राजीव कुमार मनोचा
उत्तर वैदिक काल के ग्रंथों में जो आर्यों का अंतिम और निर्णायक विकास हुआ वहीं संस्थावद्य रुप से ब्राह्मणवाद कहलाया. उसकी दुरुहता एवं आडंबर से आमजन छटपटा उठे. ऐसे समय में रास्ते खोजे जाने लगे. इस क्रम में नास्तिकतावाद के साथ-साथ ही नए तरह के आस्तिकतावाद का भी उदय हुआ. इस विकास के केंद्र में एतिहासिक, अर्द्ध-ऐतिहासिक ‘व्यक्ति’ थे.
जिस समय उपनिषदों की विचारधारा की परिणति पूरब में शास्त्र विरोधी बौद्ध/ जैन धर्म में हुई प्रायः उसी समय पश्चिम में यादवों की शाखा ‘सात्त्वतों’ ने जो मथुरा में निवास करते थे, शास्त्र विरोधी धर्म और कट्टर वैदिक धर्म के बीच के मार्ग को मानने वाले ‘भागवत धर्म’ का विकास किया.
इस नए ‘ईश्वरवादी’ धर्म जिसका मानना था कि मोक्ष केवल देवताओं के प्रसाद स्वरूप ‘भक्ति’ द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है तथा जिसका संबंध ‘नैतिकता’ पर आधारित था, यह काफी सरल था. आडंबरों से पूर्णत: पृथक. आम जनों के अनुकूल. यह सर्वव्यापी ‘आत्मा के सिद्धांत’ से अलग था. ‘अपने-अपने देवो का पूजन’ ब्राह्मण की पूजन शैली नहीं थी.
आरंभ में यह धर्म एक परम देवता ‘हरि’ पर जोर देता था. यह यज्ञ और वैदिक साहित्य की पूर्ण उपेक्षा तो नहीं की पर इसे गौण अवश्य माना. पशु-बलि का सख्ती से निषेध किया. एक तरह से उन्होंने पुराने रूढ़िवादी सिद्धांतों को ही आधार बनाकर धार्मिक सुधार का प्रयास किया. इसकी विशेषता ‘हरि’ की ‘भक्तिपूर्ण उपासना’ और ‘अरण्यकों के शब्दप्रमाण’ में विश्वास था. भागवत धर्म शीघ्र ही क्षेत्र विशेष में काफी शक्तिशाली हो गया.
इस धार्मिक सुधार को ‘वृष्णि वंश’ के छांदोग्य उपनिषद में वर्णित ‘अंगिरस घोरा के शिष्य वासुदेव कृष्ण’ ने विशेष प्रोत्साहन दिया. उन्होंने इस उदारवादी सिद्धांत को ‘भगवद् गीता’ में दार्शनिक रूप ने व्यक्त कर निश्चित स्वरूप दिया. भक्ति संबंधी विचार उपनिषदों में बिखरे पड़े थे, किंतु भगवद् गीता में उन्हें इस प्रकार व्यवस्थित किया गया है कि लोग उसे मुक्ति का साधन मानकर सफलतापूर्वक जीवन निर्वाह कर सकें और समझ सकें. इससे एक स्वतंत्र संप्रदाय का नियमित विकास हुआ और इस युग में सर्वोच्च ‘वासुदेव कृष्ण एकेश्वरवाद’ की स्थापना हुई. मेगास्थनीज ने मथुरा के शूरसेनों में वासुदेव कृष्ण (हेराक्लीज) की विशेष पूजा का जिक्र किया है, उन्हीं की सीमा में यमुना नदी बहती थी.
दूसरी सदी ईस्वी पूर्व तक इस नए धर्म का विस्तार मथुरा से काफी दूर आज के महाराष्ट्र, राजस्थान एवं मध्य भारत तक हो गया. ‘यवन’ भी इस धर्म में दीक्षित होने लगे. उनकी ओर सुसभ्य राष्ट्र एवं लोग आकृष्ट होने लगे. सीरिया की एक दंतकथा के अनुसार ई.पू. दूसरी सदी में आर्मेनिया में कृष्णोपासना प्रचलित थी. यह काफी ‘लोकप्रिय धर्म’ हो गया. वासुदेव कृष्ण के काल्पनिक कार्यों को आधार बनाकर नाटक अभिनीत होने लगे. इस धर्म का क्षेत्र विस्तार अबाध रूप से जारी रही. यह सुदूर दक्षिण में कृष्णा नदी को भी पार कर गए.
