तुम अहंकारी हो गए हो भगत…
प्रसिद्धि से दिमाग खराब हो गया है. घमंड, तुम्हारे और ईश्वर के बीच आ खड़ा हुआ है.
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लाहौर जेल में वयोवृद्ध कैदी रणधीर सिंह ने भगत को डांटा. वे भी क्रांतिकारी थे, ईश्वर पर विश्वास करते. लेकिन भगत नहीं करता, जानकर बड़ा दुःख हुआ.
तो मिलते ही बाबा ने लड़के को डांट लगाई. तब भगत सिंह ने एक लेख लिखा, जो लाहौर के ‘द पीपुल’ में 27 सितंबर 1931 को प्रकाशित हुआ.
शीर्षक – मैं नास्तिक क्यों हूं..
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लिखते हैं .. नया प्रश्न आ खड़ा हुआ है.
मेरे दोस्तों को लगता है कि दिल्ली बम और लाहौर षडयन्त्र केस में मुझे जो अनावश्यक यश मिला, शायद उस कारण मैं वृथाभिमानी हो गया हूं. ईश्वर में मेरी अनास्था, मेरे अहंकार का परिणाम है.
मेरा नास्तिकता कोई अभी हाल की उत्पत्ति नहीं है. मैंने तो ईश्वर पर विश्वास करना तब छोड़ दिया था, जब एक गुमनाम छात्र था.
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तब बड़ा लजालु लड़का था, थोड़ा निराशावादी प्रकृति. दादाजी, जिनके प्रभाव में बड़ा हुआ, वे रूढ़िवादी आर्य समाजी हैं. और आर्य समाजी कुछ भी हो, नास्तिक कतई नहीं होता. लाहौर छात्रावास में उनके साथ, सुबह शाम प्रार्थना, और गायत्री मंत्र घण्टों जपता.
तब मैं सकल भक्त था.
फिर पिता के साथ रहने लगा, जो धार्मिक उदारवादी हैं. उन्हीं की शिक्षा से मुझे आजादी के लिए जीवन लगाने की प्रेरणा मिली. पर नास्तिक वे भी नहीं. ईश्वर में दृढ़ विश्वास है, मुझे पूजा-प्रार्थना के लिये प्रोत्साहित करते.
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असहयोग आन्दोलन के दौर में नेशनल कॉलेज में एडमिशन लिया. पहली बार धर्म, और ईश्वर के अस्तित्व के बारे में सोचा, विचारा, आलोचना की.
फिर भी पक्का आस्तिक था. लम्बे बाल रखता. सिक्ख, या अन्य धर्मों के पौराणिक सिद्धान्तों में विश्वास तो नहीं ही था. पर ईश्वर के होने में निष्ठा थी.
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फिॅर क्रान्तिकारी पार्टी से जुड़ा. जिस नेता से पहला सम्पर्क हुआ, पक्का धार्मिक न होते हुए भी, ईश्वर के अस्तित्व को नकारने का साहस न करते थे.
मेरे हठी सवालों पर कहते- अगर इच्छा हो, तो पूजा कर लिया करो.
यह ऐसी नास्तिकता है, जिसमें साहस का अभाव है.
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दूसरे नेता, जिनके सम्पर्क में आया,
पक्के श्रद्धालु आदरणीय कामरेड शचीन्द्र नाथ सान्याल.
वे काकोरी केस में आजीवन कारवास भोग रहे हैं. उनकी किताब बन्दी जीवन, ईश्वर की महिमा का ज़ोरदार गान है.
उनके क्रांतिकारी पर्चाे में भी ईश्वर का महिमा गान ही रहता था.
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काकोरी के चारों शहीदों ने अपने अन्तिम दिन भजन प्रार्थना में गुजारे. बिस्मिल तो रूढ़िवादी आर्य समाजी थे. राजेन लाहड़ी भी समाजवाद-साम्यवाद के वृहद अध्ययन के बावजूद, उपनिषदों, गीता के श्लोक उच्चारण की अभिलाषा रोक न सके.
