चीन के साथ भारत का ऐतिहासिक और प्राचीन सम्बन्ध है, इसलिए चीन के साथ सम्बन्धों के खराब होने का सम्बन्ध भी ऐतिहासिक ही माना जाना चाहिए पर वास्तव में ऐसा नही है. चीन के साथ खराब सम्बन्ध का कारण समाजवादी क्रांति और साम्राज्यवादी साजिश में निहित है, जिसमें भारत साम्राज्यवादी हाथों की कठपुतली बना हुआ है.
गौतम बुद्ध के द्वारा दुर्गन्धयुक्त ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने और देश में बौद्ध धर्म की स्थापना ने चीन के साथ सम्बन्ध में ऐतिहासिक छलांग लगाई है. परन्तु एक घोर ब्राह्मणवादी पुष्यमित्र शुंग की गद्दारी और उसके हिंसक कृत्य ने भारत से बौद्ध धर्म का नामोनिशान मिटा दिया.
भारत को एक पुण्यभूमि के तौर पर देखने वाला चीन सहित अन्य बौद्धधर्मावलम्बी राष्ट्र के लिए यह एक बड़ा झटका माना जा सकता है, फिर भी चीन का भारत के साथ कोई उल्लेखनीय खराब सम्बन्ध नहीं गिनाया जा सकता, जो चीनियों के विशाल हृदयता को भी दर्शाता है. इससे साफ झलकता है कि चीन के साथ भारत के खराब सम्बन्ध होने का कोई ऐतिहासिक कारण नहीं गिनाया जा सकता.
दरअसल चीन के साथ भारत के खराब सम्बन्ध का कारण विदेशी साम्राज्यवादी आक्रमणकारी शक्तियां हैं, जो एक साथ चीन को अपने अधीन करने के लिए भारत का इस्तेमाल करना चाहता है. 1947 के सत्ताहस्तांतरण के पूर्व भारत के प्रभु राष्ट्र इंगलैंड ने चीन पर हमले किये और उसे भी अपना उपनिवेश बनाने के लिए चीन का उत्पीड़न किया. परन्तु वहां चीनियों ने एकजुट होकर गुरिल्ला युद्ध में महारत हासिल कर पहले जापान और फिर तमाम साम्राज्यवादी शक्तियों को अपने देश से बाहर खदेड़ दिया. यहां तक अमरीका तक को अपनी जान की भारी कीमत अदा कर चीन से भागना पड़ा.
आये दिन अमरीका चीन पर अपने तेवर दिखाता ही रहता है, जिसका जवाब भी चीन अपने ही हिसाब से देता रहता है, जिससे थर्राया अमरीका कभी पाकिस्तान तो कभी भारत को साधने और चीन पर हमला करने के लिए उकसाता रहता है.
1947 के पूर्ण उपनिवेश से अर्द्ध-उपनिवेश में बदल चुका भारत दलाली की नीतियों को सर्वोत्तम मानते हुए कभी अमरीका तो कभी समाजवादी फिर 1954 के बाद सामाजिक-साम्राज्यवादी सोवियत संघ की शरण में जा टपका. शीत युद्ध के दौर में भारत सामाजिक-साम्राज्यवादी सोवियत संघ के साथ रहा. 1991 के सामाजिक-साम्राज्यवादी सोवियत संघ के पतन के बाद भारत पेडुलम की भांति डोलते हुए अमरीका के शरण में जा पहुंचा.
अमरीका के इशारे पर ही चीन को परेशान करने के लिए भारत ने 1962 ई. में चीन पर हमला बोला था, जो चीन की तपी-तपाई लाल-फौज के सामने मूंह की खाई थी, जिसका समीचीन और जीवन्त चित्रण पण्डित सुन्दर लाल ने अपने पुस्तकों में किया था, जो भारत-चीन मैत्री के प्रबल समर्थक थे. इससे बौखलाई भारत सरकार दुबारा चीन पर हमला करने का साहस तो नहीं कर पायी पर देश में चीन के खिलाफ एक माहौल बनाने का हमेशा के प्रयत्न करती रही.
