताते हुए उनमें पांच समानताएं भी ढूंढ़ी थी –
- पहली यह कि वे सभी प्रौढ़ थे और एक दूसरे से बहस करते रहते थे.
- दूसरी यह कि उन्हें स्वतंत्रता चाहिए थी और उसके लिए वे संघर्ष कर सकते थे.
- तीसरी यह कि वे अंग्रेजी बुद्धि द्वारा प्रशिक्षित कुशल वकील थे.
- चौथी यह कि जो बात उन्हें बताई जानी थी उसके लिए ही तो वे पूरे जीवन संघर्ष करते रहे थे.
- पांचवीं यह कि उन पांचों के लिए राजनीति ही उनका जीवन थी. उन्हें निजी जिंदगी से कोई मतलब नहीं था.
माउंटबेटन ने यह स्वीकार किया कि सबसे पहले उनकी अथाॅरिटी को सरदार पटेल ने ही चुनौती दी. वे अत्यंत कठोर थे और उन्होंने माउंटबेटन को बेहद कड़ा नोट भेजा था. उनके लेखे पटेल एक दबंग और रोबीले व्यक्ति थे. उनसे निपटने के लिए माउंटबेटन को अपने त्यागपत्र तक की धमकी देनी पड़ी. उसके बाद पटेल से उनकी दोस्ती हो गई.
यह माउंटबेटन का आकलन था कि पटेल को अपनी ढलती उम्र (लगभग 73 वर्ष) का अहसास था और इसलिए उन्हें नेहरू के मुकाबले सत्ता के हस्तांतरण की शीघ्रता थी. {एक अलग संदर्भ में देसी रियासतों के विलीनीकरण के बाद सरदार पटेल ने यह जरूर कहा था कि काश वे कुछ वर्ष छोटे होते तो भारत को एक मजबूत बुनियाद पर खड़ा कर सकते थे.}
माउंटबेटन ने यह भी साफ किया है कि भारत-पाक विभाजन के मुद्दे की चाबी गांधी के पास नहीं जिन्ना के हाथों में थी. लोगों में यह भ्रम अलबत्ता फैलता रहा कि या तो गांधी गलतियां कर रहे हैं या नेहरू. वह सारा संशय लेकिन दो व्यक्तियों के कारण फैलता रहा जो जिन्ना और पटेल थे.
जिन्ना तो एक तरह से फ्रांस के चाल्र्स डि गाल की तरह थे. सबको फुसलाया जा सकता था लेकिन जिन्ना को नहीं. भारत विभाजन करने की हड़बड़ी का एक मुख्य कारण माउंटबेटन ने यह भी बताया कि उनकी अंतरिम मंत्री परिषद में छह सदस्य मुस्लिम लीग, छह सदस्य कांग्रेस और तीन अन्य तो थे, लेकिन हर मुद्दे पर वे तीन अन्य सदस्य कांग्रेस का ही साथ देते थे. वह स्थिति मुस्लिम लीग को नागवार गुजरती थी.
ऐसा नहीं है कि भारत विभाजन का प्रश्न लाॅर्ड माउंटबेटन के वाइसराॅय बनने के बाद ही पहली बार कांग्रेस के जेहन में आया था. रामगढ़ में 15 मार्च 1940 को कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में गांधी ने पूछा था यदि कांग्रेस के सामने हिंदू भारत और मुस्लिम भारत के रूप में विभाजन किए जाने की मांग हो तो उस समय कांग्रेस की क्या स्थिति होनी चाहिए ?
गांधी ने साफ कहा था कि देश अभी सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए तैयार नहीं है. गांधी ने कहा था यदि वे संघर्ष आरंभ करते हैं तो बदले में जनता को कुचला जा सकता है. उन्होंने कांग्रेस से हट जाने का भी प्रस्ताव किया था. 28 सितंबर 1944 को गांधी ने फिर कहा था कि मुस्लिम लीग मुसलमानों का सबसे ज्यादा प्रतिनिधिक संगठन है, लेकिन मुस्लिम लीग के बाहर मुसलमानों की बहुत बड़ी संख्या ऐसी है जो लीग के विचारों से सहमत नहीं थी और जिसे दो राष्ट्रों के सिद्धांत में विश्वास नहीं था.