बस, एक ही व्यक्ति मिला जो कभी प्रार्थना नहीं करता था. कहता था- दर्शनशास्त्र मनुष्य की दुर्बलता और ज्ञान के सीमित होने से उत्पन्न होता है. वह भी आजीवन निर्वासन की सजा भोग रहा है.
पर ईश्वर के अस्तित्व को नकारने की हिम्मत उसने भी न की.
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अब तक हम रोमान्टिक, आदर्शवान क्रान्तिकारी थे. दूसरों का अनुसरण करते. पर अब खुद ज़िम्मेदारी लेने का वक्त था. यह मेरे क्रान्तिकारी जीवन का एक निर्णायक बिन्दु था.
तब अध्ययन् की पुकार मेरे मन के गलियारों में गूंजने लगी. विरोधियों के तर्कों का सामना करने लायक बनो, अध्ययन करो. अपने मत के पक्ष में तर्क देने लायक बन जाने के वास्ते पढ़ो.
अब मैंने पढ़ना शुरू किया.
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तो मेरे विचार व विश्वास, अद्भुत परिष्कृत हुए. रोमांटिस्ज्मि की जगह गम्भीर विचारों ने ली.
मैने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा. कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स को, किन्तु अधिक लेनिन, त्रात्स्की, व अन्य लोगों को पढा़. ये सब जो अपने देश में सफल क्रान्ति लाये थे, नास्तिक थे.
फिर मुझे निरलम्ब स्वामी की पुस्तक ‘सहज ज्ञान’ मिली. इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी. 1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान ईश्वर, जो ब्रह्माण्ड का सृजन, दिग्दर्शन, संचालन करे ..
कोरी बकवास है.
मैंने यह अविश्वास प्रदर्शित किया. दोस्तों से बहस की.
अब मैं घोषित नास्तिक हो चुका था.
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लेकिन, इस परीक्षण पर खरा उतरना, कठिन है.
विश्वास कष्टों को हल्का, दुःख को सुखकर बना देता हैं. ईश्वर ऐसा मानसिक सहारा है, जिसमें सान्त्वना पाने आधार मिल जाता है. उसके बगैर हमें खुद पर पूरा बोझ लेना पड़ेगा.
और तूफ़ानी झंझवात में पिता की उंगली छोड़, अपने पांवों पर खड़ा हो जाना, कोई बच्चों का खेल नहीं. परीक्षा की घड़ियों में अहंकार यदि है, तो भाप बन कर उड़ जायेगा.
और तब मनुष्य ईश्वर को ठुकराने का साहस नहीं कर पाता.
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फिर भी कोई ऐसा कर लेता है, तो इसका मतलब यही, कि उसके पास सिर्फ़ अहंकार नहीं, कोई अन्य शक्ति है.
और आज मेरे साथ ठीक वैसी स्थिति है.
मेरे केस में कोर्ट का निर्णय साफ है. हफ्तेभर में सार्वजनिक हो जायेगा कि मैं अपना जीवन, एक ध्येय पर न्योछावर करने जा रहा हूं.
तो ईश्वर में विश्वास रखने वाला हिन्दू पुनर्जन्म में पुनर्जन्म पर राजा होने की आशा कर सकता है. कोई मुसलमान या ईसाई, जन्नत के आनन्द की कल्पना कर सकता है.
पर मैं … ??
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पर मैं क्या आशा करूं ?
मेरे लिए तो जिस क्षण फ़न्दा लगेगा, पैरों के नीचे तख़्ता हटेगा, वहां पूर्ण विराम होगा. अन्तिम क्षण, जब मैं, मेरी आत्मा, वहीं समाप्त हो जायेगी.
खत्म हो जाएगी एक छोटी सी जूझती हुई ज़िन्दगी.
जिसकी कोई गौरवशाली परिणति नहीं.
पर यही अपने में एक पुरस्कार होगी, यदि मुझमें इस दृष्टि से देखने का साहस हो. क्योंकि इहलोक या परलोक के किसी स्वार्थ के बगैर, अनासक्त होकर मैने जीवन आजादी को दिया. मेरे पास बस यही था,
कुछ और मैं क्या ही दे सकता था ??