चीन के तमाम प्रयासों के बाद भी अमेरीका के सामने दुम हिलाता भारत चीन के हर प्रस्तावों को ठुकराता ही रहा है. यह प्रक्रिया आज तक चला आ रहा है. 1976 ई. के बाद चीन में पूंजीवादी विचार हावी होने के बाद भी अमरीका चीन के साथ स्वस्थ प्रतियोगिता करने के बजाय छलछन्दों का सहारा लेकर भारत को चीन के खिलाफ ललकारता रहा है.
परन्तु भारत के साथ एक दिक्कत यह है कि आम भारतीय आवाम चीन के साथ हमेशा से ही प्रगाढ़ मैत्री सम्बन्ध बनाये रखी है, जिसे तोड़ पाना भारतीय दलाल शासक वर्ग के बूते से बाहर की बात हो गई है. यही कारण है कि अमरीका के लाख ललकारने के बाद भी भारत का शासक वर्ग चीन पर उस तरह हमला नहीं बोल पाता जिस प्रकार पाकिस्तान के खिलाफ उबल पड़ता है. पाकिस्तान अमरीका का पक्का लठैत है, पर भारत के साथ उसका सम्बन्ध दुश्मनागत है, भारत भी अब अमरीका का दलाल है, पर पाकिस्तान के साथ लड़ना चाहता है, अमरीका का चीन के साथ दुश्मनागत सम्बन्ध है, पर वह चीन पर सीधे हमला करने का साहस नहीं कर सकता. फलतः अमरीका अपने दोनों दलाल पाकिस्तान और भारत को संतुलित रख कर चीन पर हमला करना चाहता है, जो अमरीका के लिए सम्भव नहीं हो पा रहा है.
स्पष्टतः अमरीका दक्षिण एशिया में चीन के साथ मनचाहा नहीं कर पा रहा है, पर वह भारत को चीन के खिलाफ उकसाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है. अमरीका की दलाली में मशगुल भारत की वर्तमान मोदी सरकार अपने झूठे प्रचार-तंत्र का सहारा लेकर भी भारतीय जनमानस में चीन के खिलाफ कोई कारगर माहौल बना पाने में सक्षम नहीं हा पा रही है, जिस कारण वह चीन पर हमला करने का दुस्साहस नहीं जुटा पाती, वही 1962 ई. में भारत सरकार का चीन पर हमला और भयानक पराजय ने इसके सैन्य ताकत की पोल खोल दी, तो अब कैग की रिपोर्ट ने जब यह साफ तौर पर बता दिया कि भारतीय सेना के पास 10 दिन तक युद्ध करने के लायक भी सैन्य साजो सामान नहीं है तो चीन पर हमले करने का दुस्साहस खुद भारतीय शासक वर्ग के लिए ही आत्महत्या करने के समान होगा.
ऐसे में वर्तमान भारतीय शासक वर्ग अमरीका की दलाली जारी रखने के लिए चीन के खिलाफ नये-नये नाटक रच रही है, जिसका माकूल जवाब भी चीन दे रहा है. इससे त्रस्त भारत सरकार अब चीन के खिलाफ तंत्र-मंत्र जैसे हास्यास्पद नाटक करने को मजबूर हो गई है, जो मोदी सरकार के मसखरेपन और बहियात विदेश-नीति का बेजोर नमूना है.
बहरहाल चीन का भारत के प्रति कोई दुर्भावना नहीं दिखता, जो भी दीख रहा है वह अमरीका के साम्राज्यवादी साजिश है, जिसका भारत की मोदी सरकार हिस्सा बनने को व्याकुल है, जिसका हर भारतीय को विरोध और हिकारत की दृष्टि से देखा जाना जरूरी है वरना यह मोदी सरकार अमरीकी दलाली में देश की जनता को चीन की जनता के खिलाफ उकसाने में कोई कसर बांकी नहीं रखेगा.
Masihuddin Sanjari
July 26, 2017 at 11:37 am
भारत–चीन सीमा प्रयः शान्त ही रही है। यह कहा जाता रहा है कि सैनिक घुसपैठ के बावजूद भारत चीन से टकाराव की नीति पर आगे नहीं बढ़ना चाहता था। लेकिन मोदी सरकार के बनने के बाद से भारत की सीमा के आसपास चीन की गतिविधियां भी बढ़ी हैं और चीन–भारत टकराव में अमरीका की दिलचस्पी भी। आर्थिक रूप से मजबूत चीन को काबू करने की अमरीकी नीति में भारत को मोहरा के तौर पर इस्तेमाल करना शामिल है।