स्थानीय ‘भागवत धर्म’ का ‘अखिल भारतीय धर्म’ के रूप में विकसित होने का बहुत बड़ा कारण उसके बहुत कुछ को ब्राह्मण धर्म में ग्रहण कर लिया जाना था. दोनों में समझौता हो गया. ‘कृष्ण’ की अनन्यता वैदिक ‘विष्णु’ एवं ‘नारायण’ (जो पहले देवत्व प्राप्त ऋषि थे जो आगे चलकर सनातन परमेश्वर हरि के रूप में प्रकट हुए) के साथ हो गई. भागवत धर्म अब ब्राह्मणवाद के प्रचलित मान्यताओं और सिद्धांतों के रूप – आकार के पूर्णतया अनुरूप बन गया. भगवान ‘विष्णु’ का महत्व बढ़ा और समस्त देवी देवताओं में सर्वोच्च हो गए. ‘कृष्ण’ को ‘विष्णु का अवतार’ मान लिया गया. ‘वेदांत’ , ‘सांख्य’ और ‘योग’ के दार्शनिक तत्व इसमें आ मिले.
यह समन्वय दूसरी सदी ईस्वी पूर्व हो चुका था जिसकी गवाही ‘होलियोडोरस’ द्वारा निर्मित ‘वेसनगर के गरुड़ स्तंभ’ हैं जिसमें वासुदेव का नाम मिलता है. बौद्ध धर्म से रक्षा के लिए ब्राह्मणों ने इस ओर कदम बढ़ाया था और भागवतों ने भी विस्तृत फलक एवं सार्वभौमिक स्वीकार्यता को लेकर इसे स्वीकार किया था. भागवत धर्म की ख्याति और प्रतिष्ठा बढ़ी.
अब भागवत धर्म ‘वैष्णव धर्म’ हो गया. उसके प्रभाव में ही वैदिक धर्म के लिए अज्ञात ‘मूर्तिपूजा’ धीरे-धीरे ब्राह्मण धर्म में प्रविष्ट हो गए. वैष्णव धर्म, शैव धर्म के साथ मिलकर बौद्ध धर्म के विरुद्ध परंपरागत धर्म की रक्षा में दुर्ग का काम किया.
कृष्ण, बुद्ध, पतंजलि और गोरख – ओशो रजनीश
रिलिजस लोग इसमें राम और दयानन्द को न पा कर मायूस होंगे, हम जैसे लोग पतंजलि और गोरख को पा कर प्रसन्न हैं.
महाकवि सुमित्रानंदन पंत ने मुझसे एक बार पूछा कि भारत के धर्माकाश में वे कौन बारह लोग हैं—मेरी दृष्टि में—जो सबसे चमकते हुए सितारे हैं ?
मैंने उन्हें यह सूची दी : कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, नागार्जुन, शंकर (शंकराचार्य), गोरख, कबीर, नानक, मीरा, रामकृष्ण, कृष्णमूर्ति. सुमित्रानंदन पंत ने आंखें बंद कर लीं, सोच में पड़ गये.
सूची बनानी आसान भी नहीं है, क्योंकि भारत का आकाश बड़े नक्षत्रों से भरा है ! किसे छोड़ो, किसे गिनो ?.. पंत प्यारे व्यक्ति थे—अति कोमल, अति माधुर्यपूर्ण, स्त्रैण. वृद्धावस्था तक भी उनके चेहरे पर वैसी ही ताजगी बनी रही जैसी बनी रहनी चाहिए. वे सुंदर से सुंदरतर होते गये थे.
मैं उनके चेहरे पर आते—जाते भाव पढ़ने लगा. उन्हें अड़चन भी हुई थी. कुछ नाम, जो स्वभावत: होने चाहिए थे, नहीं थे. राम का नाम नहीं था ! उन्होंने आंख खोली और मुझसे कहा : राम का नाम छोड़ दिया है आपने !