महात्मा गांधी को यह बताया गया कि जो मुसलमान मुस्लिम लीग से सहमत नहीं हैं, उन्हें सचमुच मुसलमानों का समर्थन प्राप्त नहीं है. इसके उत्तर में महात्मा गांधी ने कहा कि यद्यपि मुस्लिम लीग मुसलमानों का सबसे बड़ा प्रतिनिधिक संगठन है फिर भी मैं अन्य लोगों का तिरस्कार नहीं कर सकता कि उन्हें मुसलमानों का समर्थन प्राप्त नहीं है.
जिन्ना की सांप्रदायिकता को उभारने की अद्भुत शक्ति में कितना ही खलनायकत्व क्यों न कहा जाता रहा हो, अंततः जिन्ना ने सबको धता बताकर पाकिस्तान तो बनवा ही लिया. इसमें कहां शक है कि पहले सरदार पटेल और फिर नेहरू विभाजन के समर्थकों की सूची में शामिल हैं. वल्लभभाई पटेल ने यदि उन व्यावहारिक परिस्थितियों के कारण विभाजन का समर्थन करने का निश्चय किया जिसका खुलासा उन्होंने महात्मा गांधी को अपनी दो घंटे लंबी मुलाकात में किया होगा तो वह विवरण खुद गांधी और पटेल ने भविष्य की पीढि़यों को नहीं बताया.
बकौल ए.जी. नूरानी अपनी क्लासिक कृति ‘कांग्रेस का इतिहास‘ में तो यहां तक लिखा है कि मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा का गठबंधन भारत-पाक विभाजन के वर्षों पहले सिंध प्रांत के मंत्रिमंडल में पैदा हो गया था.
विभाजन पर रोटी सेंकता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
भारत-पाक विभाजन की चिता की आग में अब सभी लोग रोटियां सेंक रहे हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रमुख सुदर्शन आजादी के पहले के जिन्ना को सेक्युलर बताते हैं. वे गांधी को विभाजन का जिम्मेदार बताते हुए याद दिलाते हैं कि बापू ने कहा था कि पाकिस्तान उनकी लाश पर ही बनेगा, लेकिन वह उनके जीते जी बन गया. जो जिन्ना पाकिस्तान के निर्माण के लिए जिम्मेदार रहा है, वह तो कथित रूप से सेक्युलर था और गांधी जो उस जिन्ना को रोक नहीं सके बल्कि अपने शिष्यों नेहरू और पटेल को भी, उन्हें सुदर्शन जिम्मेदार ठहरा रहे हैं.
विभाजन के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े व्यक्ति ने बापू की हत्या करके क्या उन्हें उनका वचन याद दिलाया ? मुझे तो लगता है कि विभाजन को लेकर डा. राममनोहर लोहिया का यह कथन सबसे ज्यादा प्रामाणिक, समावेशी और विचार योग्य है –
जिन बुनियादी कारणों की वजह से विभाजन हुआ, वे ये हैंः पहला, ब्रिटिश कपट; दूसरा, कांग्रेस नेतृत्व की ढलती उमर; तीसरा हिंदू-मुस्लिम दंगों की वस्तुपरक अवस्था; चौथा, जनता में साहस और धैर्य की कमी; पांचवां, गांधी जी की अहिंसा; छठवां, मुस्लिम लीग की पृथकवादिता; सातवां, जो अवसर मिलें उनका फायदा उठाने की अक्षमता और; आठवां, हिंदू अहंकार.
लालकृष्ण आडवाणी ने मोटे तौर पर पहले मुस्लिम लीग और जिन्ना और उसके बाद कांग्रेस को भारत-विभाजन का दोषी बताया है. लीग और जिन्ना को कोसने से भाजपा का वोट बैंक बढ़ता है इसलिए ऐसा करना भाजपा के लिए सदैव ही मुनासिब होता है. कांग्रेस को कोसने से भी भाजपा का वोट बैंक बढ़ता ही बढ़ता है-इसमें कहां शक है. चलते चलते अंग्रेजों के खिलाफ भी यदि ‘फूट डालो और राज करो‘ जैसी नीति का एकाध वाक्य में आडवाणी उल्लेख करते हैं-तो उसे ही वे राष्ट्रवाद भी समझ लेते हैं.