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जिस दिन हमें ऐसी सोच के लाखों स्त्री-पुरूष मिल जायें, जो जीवन को मानवोद्धार के अलावे कहीं समर्पित कर ही नहीं सकते, मुक्ति का युग उसी दिन आरंभ होगा.
लोग शोषकों, उत्पीड़कों और अत्याचारियों को इसलिए चुनौती नहीं देंगे, कि राजा बनना है, पुरस्कार लेना है – यहां, या अगले जन्म, या मृत्योपरान्त स्वर्ग में.
वे तो दासता खत्म करने, मुक्ति एवं शान्ति को दुनिया मे स्थापित करने के लिये यह मार्ग अपनायेंगे. इस राह पर चलेंगे क्योंकि उनके शुद्ध अंर्तमन के लिये एकमात्र कर सकने योग्य काम होगा.
तब क्या इस महान ध्येय के प्रति उनके गर्व को, अहंकार कहा जायेगा ?
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आलोचना और स्वतन्त्र विचार क्रान्तिकारी के दो अनिवार्य गुण हैं.
हमारे पूर्वजों ने किसी परमात्मा के प्रति विश्वास बना लिया था. सो अब कोई ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती दे, तो विधर्मी, विश्वासघाती कह दिया जाता है.
और उसके तर्क अकाट्य, प्रबल हो, तो भी निन्दा की जायेगी. कहकर कि वह घमंडी है.
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पर ये मेरा अहंकार नहीं, जो मुझे नास्तिकता की ओर ले गया. मैं तो जानता हूं कि ईश्वर पर आस्था ने मेरा बोझ हलका कर दिया होता. उस पर अविश्वास मेरा वातावरण बेहद शुष्क कर दिया है. थोड़ा रहस्यवाद तो जीवन कवित्वमय बना सकता था.
पर मेरे भाग्य को उन्माद का सहारा नहीं चाहिए.
यथार्थवादी हूं. अन्तस पर विवेक से विजय चाहता हूं. हां, इसमें मैं पूरा सफल नहीं हुआ हूं, मगर प्रयास मनुष्य का कर्तव्य है. सफलता तो संयोग तथा वातावरण पर निर्भर है.
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जब हमारे पूर्वजों ने विश्व के रहस्य, इसके भूत, वर्तमान, भविष्य, क्यों-कहां को समझने का प्रयास किया, तो सबने प्रश्नों को अपने अपने ढ़ंग से हल किया.
तभी तो धार्मिक मतों में इतना अन्तर है.
जो वैमनस्य और झगड़े का भी रूप ले लेता है.
पूर्व और पश्चिम में मतभेद है. पूर्व में इस्लाम तथा हिन्दूओं में अनुरूपता नहीं. भारत में ही बौद्ध, जैन धर्म और ब्राह्मणवाद में अंतर हैं. ब्राह्मणवाद में भी आर्यसमाज व सनातन विरोधी मत पाये जाते हैं. पुराने समय में ही चार्वाक हुआ, उसने तभी ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती दे दी थी.
और सभी खुद को सही मानते हैं.
दुर्भाग्यवश हमने पुराने विचारकों के अनुभवों तथा विचारों को अज्ञानता के विरुद्ध लड़ाई की रोशनी नही बनाया. बल्कि बेढ़ब चीख पुकार करते हैं. दरअसल हम मानवता के विकास को जड़ बनाने के दोषी हैं.
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ये अन्धविश्वास ख़तरनाक है.
दिमाग को मूढ़ और मनुष्य को प्रतिक्रियावादी बना देता है. यदि आप यथार्थवादी है तो आपको रूढ़िगत विश्वासों को चुनौती देनी होगी.
तर्क की कसौटी पर कसना होगा.
यदि वे तर्क के प्रहार से टुकड़े होकर गिर जाए तो नये दर्शन की स्थापना करनी होगी. पुराने धराशायी नए निर्माण करने होंगे.