मैंने कहा : मुझे बारह की ही सुविधा थी चुनने की, तो बहुत नाम छोड़ने पड़े. फिर मैंने बारह नाम ऐसे चुने हैं जिनकी कुछ मौलिक देन है. राम की कोई मौलिक देन नहीं है, कृष्ण की मौलिक देन है इसलिये हिंदुओं ने भी कृष्ण को पूर्णावतार कहा, राम को नहीं कहा.
उन्होंने फिर मुझसे पूछा : तो फिर ऐसा करें, सात नाम मुझे दें. अब बात और कठिन हो गयी थी. मैंने उन्हें सात नाम दिये : कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, शंकर, गोरख, कबीर. उन्होंने कहा : आपने जो पांच छोड़े, अब किस आधार पर छोड़े हैं ?
मैंने कहा : नागार्जुन बुद्ध में समाहित हैं. जो बुद्ध में बीज—रूप था, उसी को नागार्जुन ने प्रकट किया है. नागार्जुन छोड़े जा सकते हैं. और जब बचाने की बात हो तो वृक्ष छोड़े जा सकते हैं, बीज नहीं छोड़े जा सकते क्योंकि बीजों से फिर वृक्ष हो जायेंगे, नये वृक्ष हो जायेंगे. जहा बुद्ध पैदा होंगे वहा सैकड़ों नागार्जुन पैदा हो जायेंगे, लेकिन कोई नागार्जुन बुद्ध को पैदा नहीं कर सकता. बुद्ध तो गंगोत्री हैं, नागार्जुन तो फिर गंगा के रास्ते पर आये हुए एक तीर्थस्थल हैं—प्यारे ! मगर अगर छोड़ना हो तो तीर्थस्थल छोड़े जा सकते हैं, गंगोत्री नहीं छोड़ी जा सकती.
ऐसे ही कृष्णमूर्ति भी बुद्ध में समा जाते हैं. कृष्णमूर्ति बुद्ध का नवीनतम संस्करण हैं—नूतनतम; आज की भाषा में. पर भाषा का ही भेद है. बुद्ध का जो परम सूत्र था—अप्प दीपो भव—कृष्णमूत्रि बस उसकी ही व्याख्या हैं. एक सूत्र की व्याख्या—गहन, गंभीर, अति विस्तीर्ण, अति महत्वपूर्ण !
पर अपने दीपक स्वयं बनो, अप्प दीपो भव—इसकी ही व्याख्या हैं. यह बुद्ध का अंतिम वचन था इस पृथ्वी पर. शरीर छोड़ने के पहले यह उन्होंने सार—सूत्र कहा था. जैसे सारे जीवन की संपदा को, सारे जीवन के अनुभव को इस एक छोटे—से सूत्र में समाहित कर दिया था.
रामकृष्ण, कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते हैं. मीरा और नानक, कबीर में लीन हो जाते हैं; जैसे कबीर की ही शाखायें हों. कबीर में जो इकट्ठा था, वह आधा नानक में प्रकट हुआ है और आधा मीरा में. नानक में कबीर का पुरुष रूप प्रकट हुआ है
इसलिए सिक्ख धर्म अगर क्षत्रिय का धर्म हो गया, योद्धा का, तो आश्चर्य नहीं है. मीरा में कबीर का स्त्रैण रूप प्रगट हुआ है—इसलिए सारा माधुर्य, सारी सुगंध, सारा सुवास, सारा संगीत, मीरा के पैरों में घुंघरू बनकर बजा है. मीरा के इकतारे पर कबीर की नारी गाई है; नानक में कबीर का पुरुष बोला है. दोनों कबीर में समाहित हो जाते हैं.
इस तरह, मैंने कहा : मैंने यह सात की सूची बनाई. अब उनकी उत्सुकता बहुत बढ़ गयी थी. उन्होंने कहा : और अगर पांच की सूची बनानी पड़े ? तो मैंने कहा : काम मेरे लिये कठिन होता जायेगा.
मैंने यह सूची उन्हें दी : कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, महावीर, गोरख. क्योंकि कबीर को गोरख में लीन किया जा सकता है, गोरख मूल हैं, गोरख को नहीं छोड़ा जा सकता और शंकर तो कृष्ण में सरलता से लीन हो जाते हैं. उनके ही एक अंग की व्याख्या हैं, कृष्ण के ही एक अंग का दार्शनिक विवेचन हैं.