आडवाणी अलबत्ता डा. राममनोहर लोहिया की पुस्तक ‘भारत विभाजन के अपराधी‘ से खुद को सहमत घोषित करते हैं. वे लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय द्वारा 1964 में जारी उस संयुक्त बयान की ताईद भी करते हैं जिसमें भारत पाक महासंघ बनाने का सपना या संकल्प अभिव्यक्त किया गया था. यक्ष प्रश्न यह है कि स्वयं को देश का भावी प्रधानमंत्री प्रचारित करने वाले और विभाजन के शिकार रहे आडवाणी ने तफसील और तर्कों के आधार पर अपनी आत्मकथा में उन व्यक्तियों और कारणों को क्यों नहीं ढूंढ़ा जिसका खमियाजा इस महादेश के हर निवासी को भुगतना पड़ा ?
यह तो माना जा सकता है कि आडवाणी ने जिन्ना और नेहरू जैसे अपने राजनीतिक विरोधियों के कुनबे से अहसहमत होते हुए सरदार पटेल की भूमिका की भी जांच की होगी. उन्होंने डा. लोहिया की किताब का जिक्र तो किया लेकिन मौलाना आजाद की किताब का क्यों नहीं किया ?
किस्सा तो यह भी मशहूर है कि घनश्याम दास बिड़ला ने ही डा. लोहिया से अनुरोध किया था कि वे मौलाना आजाद की ‘इंडिया विन्स फ्रीडम‘ की तथ्यात्मक तथा तार्किक समीक्षा प्रकाशित करें और इस वजह से लोहिया ने एक स्वतंत्र पुस्तक ही लिख दी.
इतिहासविद् ताराचंद ने भी यही कहा है कि विभाजन पूर्व के हिंदुस्तान की पूरी नकेल मोहम्मद अली जिन्ना के चतुर हाथों में आ गई थी. अविभाजित भारत के मुसलमानों का उनके नेतृत्व में पक्का यकीन स्थापित हो जाने के बाद जिन्ना ने सामूहिक नेतृत्व के बदले वन मैन आर्मी की तरह आचरण किया और समर्थकों ने उन पर लगातार विश्वास कायम रक्खा. एक चतुर वकील होने के नाते जिन्ना के सामने गांधी, नेहरू और पटेल वगैरह के साथ लाॅर्ड माउंटबेटन के तर्क भी निरुत्तर हो जाते थे. तर्कों में परास्त दीखने पर जिन्ना हठवादी मनु मुद्रा अख्तियार कर लेते थे और लगातार सारे प्रस्तावों को नकारते जाते थे. जिन्ना की जिद पाकिस्तान की बुनियाद बनी और वह हिंदू मुसलमान के दरकते रिश्ते की भी.
बहुत चतुराई से जिन्ना ने केबिनेट मिशन योजना का विरोध किया और अंग्रेज वाइसराॅय के समझाने पर अंतरिम सरकार में अपने पांच प्रतिनिधि शामिल भी किए और तुरंत उलटवार किया कि मुस्लिम लीग न तो हिंदू बहुमत की संविधान सभा में शिरकत करेगी और न ही वह पाकिस्तान बनाने का अपना संकल्प मुल्तवी करेगी. जिन्ना के चक्रव्यूह में कांग्रेस तो कांग्रेस ब्रिटिश हुक्मरानों को भी फंसा हुआ देखकर इतिहास हैरान होता रहता है और सोचता है कि कैसे अंगरेजों ने पूरी दुनिया में अपना साम्राज्य स्थापित किया होगा. यदि बहुत से जिन्ना होते तो क्या होता ?
जिन्ना पर जसवंत सिंह की किताब
भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह की विवादग्रस्त बना दी गई किताब ‘जिन्नाः भारत विभाजन के आईने में‘ ने कई संवैधानिक, राजनीतिक और सामाजिक सवाल इसलिए खड़े कर दिए क्योंकि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें इस किताब की वजह से पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. अपने मौखिक निष्कासन आदेश में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने यह नहीं बताया था कि जसवंत सिंह ने अपनी किताब में ऐसा क्या लिख दिया है जिसे कथित रूप से पार्टी लाइन का उल्लंघन कहा गया ?