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मुझे पूरा विश्वास है कि एक चेतन परम आत्मा का, जो प्रकृति की गति का दिग्दर्शन व संचालन करता है, कोई अस्तित्व नहीं है.
हम प्रकृति में विश्वास करते हैं और प्रगतिशीलता का ध्येय मनुष्य की सेवा के लिये प्रकृति पर विजय प्राप्त करना मानते हैं. इसको दिशा देने के पीछे कोई चेतन शक्ति नहीं है.
यही हमारा दर्शन है.
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हम आस्तिकों से कुछ प्रश्न करना चाहते हैं.
यदि आप मानते हैं, कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी ईश्वर ने सृष्टि बनाई, तो कृपया मुझे बतायें कि उसने यह रचना क्यों की ?
कष्टों और संतापों से पूर्ण ये दुनिया, असंख्य दुःख…यहां एक भी व्यक्ति पूरी तरह संतृष्ट नहीं.
अब ये न कहें कि यही उसका नियम है. वे किसी नियम से बंधा हो, सर्वशक्तिमान नहीं है. फिर वो हमारी तरह नियमों का दास है.
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कृपया ये भी न कहें कि यह उसका मनोरंजन है.
फिर नीरो ने तो बस एक रोम जलाया था. थोड़ा दुःख पैदा किया, मनोरंजन के लिये. इतिहास में क्या स्थान है उसका ? चंगेज खां ने अपने आनन्द के लिये, बस कुछ हजार जानें ली. हम उसके नाम से घृणा करते हैं.
तब कैसे तुम अपने ईश्वर को न्यायोचित ठहराते हो ? ऐसा शाश्वत नीरो, जो हर दिन, हर घण्टे-हर मिनट असंख्य दुःख देता रहा,
और दे रहा है.
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अच्छा !! तो यह इन निर्दाेष कष्ट सहने वालों को बाद में पुरस्कार देने, और गलती करने वालों को दण्ड देने के लिये हो रहा है ? ठीक है, ठीक है.
अरे, तुम कब तक उस व्यक्ति को उचित ठहराते रहोगे, जो हमारे शरीर पर घाव इसलिये करता है कि बाद में मुलायम और आरामदायक मलहम लगायेगा ?
ग्लैडिएटर लड़ाने वाले क्या उचित करते थे कि एक भूखे ख़ूंख़्वार शेर के सामने मनुष्य को फेंक दो. अगर वह अपनी जान बचा लेता है, तो उसकी खूब देखभाल की जायेगी ?
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ओ मुसलमानों, ईसाइयों…
तुम पूर्वजन्म में विश्वास नहीं करते. तब तो हिन्दुओं की तरह ये भी नहीं कह सकते कि जनता के कष्ट, उनके पूर्वजन्मों के फल है.
तो बताओ तुम- उस सर्वशक्तिशाली ने विश्व के उत्पत्ति के लिये छः दिन क्यों परिश्रम किया ?
रोज क्यों कहता है – सब बढिया है…
बुलाओ उसे. इतिहास दिखाओ. आज के हालात दिखाओ.
देखेंगे कि वो क्या कहता है ??
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जेलों की काल-कोठरी से झुग्गी बस्तियों तक,
भूख से तड़पते लाखों इन्सानों से उन शोषित मज़दूरों तक, जो पूँजीवादी पिशाच को अपना लहू पीते, धैर्यपूर्ण उदासी से देख रहे हैं
मानवता की ऐसी बर्बादी देख रहे हैं, जिसे देखकर कोई भी भय से सिहर उठेगा. ये व्यवस्था जो अधिक उत्पादन को ज़रूरतमन्द लोगों में बाँटने के बजाय, समुद्र में फेंक देना बेहतर समझने है.
राजाओं के वे महल,
जिनकी नींव में मानव हड्डियां पड़ी है,
दिखाओ ईश्वर को, उसे और कहने दो कि हां, सब ठीक है !
अरे कैसे ??
क्यों और कहां से ?