तब तो वे बोले : बस, एक बार और… अगर चार ही रखने हों ?
तो मैंने उन्हें सूची दी – कृष्ण, पतंजलि, बुद्ध, गोरख. क्योंकि महावीर बुद्ध से बहुत भिन्न नहीं हैं, थोड़े ही भिन्न हैं. जरा—सा ही भेद है; वह भी अभिव्यक्ति का भेद है. बुद्ध की महिमा में महावीर की महिमा लीन हो सकती है.
वे कहने लगे : बस एक बार और…आप तीन व्यक्ति चुनें.
मैंने कहा : अब असंभव है. अब इन चार में से मैं किसी को भी छोड़ न सकूंगा. फिर मैंने उन्हें कहा : जैसे चार दिशाएं हैं, ऐसे ये चार व्यक्तित्व हैं. जैसे काल और क्षेत्र के चार आयाम हैं, ऐसे ये चार आयाम हैं. जैसे परमात्मा की हमने चार भुजाएं सोची हैं, ऐसी ये चार भुजाएं हैं.
ऐसे तो एक ही है, लेकिन उस एक की चार भुजाएं हैं. अब इनमें से कुछ छोड़ना तो हाथ काटने जैसा होगा. यह मैं न कर सकूंगा. अभी तक मैं आपकी बात मानकर चलता रहा, संख्या कम करता चला गया क्योंकि अभी तक जो अलग करना पड़ा, वह वस्त्र था; अब अंग तोड़ने पड़ेंगे. अंग— भंग मैं न कर सकूंगा. ऐसी हिंसा आप न करवायें.
वे कहने लगे : कुछ प्रश्न उठ गये; एक तो यह, कि आप महावीर को छोड़ सके, गोरख को नहीं ?
गोरख को नहीं छोड़ सकता हूं क्योंकि गोरख से इस देश में एक नया ही सूत्रपात हुआ, महावीर से कोई नया सूत्रपात नहीं हुआ. वे अपूर्व पुरुष हैं; मगर जो सदियों से कहा गया था, उनके पहले जो तेईस जैन तीर्थंकर कह चुके थे, उसकी ही पुनरुक्ति हैं. वे किसी यात्रा का प्रारंभ नहीं हैं. वे किसी नयी श्रृंखला की पहली कड़ी नहीं हैं, बल्कि अंतिम कड़ी हैं.
गोरख एक शृंखला की पहली कड़ी हैं. उनसे एक नये प्रकार के धर्म का जन्म हुआ, आविर्भाव हुआ. गोरख के बिना न तो कबीर हो सकते हैं, न नानक हो सकते हैं, न दादू न वाजिद, न फरीद, न मीरा—गोरख के बिना ये कोई भी न हो सकेंगे. इन सब के मौलिक आधार गोरख में हैं.
फिर मंदिर बहुत ऊंचा उठा. मंदिर पर बड़े स्वर्ण—कलश चढ़े. लेकिन नींव का पत्थर नींव का पत्थर है. और स्वर्ण—कलश दूर से दिखाई पड़ते हैं, लेकिन नींव के पत्थर से ज्यादा मूल्यवान नहीं हो सकते और नींव के पत्थर किसी को दिखाई भी नहीं पड़ते, मगर उन्हीं पत्थरों पर टिकी होती है सारी व्यवस्था, सारी भित्तिया, सारे शिखर. शिखरों की पूजा होती है, बुनियाद के पत्थरों को तो लोग भूल ही जाते हैं. ऐसे ही गोरख भी भूल गये हैं.
लेकिन भारत की सारी संत—परंपरा गोरख की ऋणी है. जैसे पतंजलि के बिना भारत में योग की कोई संभावना न रह जायेगी; जैसे बुद्ध के बिना ध्यान की आधारशिला उखड़ जायेगी; जैसे कृष्ण के बिना प्रेम की अभिव्यक्ति को मार्ग न मिलेगा—ऐसे गोरख के बिना उस परम सत्य को पाने के लिये विधियों की जो तलाश शुरू हुई, साधना की जो व्यवस्था बनी, वह न बन सकेगी.