राजनीतिक हल्कों में चर्चा के अनुसार मोटे तौर पर जिन्ना को लेकर की गई उनकी पुनर्विचार की समझ तथा भारत-पाक विभाजन के संदर्भ में सरदार पटेल की भूमिका को ‘गलत‘ तरह से चित्रित किया जाना भाजपा के दृष्टिकोण से मेल नहीं खाता. यह अलग बात है कि कुछ समय से जसवंत सिंह कुछ अन्य नेताओं की तरह शीर्ष नेतृत्व की आंख की किरकिरी बने हुए थे और शायद पार्टी उन्हें हटाने का मन बनाती जा रही थी.
जसवंत प्रकरण से राष्ट्रीय महत्व के दो बड़े सवाल उठ खड़े हुए थे. पहला यह क्या एक राजनीतिक व्यक्तित्व को संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत दी गई अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार असीमित नहीं है ? क्या उसे उसकी पार्टी के नेतृत्व द्वारा बाधित किया जा सकता है, जिससे एक नागरिक के रूप में उसके मूल अधिकार छीन लिए जाएं ? दूसरा अहम सवाल यह कि भारत पाक विभाजन को लेकर बड़े खिलाड़ी थे – मसलन लाॅर्ड माउंटबेटन, महात्मा गांधी, मोहम्मद अली जिन्ना, जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल. क्या इनके राजनीतिक आचरण की दुबारा जांच करने की कोई जरूरत, उपादेयता या वांछनीयता है ? जसवंत सिंह सहित अन्य लेखकों ने इसे अपनी समझ के अनुसार बूझने का प्रयत्न किया है. तो क्या उनके हलक में अनुशासन का डंडा ठूंस देना चाहिए था ?
एक राजनीतिक पार्टी अपने विधान के तहत अपने सदस्य को पार्टी से बाहर निकाल सकती है. उसे संवैधानिक आधारों पर चुनौती नहीं दी जा सकती क्योंकि ऐसा निष्कासन बिना कारण बताए भी किया जा सकता है. यदि भाजपा जसवंत सिंह की किताब को लेकर यह कहे कि उसमें व्यक्त विचार पार्टी लाइन के विपरीत हैं तो निष्कासन की वैधता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है ? पार्टी के सोच की वैधता, संवैधानिकता और स्वीकार्यता पर सवाल देश का हर नागरिक खड़ा कर सकता है.
यदि जसवंत सिंह की पुस्तक में तथ्य तोड़े मरोड़े नहीं गए हैं – बल्कि दस्तावेजी सबूतों से लैस हैं – तो भाजपा में इतना नैतिक साहस होना चाहिए था कि वह देश को बताती कि पुस्तक में क्या गर्हित है जो एक शीर्ष राजनेता को इस तरह दंडित कर सकता है ?
आडवाणी ने खुद अपनी आत्मकथा में भारत विभाजन के बिंदु का केवल सरसरी तौर पर उल्लेख किया है. मौलाना आजाद, डा. लोहिया और उनसे ज्यादा महात्मा गांधी के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने तथ्यों के साथ छेड़छाड़ की होगी. स्वयं लाॅर्ड माउंटबेटन के इंटरव्यू और तत्कालीन राजनीतिक दस्तावेजों में जो सच कैद होकर रह गया है, वह भी कुल मिलाकर जसवंत सिंह की पुस्तक का उपहास नहीं करता.
तब सवाल खड़ा होता है कि कथित तौर पर क्या जसवंत सिंह को जिन्ना का महिमामंडन और सरदार पटेल की छवि का अवमूल्यन करने के नाम पर इसलिए दंडित किया गया जिससे सामान्य तौर पर देश के हिन्दू वोटों और खासतौर पर गुजरात के हिन्दू वोटों का फिर से धु्रवीकरण हो जाए ?