यही मेरा प्रश्न है.
तुम चुप हो. ठीक है, तो मैं आगे चलता हूं.
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और तुम हिन्दुओं…
तुम कहते हो कि आज जो कष्ट भोग रहे हैं, पूर्वजन्म के पापी हैं. और आज के उत्पीड़क विगत जन्मों में साधु पुरुष थे, अतः सत्ता का आनन्द लूट रहे हैं.
तब मुझे यह मानना पड़ेगा कि आपके पूर्वज बहुत चालाक थे. उनने ऐसे सिद्धान्त गढ़े, जिनमें तर्क और अविश्वास के हर प्रयास को विफल करने की ताकत है.
दरअसल न्यायशास्त्र में किसी अपराधी को दिया दण्ड, असर के आधार पर केवल तीन वजह से उचित ठहराया जा सकता है.
वे हैं – बदला, डर, और सुधार.
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बदले की निन्दा हर प्रगतिशील विचारक द्वारा की जाती है. भयभीत करने के सिद्धान्त का भी अन्त वहीं है. केवल सुधार करने का सिद्धान्त ही उचित है, जिसका ध्येय अपराधी को योग्य और शान्तिप्रिय नागरिक बनाकर, समाज को लौटाना है.
तो यदि हम मनुष्यों को अपराधी मान लें,
तो ईश्वर द्वारा उन्हें दिये गये दण्ड की क्या प्रकृति है ?
तुम कहते हो वह उन्हें गाय, बिल्ली, पेड़, जड़ी-बूटी या जानवर बनाकर पैदा करता है. तुम ऐसे 84 लाख दण्ड गिनाते हो. तो मनुष्य पर इनका सुधारक के रूप में क्या असर है ?
तुम ऐसे कितने व्यक्तियों से मिले हो, जो यह कहते हैं कि वे किसी पाप के कारण पूर्वजन्म में गधा के रूप में पैदा हुए थे ?
एक भी नहीं !!
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अपने पुराणों से उदाहरण न दो. मेरे पास तुम्हारी पौराणिक गप्पों के लिए कोई स्थान नहीं है.
फिर क्या तुम्हें पता है कि दुनिया में सबसे बड़ा पाप गरीब होना है. गरीबी एक अभिशाप है. यह एक दण्ड है.
गरीबी खुद अपराध को पोषित करती है. तो ऐसी दण्ड प्रक्रिया की कहां तक प्रशंसा करें, जो मनुष्य को और अपराध करने को मजबूर करे. क्या तुम्हारे बुद्धिमान ईश्वर ने यह नहीं सोचा ?
या उसे भी ये बातें मानवता से अकथनीय कष्ट झेलवाकर ही सीखनी हैं ?
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भला किसी गरीब या अनपढ़ परिवार, जैसे किसी चमार या मेहतर के यहां पैदा होने पर इन्सान का भाग्य क्या होगा ? वह गरीब है, तो पढ़ाई नहीं कर सकता.
अपने साथियों से तिरस्कृत एवं परित्यक्त रहता है, जो ऊंची जाति में पैदा होने के कारण, खुद को ऊंचा समझते हैं.
फिर उसकी अशिक्षा, अज्ञान, गरीबी तथा उसे मिला व्यवहार, उसके हृदय को आपराधिक निष्ठुर बना दे, तो उसके किसी पाप का दोषी कौन ?
वह ईश्वर ??
या तुम्हारे धर्म के उपदेशक ?
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उन लोगों को दण्ड क्यों, जिन्हें दम्भी ब्राह्मणों ने जानबूझ कर अज्ञानी बनाये रखा. जिन्हे तुम्हारे ज्ञान की पवित्र पुस्तकों के कुछ वाक्य सुन लेने पर कान में पिघले सीसा डलवाने की सजा भुगतनी पड़ती थी ?
वे कोई अपराध करते हैं, तो उसके लिये कौन ज़िम्मेदार होगा ?
और उनका प्रहार कौन सहेगा ?
मेरे दोस्त !!