गोरख ने जितना आविष्कार किया मनुष्य के भीतर अंतर—खोज के लिये, उतना शायद किसी ने भी नहीं किया है. उन्होंने इतनी विधियां दीं कि अगर विधियों के हिसाब से सोचा जाये तो गोरख सबसे बड़े आविष्कारक हैं. इतने द्वार तोड़े मनुष्य के अंतरतम में जाने के लिये, इतने द्वार तोड़े कि लोग द्वारों में उलझ गये इसलिए हमारे पास एक शब्द चल पड़ा है—गोरख को तो लोग भूल गये—गोरखधंधा शब्द चल पड़ा है.
उन्होंने इतनी विधियां दीं कि लोग उलझ गये कि कौन—सी ठीक, कौन—सी गलत, कौन—सी करें, कौन—सी छोड़े..? उन्होंने इतने मार्ग दिये कि लोग किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये, इसलिए गोरखधंधा शब्द बन गया. अब कोई किसी चीज में उलझा हो तो हम कहते हैं, क्या गोरखधंधे में उलझे हो.
गोरख के पास अपूर्व व्यक्तित्व था, जैसे आइंस्टीन के पास व्यक्तित्व था. जगत के सत्य को खोजने के लिये जो पैने से पैने उपाय अलबर्ट आइंस्टीन दे गया, उसके पहले किसी ने भी नहीं दिये थे. अब उनका विकास हो सकेगा, अब उन पर और धार रखी जा सकेगी मगर जो प्रथम काम था वह आइंस्टीन ने किया है.
जो पीछे आयेंगे वे नंबर दो होंगे, वे अब प्रथम नहीं हो सकते. राह पहली तो आइंस्टीन ने तोड़ी, अब इस राह को पक्का करनेवाले, मजबूत करनेवाले, मील के पत्थर लगाने वाले, सुंदर बनानेवाले, सुगम बनानेवाले बहुत लोग आयेंगे मगर आइंस्टीन की जगह अब कोई भी नहीं ले सकता. ऐसी ही घटना अंतरजगत में गोरख के साथ घटी.
लेकिन गोरख को लोग भूल क्यों गये ? मील के पत्थर याद रह जाते हैं, राह तोड़ने वाले भूल जाते हैं. राह को सजाने वाले याद रह जाते हैं, राह को पहली बार तोड़ने वाले भूल जाते हैं. भूल जाते हैं इसलिए कि जो पीछे आते हैं उनको सुविधा होती है संवारने की.
जो पहले आता है, वह तो अनगढ़ होता है, कच्चा होता है. गोरख जैसे खदान से निकले हीरे हैं. अगर गोरख और कबीर बैठे हों तो तुम कबीर से प्रभावित होओगे, गोरख से नहीं क्योंकि गोरख तो खदान से निकले हीरे हैं; और कबीर—जिन पर जौहरियों ने खूब मेहनत की, जिन पर खूब छेनी चली है, जिनको खूब निखार दिया गया है !
यह तो तुम्हें पता है न कि कोहिनूर हीरा जब पहली दफा मिला तो जिस आदमी को मिला था उसे पता भी नहीं था कि कोहिनूर है. उसने बच्चों को खेलने के लिये दे दिया था, समझकर कि कोई रंगीन पत्थर है. गरीब आदमी था. उसके खेत से बहती हुई एक छोटी—सी नदी की धार में कोहिनूर मिला था. महीनों उसके घर पडा रहा, कोहिनूर बच्चे खेलते रहे, फेंकते रहे इस कोने से उस कोने, आंगन में पड़ा रहा..!
तुम पहचान न पाते कोहिनूर को. कोहिनूर का मूल वजन तीन गुना था आज के कोहिनूर से. फिर उस पर धार रखी गई, निखार किये गये, काटे गये, उसके पहलू उभारे गये. आज सिर्फ एक तिहाई वजन बचा है, लेकिन दाम करोड़ों गुना ज्यादा हो गये. वजन कम होता गया, दाम बढ़ते गये, क्योंकि निखार आता गया—और, और निखार…
कबीर और गोरख साथ बैठे हों, तुम गोरख को शायद पहचानो ही न; क्योंकि गोरख तो अभी गोलकोंडा की खदान से निकले कोहिनूर हीरे हैं. कबीर पर बड़ी धार रखी जा चुकी, जौहरी मेहनत कर चुके… कबीर तुम्हें पहचान में आ जायेंगे. इसलिये गोरख का नाम भूल गया है. बुनियाद के पत्थर भूल जाते हैं !