मज़ाक यह है कि पुस्तक गुजरात में मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी प्रतिबंधित करते हैं, वहीं भाजपा शासित अन्य राज्यों में प्रतिबंधित नहीं होती है. इससे यही राजनीतिक त्रैराषिक सिद्ध हुआ है कि गुजरात के हिंदू वोट ही भारत पाक विभाजन की ऐतिहासिकता के अभिशापों पर लगाए जाने वाले मरहम की तरह समझे जा रहे हैं. जाति, धर्म, संप्रदाय, प्रदेश और भाषा वगैरह के अधिकारों के आधार पर यदि इतिहास को विकृत करने की कोशिश की जाए तो उस पैमाने पर जसवंत सिंह का निष्कासन अवैध और असंवैधानिक था. वह राजनीतिक शुचिता का भी उदाहरण नहीं है. यही तो फासीवाद है. हिटलर भी तो कुछ ऐसी ही हरकतें करता था.
जसवंत सिंह की किताब ‘जिन्नाः इंडिया पार्टीशन, इंडिपेन्डेंस‘ को सरसरी तौर पर पढ़ने से उसमें ऐसा कुछ नजर नहीं आता जो भाजपा के तथाकथित दृष्टिकोण के खिलाफ हो. यह भी कि पुस्तक गुजरात सरकार द्वारा प्रतिबंधित करने के लायक हो. भाजपा ने देश को कभी लिखित सबूत नहीं दिया कि विभाजन के बारे में उसका दृष्टिकोण क्या है ? यह भी कि विभाजन को लेकर संघ परिवार का गांधी, जिन्ना, नेहरू और सरदार पटेल सहित अंग्रेजों के बारे में क्या सोच है ? ऐसे में जसवंत सिंह को तथाकथित चट्टान पर बिठा दिया गया था. वह भाजपा की बर्फ की सिल्ली है. उसका पानी रोज पिघल रहा है. एक दिन भाजपा का यह तर्क महल पानी की तरह बह जाएगा. यह भाजपा के दोमुंहेपन को उजागर करता है. क्या गुजरात की भाजपा पूरे देश की भाजपा से अलग है ?
सिर धुनने वाली बात तो यह भी है कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और मौलाना आजाद जैसे सूरमाओं की पार्टी के गुजरात के कांग्रेसियों ने पुस्तक को प्रतिबंधित करने के नरेन्द्र मोदी के निर्णय का समर्थन किया. अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी भाजपा के कौरव दरबार में पांडवों की तरह चुप रही.
गुजरात में गांधी के विचारों की शासकीय दुर्गति हो रही है, इसमें कोई संदेह नहीं है. वहां राष्ट्रभाषा हिंदी को संभ्रांत मंचों पर गुजराती और अंग्रेजी के बाद तीसरी प्राथमिकता मिल रही है. धर्मों और जातियों के बीच फैला सांप्रदायिक जहर गुजरात में अब भी सक्रिय भूमिका में है. लोहिया मजाक में कहते थे हमारा देश राष्ट्र है, उसका एक प्रदेश महाराष्ट्र और उससे छोटा इलाका सौराष्ट्र. गांधी ने इसकी उलटबांसी कर दी. वे सौराष्ट्र में पैदा हुए. महाराष्ट्र में उन्होंने आश्रम की स्थापना की और राष्ट्र की राजधानी में शहीद हो गए.
उनकी राष्ट्र की अस्मिता को बरबाद करने के आरोप में एक महाराष्ट्रियन ने हत्या की लेकिन संघ परिवार का मुख्यालय महाराष्ट्र में होने के बावजूद वह उनके विचारों की हत्या नहीं कर पाया. यह काम सौराष्ट्र के जिम्मे संघ परिवार ने कर दिया है, वहां गांधी के विचारों की लगातार हत्या हो रही है.
असल में जसवंत सिंह ने कुछ ऐसी गलतियां कीं, जिनका उन्हें अतिरिक्त खमियाजा भुगतने का फतवा भाजपा ने जारी किया. अपनी पुस्तक में जसवंत सिंह ने महात्मा गांधी की प्रशंसा की. गांधी की राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक सदस्य ने हत्या की है. गांधी को भाजपा और संघ परिवार ने खंडित स्वतंत्रता के संदर्भ में जी भरकर कोसा है, खासतौर पर पाकिस्तान को वित्तीय सहायता देने के प्रश्न पर. वही मुख्यतः उनकी हत्या का कारण भी कहा गया.
