भगत सिंह
जब मौत तुम्हारे सामने खड़ी
तुम्हारा इंतजार कर रही थी
तब तुम लेनिन से बात कर रहे थे।
‘राज्य और क्रांति’ के 71वें पेज का बुकमार्क
तुम्हारे दोस्तों ने हटा दिया है
उन्होंने पूरी किताब पढ़ ली है
बल्कि कुछ नयी किताबें भी उठा ली हैं
जिन्हें तुम पढ़ना चाहते थे।
तुम्हारी शहादत के बाद
न जाने कितना पानी दरिया में बह चुका है
लेकिन न ही बदला राज्य का दमन
और न ही बदली क्रांति की जरूरत
घरती पर गिरे तुम्हारे रक्त में
न जाने कितने रक्त घुल मिल गए हैं
धरती पर गिरा कुछ भी बेकार नहीं जाता
और रक्त तो बिल्कुल नहीं।
एक दिन धरती की कोख में समाया यही रक्त
गर्म होकर उबल पड़ेगा
एक ज्वालामुखी फूटेगा
तुम्हारे दोस्त इसी ‘ज्वालामुखी के मुहाने पर’ रखेंगे
चाय की केतली
और तुम्हें चाय के लिए आमंत्रित करेंगे.
- मनीष आजाद
(नवारुण भट्टाचार्य की कविता ‘लेखक’ की प्रेरणा से और एक पंक्ति ‘उधार’ लेकर)
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