गोरख के वचन सुनकर तुम चौंकोगे. थोड़ी धार रखनी पड़ेगी; अनगढ़ हैं. वही धार रखने का काम मैं यहां कर रहा हूं. जरा तुम्हें पहचान आने लगेगी, तुम चमत्कृत होओगे. जो भी सार्थक है, गोरख ने कह दिया है. जो भी मूल्यवान है, कह दिया है.
तो मैंने सुमित्रानंदन पंत को कहा कि गोरख को न छोड़ सकूंगा और इसलिए चार से और अब संख्या कम नहीं की जा सकती. उन्होंने सोचा होगा स्वभावत: कि मैं गोरख को छोडूंगा, महावीर को बचाऊंगा, महावीर कोहिनूर हैं, अभी कच्चे हीरे नहीं हैं खदान से निकले,
एक पूरी परंपरा है तेईस तीर्थंकरों की, हजारों साल की, जिसमें धार रखी गई है, पैने किये गये हैं—खूब समुज्ज्वल हो गये हैं ! तुम देखते हो, चौबीसवें तीर्थंकर हैं महावीर; बाकी तेईस के नाम लोगों को भूल गये ! जो जैन नहीं हैं वे तो तेईस के नाम गिना ही न सकेंगे. और जो जैन हैं वे भी तेईस का नाम क्रमबद्ध रूप से न गिना सकेंगे, उनसे भी भूल—चूक हो जायेगी. महावीर तो अंतिम हैं—मंदिर का कलश ! मंदिर के कलश याद रह जाते हैं. फिर उनकी चर्चा होती रहती है. बुनियाद के पत्थरों की कौन चर्चा करता है !
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Christopher Columbus
December 29, 2021 at 10:23 am
बुद्ध ने ऐसी कोई नई बात नहीं बताई जो किसी ना किसी उपनिषद , ब्राह्मण ग्रंथ ,वेद आदि में नहीं हो । बुद्ध ने बार-बार इंद्र, ब्रह्मा आदि देवताओं के नाम और उदाहरण दिए हैं और साथ ही सनातन धर्म का वर्णन भी किया है । बुद्ध ने ब्राह्मणों की विशेषताएं भी बताई हैं कि इन अच्छे लक्षणों वाले व्यक्ति ब्राह्मण कहलाते हैं और ब्राह्मण अवध्य हैं यह भी कहा। बुद्ध में कुछ भी नया नहीं था। बौद्ध धर्म का संपूर्ण दार्शनिक भाग नागार्जुन नामक एक महा विद्वान ब्राह्मण ने तैयार किया था। बुद्ध के सारे उपदेश एक पृष्ठ में समा सकते हैं। अगर अश्वघोष और नागार्जुन नहीं हों तो बौद्ध धर्म आधे घंटे का उपदेश मात्र है ऐसे उपदेशक भारत में लाखों हैं। पिटक और अन्य ग्रंथ बुद्ध की मृत्यु के बाद ब्राह्मण विद्वानों ने तैयार किए थे। राम ने सबसे ज्यादा नई चीजें सिखाई। जैसे निषादराज गुह और शबरी के साथ खाना पीना उठना बैठना करके भारतीय समाज में एकता और प्रेम की शुरुआत की और दक्षिण भारत की जंगली जातियों से भेद और कपट रहित मित्रता करना। आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता की सीख जितनी अच्छी तरह से राम ने दी उतनी इतिहास में कोई भी नहीं दे सका। राम ने दक्षिण भारत का नया मार्ग और लंका तक पुल का निर्माण ही नहीं किया बल्कि एक आदर्श भारतीय के लिए संपूर्ण जीवन में क्या-क्या कार्य करणीय हैं और क्या अकरणीय हैं यह सब राम ने ही तो सिखाया था मूर्ख! राम को छोड़ने वाला इस धरती पर सबसे बड़ा मूर्ख व्यक्ति , विक्षिप्त और अज्ञानी है।