संघ परिवार की सांप्रदायिकता के चलते आज गांधी गुजरात में अप्रतिहत स्थिति में नहीं हैं. पोरबंदर तक तस्करों का स्वर्ग बन गया है. गुजरात में सारे देश के मुकाबले घृणित अपराध हो रहे हैं. उन्हें बापू अपनी भाषा में पाप कहते थे. फिर भी भाजपा हिंदू-मुस्लिम नफरत की बुनियाद पर ही गुजरात में अपनी स्थिति मजबूत रखे हुए है. यहां तक कि बकौल गोविंदाचार्य ‘मुखौटे’ अटल बिहारी वाजपेयी ने बहुत दबावों के कारण नरेन्द्र मोदी को गुजरात के श्रृंखलाबद्ध दंगों के बाद राजधर्म का पालन करने की सलाह दी थी.
बेचारे वाजपेयी नहीं जानते थे कि विभाजन की विभीषिका झेल चुके लालकृष्ण आडवाणी के पट्ठे नरेन्द्र मोदी को उनकी पार्टी ने राजधर्म नहीं निबाहने के बावजूद धर्मराज का खिताब दे दिया था. बहरहाल जसवंत सिंह ने भारत विभाजन के संदर्भ में हिंदू महासभा वगैरह के जमावड़े को लेकर उनकी तथाकथित राष्ट्रवादी भूमिका का खुलासा क्यों नहीं किया ? जसवंत सिंह बेचारे कैसे करते, तत्कालीन संघ परिवार ने भारत की आजादी के आंदोलन में सावरकर जैसे कुछ लोगों के अपवाद के अतिरिक्त शिरकत ही कहां की है ?
नेहरू परिवार की बुराई संघ परिवार का स्वस्तिवाचन है इसलिए सोनिया और राहुल गांधी तक आते=आते वह स्वस्तिवाचन जसवंत सिंह की किताब में बिखर गया. उसके सदस्य अरुण शौरी और सुधींद्र कुलकर्णी चाहे जैसे हों, आखिर बुद्धिजीवी तो हैं. बुद्धिजीवी अगर बंधे-बंधाए पानी में नहाएगा तो फिर उसे तालाब के बदले झील बेहतर नजर आती है. सफल वकील होने के बावजूद अरुण जेटली और सुषमा स्वराज वगैरह ने बुद्धिजीवी होने का मर्तबा कहां हासिल किया ?
जसवंत सिंह ने दूसरी गलती यह की कि उन्होंने नेहरू की संवेदनशीलता की भी तारीफ की. गांधी पर तो वे आसक्त नजर आते हैं. यही वह मर्मस्थल है जिस पर चोट पहुंचने से भाजपा नेतृत्व ने फन काढ़कर उन्हें डसने की कोशिश की. सरदार पटेल को लेकर जसवंत सिंह ने ऐसा कुछ नहीं लिखा जो विभाजन के खेल के अन्य खिलाडि़यों ने नहीं लिखा. राजनाथ सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा तो फकत दर्शक समूह रही है. वह साठ वर्ष पुरानी फिल्म को जसवंत सिंह द्वारा निर्मित दिग्दर्शित रीलों में देखती रही. उस फिल्म में मौलाना आजाद के अतिरिक्त विभाजन के विरोधी डा. लोहिया भी दिखाई पड़ते हैं.
नेहरू, जिन्ना और सरदार पटेल का तटस्थ और वस्तुपरक मूल्यांकन भारत-पाक विभाजन के संदर्भ में इतिहासकारों और बुद्धिजीवियों ने कर ही दिया है. जसवंत सिंह ने तो केवल उसका अनुसरण और समर्थन दस्तावेजों के आधार पर किया है. भाजपा को केवल गुजरात में ही अपना भगवा ध्वज फहराने में अंतिम इच्छा शेष रह गई थी, तो इस पार्टी के पालनहार की भूमिका भगवान राम से हटकर सरदार पटेल को सौंपने की तैयारी थी.
