तालाबंदी के कारण निवेश बैठ गया. नौकरी चली गई. सैलरी घट गई. मांग घट गई. तब कई जानकार कहने लगे कि सरकार अपना खर्च करे. वित्तीय घाटे की परवाह न करे. इस बजट में निर्मला सीतारमण ने ज़ोर देकर कहा कि हमने ख़र्च किया है. हमने ख़र्च किया है. हमने ख़र्च किया है.
ब्लूमबर्ग क्विंटल में इरा दुग्गल की रिपोर्ट है कि सरकार ने ख़ास कुछ खर्च नहीं किया है. वित्त वर्ष में 30.42 लाख करोड़ का प्रावधान था लेकिन 34.5 लाख करोड़ खर्च किया. इस पैसे का बड़ा हिस्सा भारतीय खाद्य निगम (FCI) के लोन की भरपाई में किया गया है. कई रिपोर्ट आई थीं कि FCI पर दो से तीन लाख करोड़ की देनदारी हो गई है. एक सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या FCI को लोन मुक्त इसलिए किया जा रहा है कि आगे चल कर इसे भी किसी को बेचा जा सके ? फिलहाल इस अटकल को यहीं रहने देते हैं और ख़र्च करने के सवाल पर लौटते हैं. सरकार से ख़र्च करने के लिए कहा जा रहा था ताकि बाज़ार में मांग बढ़े. लोगों के हाथ में पैसा आए. FCI का लोन चुका दिया, अच्छा किया लेकिन जो दूसरे काम ज़रूरी थी वो नहीं किए गए.
नए वित्त वर्ष में सरकार ने कहा है कि 34.83 लाख करोड़ खर्च करेगी. 1 फीसदी अधिक. कई अर्थशास्त्री और बाज़ार पर नज़र रखने वाले एक्सपर्ट सरकार की तारीफ कर रहे हैं कि बजट में आंकड़ों को छिपाने का प्रयास इस बार कम हुआ है. हालांकि प्रो. अरुण कुमार मानते हैं कि सरकार अब भी अपने वित्तीय घाटे को छिपा रही है. पिछले वित्त वर्ष में वित्तीय घाटा GDP का 9.5 प्रतिशत है, जिसे नए वित्त वर्ष में 6.8 तक लाया जाएगा और आगे चल कर इसे 4.5 प्रतिशत तक लाना होगा. यह बताता है कि सरकार की वित्तीय हालत ठीक नहीं है. आय से ज़्यादा ख़र्च कर रही है लेकिन तालाबंदी के बाद दुनिया भर की सरकारें इस रास्ते पर चल पड़ी है. लोगों के हाथ में पैसे देने से ही अर्थव्यवस्था आगे बढ़ेगी. ध्यान रहे कि भारत में अमरीका की तरह लोगों के हाथ में पैसे नहीं दिए जा रहे हैं.
सरकार ने एलान किया है कि इस बार ज़्यादा कर्ज़ लेगी. 12 लाख करोड़. इसके बारे में कहा जा रहा है कि भारतीय रिज़र्व बैंक पर दबाव बढ़ेगा. भारतीय रिज़र्व बैंक से पहले भी सरकार पैसे ऐंठ चुकी है. अब फिर से उसकी कमाई पर नज़र पड़ रही है.
आयकर में बदलाव नहीं हुआ इसकी तारीफ हो रही है. लोगों की नौकरी गई है. सैलरी घट गई है. उनकी कमाई और खर्च पहले से कम हुई है. सरकार के पास आयकर में कटौती की गुज़ाइश कम थी लेकिन यह कहना कि आयकर में बदलाव न कर मेहरबानी की गई है, प्रोपेगैंडा का चरम है.
मध्यमवर्ग गोदी मीडिया की चपेट में आकर प्रोपेगैंडा वर्ग में बदल गया है. उसके सामने ख़ज़ाना लुट रहा है. वह न बोल रहा है और न बोलने वालों का साथ दे रहा है. बैंक और बीमा सेक्टर में काम करने वाली भजनमंडली भी निजीकरण के फैसले का स्वागत ही कर रही होगी. या बैंकों के बेचने से उनकी भक्ति बदल जाएगी ऐसा कभी नहीं होगा. ऐसे लोगों के लिए बैंक के बिकने और नौकरी जाने के दु:ख से बड़ा सुख है भक्ति. इस मनोवैज्ञानिक आनंद का कोई मुक़ाबला नहीं. जब वही ख़ुश हैं तो फिर शोक नहीं करना चाहिए.