ये सिद्धान्त, असल मे विशेषाधिकार लिए लोगों के आविष्कार हैं. ताकि ये अपनी हथियाई हुई शक्ति, पूंजी तथा उच्चता को इन सिद्धान्तों के आधार पर सही ठहरा सकें.
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अपटान सिंक्लेयर लिखते है कि मनुष्य को बस अमरत्व में विश्वास दिला दो. फिर उसकी तमाम सम्पत्ति लूट लो. वह खुद बिना शिकायत इस कार्य में तुम्हारी सहायता करेगा.
धर्म के उपदेशकों, और सत्ताधीषों के अपवित्र गठबन्धन से ही जेल, फांसी, कोड़े और इस तरह के सिद्धान्त उपजते हैं.
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फिर तुम्हारा सर्वशक्तिशाली ईश्वर, व्यक्ति को तब क्यों नहीं रोकता.. जब वह कोई पाप या अपराध कर रहा होता है ?
यह तो वह बहुत आसानी से कर सकता है.
क्यों नहीं उसने लड़ाकू राजाओं की लड़ने की उग्रता को समाप्त किया.
क्यों नहीं विश्वयुद्ध द्वारा मानवता पर पड़ने वाली विपत्तियों से बचाया ? क्यों उसने अंग्रेजों के दिमाग में भारत को मुक्त कर देने की भावना पैदा की ? क्यों नहीं वह धनपतियों के दिल में परोपकारी उत्साह भर देता…
कि उत्पादन के साधनों पर अपना व्यक्तिगत सम्पत्ति का अधिकार वे त्याग दें. और इस प्रकार न केवल मजदूरों बल्कि मानव समाज को पूंजीवादी बेड़ियों से मुक्त करें ?
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ओह, तो अब आप समाजवाद की व्यावहारिकता पर तर्क करना चाहते हैं. चलिए. मैं इसे आपके सर्वशक्तिमान पर ही छोड़ देता हूं कि आए, वही लागू करे.
क्योंकि जहां तक सामान्य भलाई की बात है, सभी लोग समाजवाद के गुणों को मानते हैं. लेकिन विरोध, इसके व्यावहारिक न होने का बहाना लेकर करते हैं.
तो आने दो परमात्मा को, ताकि वह इस चीज को सही तरीके से कर दे.
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अंग्रेजों की हुकूमत यहां इसलिये नहीं.. कि ईश्वर चाहता है. इसलिये है कि उनके पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने का साहस नहीं.
वे हमको नीचे हमें ईश्वर की मदद से नहीं रखे हैं. बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और गोलियों, पुलिस और सेना के सहारे गुलाम किया है.
यह हमारी उदासीनता है कि वे समाज के विरुद्ध सबसे निन्दनीय अपराध, याने एक राष्ट्र का दूसरे राष्ट्र द्वारा अत्याचारी शोषण, मजे से कर रहे हैं.
कहां है ईश्वर ? क्या वह मनुष्य जाति के इन कष्टों का मज़ा ले रहा है ? एक नीरो ?? एक चंगेज ??
अरे … उसका नाश हो !
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क्या तुम मुझसे पूछते हो कि मैं इस विश्व की उत्पत्ति तथा मानव की उत्पत्ति की व्याख्या कैसे करता हूं ? ठीक है, मैं तुम्हें बताता हूं.
चार्ल्स डारविन ने इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने की कोशिश की है. उसे पढ़ो. यह एक प्रकृति की घटना है. विभिन्न पदार्थों के, नीहारिका के आकार में, आकस्मिक मिश्रण से पृथ्वी बनी.
कब ? इतिहास देखो.
इसी प्रकार की घटना से जन्तु पैदा हुए और एक लम्बे दौर में मानव. डार्विन की ओरिजन आफ स्पीशीज पढ़ो. और फिर सारा विकास मनुष्य द्वारा प्रकृति के लगातार विरोध और उस पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा से हुआ.
यह इस घटना की सम्भवतः सबसे सूक्ष्म व्याख्या है.