यह भी दिलचस्प है कि गुजरात हाई कोर्ट ने जसवंत सिंह की पुस्तक को प्रतिबंधित करने के आदेश को रद्द कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने भी उस पर अपनी मुहर चस्पा कर दी. क्या यह नहीं माना जाएगा कि जसवंत सिंह ने संविधान सम्मत आचरण किया है और इस अपराध के कारण भाजपा ने उन्हें निष्कासित किया है ? इतिहास संविधान से अलग होता है. भाजपा ने आज तक जितना साहित्य प्रकाशित किया है उसमें पूरे संघ परिवार के विचारों को शामिल कर लिया जाए तब भी जसवंत सिंह के खिलाफ जनता की अदालत में रजत शर्मा जैसे एंकर की भूमिका हथियाते हुए भाजपा कोई चार्ज शीट दाखिल नहीं कर सकती.
उपसंहार में जसवंत सिंह ने भाजपा की लाइन का ही समर्थन किया. भूमिका में भी ऐसे ही सवालों को उछाला है. क्या पार्टी लाइन का समर्थन करने से भी किसी नेता को पार्टी से निकाला जा सकता था ? भाजपा ने नहीं बताया क्योंकि बकौल अरुण शौरी ‘हम्प्टी डम्प्टी’ के नेतृत्व में उसे तो गिरना ही गिरना है. सब लोग मिलकर भी उसे बचा नहीं सकेंगे.
यह ज़रूर हुआ है कि जसवंत सिंह भारत-पाक विभाजन पर लिखी गई पुस्तकों के नए रचयिता के रूप में शामिल हो गए. उन्होंने जानबूझकर भी कई विवादास्पद सवालों को छोड़ दिया. कई जगह पूर्ववर्ती लेखकों की की गई कठोर टिप्पणियों को ढीला करने की कोशिश भी की. यदि भाजपा जसवंत सिंह की प्रतिपादित थ्योरी (गो कि वह थ्योरी नहीं पुनरावृत्ति है) से पीडि़त थी तो उसे मौलाना आजाद, राममनोहर लोहिया, लैरी काॅलिन्स और दौमिनिक लाॅ पियरे बल्कि महात्मा गांधी की भी इस संदर्भ में खुलकर आलोचना करनी चाहिए. इससे एक साथ कांग्रेसियों, जनता दल (यूनाइटेड) समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, कम्युनिस्ट पार्टियों सहित सभी मुस्लिम संगठनों वगैरह को उन पर भी हमला करने का अवसर तो मिले.
जसवंत सिंह ने अपनी पुस्तक में खूंखार आतंकवादियों के भेस में जिन्ना जैसे किसी आतंकवादी की तर्क महल में बैठकर रिहाई नहीं की, न ही निर्दोष नागरिकों को बचाने के नाम पर कोई नीतिगत निर्णय लिया. भाजपा ने पुस्तक की बिक्री में अप्रत्यक्ष मदद की. हर पढ़ा लिखा बुद्धिजीवी इसमें जिन्ना के जिन्न को ढूंढ़ता रहा. उसे भाजपा अपनी बोतल में बंद समझती रही. काश ! भाजपा इस पुस्तक के उन पन्नों को वक्त की दीवार पर चिपका सके जो देश के हितों के खिलाफ उसे नज़र आते हों. जसवंत सिंह का लेख भारतीय जनता के खिलाफ नहीं है तो भी भाजपा उसको अपनी पार्टी का शगल बना सकती थी.
क्या आप भारत-पाक विभाजन से जुड़ी किताबें पढ़ना चाहते हैं ? – रविश कुमार
हमारे समाज में इतिहास की पढ़ाई को फ़ालतू समझा जाता है. ग़लत धारणा है कि रटने की विधा है. लोग इतिहास जानने के परिश्रम से भागते भी है लेकिन टकरा भी जाते हैं तब चोर गली का रास्ता खोजने लगते हैं कि दो लाइन कोई बता दें और काम चला लें. कई कारण से आपको जीवन भी मौक़ा नहीं देता. कई तरह के काम करने पड़ते हैं. इसका फ़ायदा ठग टाइप के नेता उठाते हैं और इतिहास को लेकर कुछ भी बोल जाते हैं. इन ठगों को पता है कि दो चार लोग सही संदर्भ में लिख भी देंगे तब भी उनकी ही बात करोड़ों लोगों तक पहुँचेगी, इतिहासकार की बात नहीं. इसका लाभ इन दिनों यू-ट्यूब में कुछ लोग कोचिंग इतिहासकार बन कर उठाते हैं.