अभी तक भारतीय जीवन बीमा निगम बड़े बड़े संकटों के समय सरकार को बचाता था. आज सरकार का संकट इतना बड़ा हो गया है कि वह भारतीय जीवन बीमा निगम ही बेचने जा रही है. सरकार इस साल ख़ूब बेचेगी. सरकारी संपत्ति को बेचने को लेकर उन संस्थानों में काम करने वालों के बीच ऐसा समर्थन इतिहास में कभी नहीं रहा होगा. अगर किसी को शक है तो आज चुनाव करा ले. सरकार बोल कर कि सारी कंपनी बेच देगी, चुनाव जीत जाएगी.
मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि बीमा और बैंक के भीतर ऐसे बहुत से लोग हैं जो चंद उद्योगपतियों के हाथ में सब कुछ जाने की ख़बर से खुश होते हैं. उन्हें खुश होना पड़ता है क्योंकि इनका नाम जिस नेता से जुड़ जाता है, उसे बचाना पड़ता है. प्राइवेट सेक्टर तो ख़ुश है ही. अर्थशास्त्री और बड़े-बड़े संपादक भी ख़ुश हैं.
फिर भी एक सवाल पर विचार कीजिएगा. आज अर्थव्यवस्था का जो हाल है उसके लिए कौन ज़िम्मेदार था ? नोटबंदी से लेकर तालाबंदी के कारण आपकी कमाई और रोज़गार पर जो असर पड़ा उसके लिए कौन ज़िम्मेदार था ? लाखों नौजवानों के सामने रोज़गार का भविष्य ख़तरे में पड़ गया है. अगले दो तीन साल और पड़ेगा. सरकार उन्हें हिन्दू मुस्लिम टापिक का मीम भेज कर मस्त हो जाती है और नौजवान मदहोश. क्या यह बात सच नहीं है कि नौजवानों का भविष्य अंधकार में जा चुका है.
तालाबंदी. भारत की अर्थव्यवस्था का हाल उससे पहले भी ख़राब था. तालाबंदी के बाद ध्वस्त हो गई. पूरे देश में एक साथ तालाबंदी क्यों हुई ? इस फ़ैसले तक पहूंचने के लिए सरकार के सामने क्या तथ्य और परिस्थितियां थीं ? विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी तालाबंदी का सुझाव नहीं दिया था. याद करें जिस वक़्त तालाबंदी का फ़ैसला हुआ उस वक़्त सरकार की आलोचना हो रही थी कि वह कोरोना को लेकर सजग नहीं है. ट्रैप को लेकर रैली हो रही है तो मध्य प्रदेश में सरकार गिर रही है. फिर अचानक सरकार आती है और पूरे देश में एक साथ तालाबंदी कर देती है.
नोटबंदी के बाद तालाबंदी ने साबित कर दिया कि इस देश में तर्कों और तथ्यों से आगे जाकर नरेंद्र मोदी लोकप्रिय हैं. राजनीतिक विश्लेषक नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता चुनावी जीत से आंकते हैं. नोटबंदी और तालाबंदी के फ़ैसलों के बीच उनकी लोकप्रियता बताती है कि अगर वे भारत की अर्थव्यवस्था को समंदर में भी फेंक आएंगे तो सर्वे में वे सबसे आगे रहेंगे. दुनिया के इतिहास में बहुत कम ऐसे नेता हुए होंगे जिन्हें अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने के बाद भी ऐसी लोकप्रियता मिली हो. आपको मेरी बात पर यक़ीन न हो तो आप भारत के बेरोज़गार नौजवानों के बीच उनकी लोकप्रियता का सर्वे कर लें. आपको जवाब मिल जाएगा.
नरेंद्र मोदी ने नौकरी जैसे मुद्दे को राजनीति की किताब से बाहर कर दिया है, यह कोई मामूली सफलता नहीं है. एक नेता लोगों के मनोविज्ञान उनकी सोच पर राज करता है. बेरोज़गारी और माइनस जीडीपी जैसे झटके उसके सामने टिक नहीं पाते हैं.
अब लोग सवाल नहीं करते कि तालाबंदी का फ़ैसला करते वक़्त सरकार के सामने कौन से विकल्प और तथ्य रखे गए थे ? महानगर से लेकर गांव-गांव तक बंद करने की क्या ज़रूरत थी ? सरकार बहुत आराम से बोल कर निकल जाती है कि तालाबंदी के फ़ैसले से एक लाख लोगों की जान बची है और बहुत से लोग संक्रमित होने से बच गए हैं. सबने अपनी आंखों से देखा है कि किस खराब तरीके से महामारी का मुकाबला किया गया लेकिन हर भाषण में अपनी ही तारीफ हो रही है और लोग उस तारीफ पर यकीन कर रहे हैं. भारत की अर्थव्यवस्था इतिहास के सबसे बुरे दौर में हैं. इसके लिए जो ज़िम्मेदार हैं वो अपने राजनैतिक जीवन के सबसे शानदार दौर में हैं.
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