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तुम्हारा दूसरा तर्क यह हो सकता है कि क्यों एक बच्चा अन्धा या लंगड़ा पैदा होता है ? क्या यह उसके पूर्वजन्म में किये गये कार्यों का फल नहीं है ? जीवविज्ञान वेत्ताओं ने इस समस्या का वैज्ञानिक समाधान निकाल लिया है.
अवश्य ही तुम एक और बचकाना प्रश्न पूछ सकते हो – यदि ईश्वर नहीं है, तो लोग उसमें विश्वास क्यों करने लगे ?
मेरा उत्तर सूक्ष्म तथा स्पष्ट है.
जिस प्रकार वे प्रेतों तथा दुष्ट आत्माओं में विश्वास करने लगे.
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अन्तर केवल इतना है कि ईश्वर में विश्वास विश्वव्यापी है
और दर्शन अत्यन्त विकसित.
इसकी उत्पत्ति का श्रेय उन शोषकों की प्रतिभा को है, जो परमात्मा के नाम पर लोगों को अपने प्रभुत्व में रखना चाहते थे. और अपनी विशिष्ट स्थिति का अधिकार एवं अनुमोदन चाहते थे.
दरअसल सभी धर्म, संप्रदाय, पंथ और ऐसी अन्य संस्थाएं अन्त में निर्दयी और शोषक वर्गों की समर्थक हो जाती हैं. राजा के विरुद्ध हर विद्रोह, हर धर्म में इसलिए ही पाप रहा है.
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मनुष्य की सीमाओं, उसकी दुर्बलता, दोषों को समझने के बाद परीक्षा की घड़ी मे मनुष्य को उत्साहित रखने के लिए ईश्वर के काल्पनिक अस्तित्व की रचना हुई. उसे पिता समान उदारता से पूर्ण ईश्वर के रूप चित्रण किया गया.
लेकिन फिर उसका उपयोग एक भय के लिए भी होता है, ताकि कोई मनुष्य समाज के लिये ख़तरा न बन जाये. वास्तव में आदिम काल में यह समाज के लिये उपयोगी था. पीड़ा में पड़े मनुष्य के लिये ईश्वर की कल्पना उपयोगी होती है.
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पर आज समाज को इस विश्वास के विरुद्ध लड़ना होगा.
मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है तथा यथार्थवादी बन जाता है. तब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए.
और उन सभी कष्टों, परेशानियों का स्वयं के पुरुषार्थ से सामना करना चाहिए. यही आज मेरी स्थिति है.
यह मेरा अहंकार नहीं है, मेरे दोस्त !
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यह मेरे सोचने का तरीका है, जिसने मुझे नास्तिक बनाया है. ईश्वर में विश्वास और रोज़-ब-रोज़ की प्रार्थना को मैं मनुष्य के लिये सबसे स्वार्थी और गिरा हुआ काम मानता हूं.
मैंने उन नास्तिकों के बारे में पढ़ा है, जिन्होंने सभी विपदाओं का बहादुरी से सामना किया. अतः मैं भी एक पुरुष की भांति फांसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊंचा किये खड़ा रहना चाहता हूं.
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अब देखना है कि मैं कैसे निभा पाता हूं.
मेरे एक दोस्त ने मुझे प्रार्थना करने को कहा. जब मैंने उसे नास्तिक होने की बात बतायी, तो उसने कहा – तुम अपने अन्तिम दिनों में तुम विश्वास करने लगोगे.
मैंने कहा- नहीं, प्यारे दोस्त, ऐसा नहीं होगा. मैं इसे अपने लिये अपमानजनक तथा भ्रष्ट होने की बात समझाता हूं. स्वार्थी कारणों से मैं प्रार्थना नहीं करूंगा.
पाठकों और दोस्तों, क्या यह अहंकार है ?
अगर है तो मैं स्वीकार करता हूं.
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मेरे कारण, मेरी सोच…
मै नास्तिक क्यों हूं..
आपके सामने है.
– भगतसिंह
- मनीष सिंह द्वारा प्रस्तुत
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