भारत पाक विभाजन पर इतिहासकारों ने लाखों पन्नों के शोध प्रकाशित किए हैं. इसे पढ़ने में जीवन के एक दो साल निकल जाएँगे. शानदार साहित्यिक रचनाएँ हैं. अगर कोई मूर्ख माइक लेकर कहता है कि विभाजन का इतिहास नहीं बताया गया तो उससे सावधान रहें. आप लाइब्रेरी जाएँ, कुछ पैसे ख़र्च करें, अपनी किताब ख़रीदें. हमने आपको 29 किताबों की ही सूची दी है, इसका मतलब यह नहीं कि इतनी ही हैं. इसके अलग-अलग पहलुओं को लेकर शोध हुआ है और किताबें लिखी गई हैं. उनकी किताबों की सूची नहीं दी है.
आप इन सभी किताबों को मंगा लें. सब नहीं दो पाँच या दस मंगा लें, फिर पढ़ें. तय कर लें कि छह महीने के भीतर सभी को पढ़ना है. तब पता चलेगा कि इतिहास का गहन अध्ययन कितना मुश्किल है और माइक लेकर इतिहास के नाम पर बकवास करना कितना आसान है. आप काफ़ी बेहतर महसूस करेंगे. हमने सौरभ बाजपेयी से आग्रह किया था कि वे कुछ किताबों की सूची बना दें. उनका बहुत शुक्रिया. सौरभ ने इस सूची में उन किताबों का भी नाम डाला है जिनका हिन्दी अनुवाद हुआ है. प्रकाशक के भी नाम है. एमेज़ान पर कई किताबें मिल जाएँगी. हमने भी दो तीन किताबों के नाम इस सूची में डाल दिए हैं.
और हाँ अगर प्रधानमंत्री मोदी इतिहास के बारे में कुछ कहें तो मैं कुछ नहीं कह सकता.
वे जल्दी ही एक दिन रसायनशास्त्री भी हो जाएँगे और जीव विज्ञानी भी लेकिन आप एक नागरिक के तौर पर किसी भी विषय के पेशेवर सिद्धांतों का ध्यान रखिए और अध्ययन कीजिए.अगर आप हिन्दी प्रदेश के युवा हैं तो आपको इस तरह के बकवास से कोई नहीं बचा सकता है. नेता आपको इसी लायक़ समझता है. आप उसे ग़लत साबित न करें. उसके लिए पढ़ना पड़ेगा. इतनी मेहनत आपसे होगी नहीं. हिन्दू मुस्लिम के लिए भी तो आपको टाइम निकालना है.
भारत-पाक विभाजन पर इतिहास की किताबों की सूची-
- सुचेता महाजन, स्वाधीनता और विभाजन, ग्रंथशिल्पी, दिल्ली, 2005
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Singh, Anita Inder, The Origins of the Partition of India, 1936- 1947, OUP, New Delhi, 1987 - बिपन चन्द्र, सांप्रदायिकता: एक प्रवेशिका, नेशनल बुक ट्रस्ट, नयी दिल्ली (NBT ने नए प्रिंट ऑर्डर देने से मना कर दिया इसलिए आउट ऑफ़ स्टॉक)
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- The Punjab Bloodied Partitioned and Cleansed: Unravelling the 1947 Tragedy Through Secret British Reports and First Person Accounts by Ishtiyaq Ahmed. ये किताब हिन्दी में भी है.
- The Great Partition- Yasmin Khan. इसका हिन्दी अनुवाद पेंग्विन से छपा है। विभाजन- भारत और पाकिस्तान का उदय, एमेज़ॉन पर है.
- the untold story of India’s Partition- Narendra Singh Sarila, Harper Collins
- Partition’s Legacies by Joya Chatterjee, Ashoka University
- Jinnah- Ishtiyaq Ahmed
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