एक नब्बे फीसद विकलांग इंसान से
एक अधेड़ हो चुकी स्त्री से
चंद निहत्थे लोगों से
सत्तर से भी ऊपर के एक वृद्ध से
सच की बांंह पकड़े एक नौजवान से
सत्तर साल के एक ‘महान’ जनतंत्र के
सत्ताधीशों को डर लग रहा है !
डर लग रहा है कि वृद्ध नज़रों में
उठे ज्वलंत सवाल
कहीं ढाह न दे जर्जर जनतंत्र की दीवाल
कि साड़ी बांधे वह स्त्री दौड़ती हुई
पार न कर जाए शासन की खड़ी की गई बाधा-दौड़
कि व्हील-चेयर पर बैठा वह आदमी
तोड़कर फलांग न जाए जेल का फाटक
और कि सच का दामन थामे वह नौजवान
कहीं तोड़ ही न डाले सत्ता की झूठ की पसलियांं !!
भयभीत हैं हुक्मरांं !
बेहद भयभीत हैं हुक्मरांं !!
रची जा रहीं हैं साज़िशें
ज्ञान की किताबों से डरते,
सच से घबराते
बेख़ौफ़ निगाहों की
खुली गवाहियों से खौफ़ खाते !!
कमाल है, इतनी सारी संगीनों को
इतना सारा भय – कलम से !!
जुगत भिड़ाने में व्यस्त हैं हुक्मरांं कि
कैसे गला घोंटकर
क्यों न क़त्ल ही कर दी जाए कलम
आहिस्ता-आहिस्ता, सदा के लिए
जेल की चारदीवारी में …
और कोई खरोंच भी न दिखे.
सोच में पड़े हैं हुक्मरांं
अकबका कर छीन ले रहे है कलम
तोड़ने को उद्धत …!
पटक दे रहे हैं कैमरे, ज़ब्त की जा रहीं हैं तस्वीरें !!
ऊंंची की जा रही हैं जेल की दीवारें…
उन्हें शायद पता नहीं कि जेल की दीवारों पर
न जाने कितनी बार
बिना कलम भी लिखी गई है – मुक्ति की इबारत
उंगलियों, निगाहों, पसीने और रक्त से !!
- आदित्य कमल
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