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बेहद गंभीर जरूरी और मार्मिक सवाल

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बेहद गंभीर जरूरी और मार्मिक सवाल

केन्द्र सरकार हरामख़ोरी पर उतर आयी है हमारा खून चूसकर अपने लिए इवेंट पेंट कर रही है. सेना का इस्तेमाल कर एक बार फिर अपनी करतूतों पर परदा डाला गया है. यह सब अब उतना शर्मनाक नहीं रह गया, जिसके लिए मोदी को शर्म से डूब मरने के लिए कोसा जाए. सरकार यह बात जानती है उसके लिए यह बेशर्मी सामान्य-सी बात है.

लाशों पर राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं सेंकी जा रही है. बात सिर्फ यहीं तक नहीं रह गयी है. देश की मेहनतकश आवाम को कुत्तों से भी बद्तर हालत में छोड़ दिया गया है. कुत्ते काट नहीं सकते सरकार अपनी तरफ से निश्चिंत है.

सच पूछो तो यह लाॅकडाउन सर्कस के भूखे जानवरों को क़ैद कर, उन पर हंटर चलाने से भी कहीं विभत्स है. लोग जो धैर्य की सभी सीमाओं को तोड़ घर के लिए निकल जा रहे हैं, वे बहादुर हैं, लाचार हैं, व्यवस्था और हालात के मारे हैं, किंतु विद्रोही नहीं हैं. वे जान गए हैं कि सरकार हमें रोककर जिस तरह मारना चाहती है, वह मंजूर नहीं. मरना ही है तो अपने तरीके से अपने देस अपने गांव वापस जाते हुए मरना कहीं ज्यादा अच्छा है.

अगर पहुंच गए तो ठीक वरना ऐसे भी नहीं बचना है क्यूंकि सरकार, जिसको चुना गया था कि वह बहादुर है जनता के साथ खड़ी रहेगी, वह बेहद निर्लज्ज, कमज़ोर, डरपोक व धूर्त निकली. इस आपात परिस्थिति में अपने हाथ ऊपर कर भिक्षाम देही करने लगी. हमसे पैसे और विश्वास रखने की अपील कर, भगोड़े देशद्रोहियों के साथ खड़ी हो गई.

दूसरी तरफ कारपोरेट को भी डर था कि सब निकल गए तो उनके कारखानों की नलिश कौन करेगा इसलिए भी मजदूरों को रोके रखा गया. तब पर भी उसके प्रशंसा में नतमस्तक दलाल भोंपू मीडिया जै-जैकार करते नहीं थक रहा.

बड़े ही शातिराना तरीके से 3 मई से दो-तीन दिन पहले ही श्रमिक स्पेशल ट्रेन की घोषणा कर दी जाती है ताकि लोग व्यक्तिगत तौर पर किसी तरह अपने निकल लेने के फ़िराक में शांत होके लग जाय. मगर अब भी इसका कोई ठोस रोडमैप नहीं है. केन्द्र ने राज्यों पर छोड़ दिया, राज्य जिलों की तरफ देख रहा है. ऐसे तो निकालते अगस्त आ जाएगा. जबकि बड़ी आबादी वाले शहर जैसे मुम्बई और सूरत के लिए अलग से प्लानिंग की जानी चहिये और लोगों को विश्वास में लेना बड़े चैलेंज का काम हो गया है.

चालिस दिन तक धैर्य रखने के बाद अब कोई हिम्मत नहीं जुटा पा रहा. मीडिया केवल कोरोना गिन रहा है. वह सही सवालों को दरकिनार कर गला फाड़े चिल्ला रहा है कि भारी संख्या में रजिस्ट्रेशन चल रहे हैं. मज़दूर कह रहे हैं, यह रजिस्टर कैसे होगा ? कहां हो रहा है ? नोडल आफिसर्स की हेल्पलाइन या तो ऑफ है, या तो फार्वर्ड है. फोन नहीं लगता. वेबसाइटों पर पंजीकरण के नाम पर केवल टहलाया जा रहा है. पास के पुलिस थानों से आवाज़ आती है अपने राज्य सरकार से संपर्क करो.

रेंट पर रह रहे लोगों के मकान मालिकों की अपनी अलग दर्दनाक कहानी है. 3 माह तक किराए के लिए दबाव न डालने की केन्द्र व राज्य सरकार की अपील का कोई मतलब नहीं रहा है. जो सक्षम हैं उन्हें भी पैसे चहिये. बहुत सारे मज़दूर लोग किसी से अपनी हालत इसलिए भी बयां नहीं कर पा रहे हैं कि दूर गांव में घरवाले कहीं परेशान हो जाएंगे.

इन सारी तकलीफ़ों को हम अलग-अलग परिपेक्ष्य में नहीं समझेंगे तो शायद हमें कोई तकलीफ़ भी न होगी. लेकिन ठेला उलट दिए जाने के बाद भी कोई सब्जीवाला ढीठाई से वही खड़ा रहता है और मार खाने के बाद भी पुलिस के चले जाने पर छितराये हुए बटाटे बिनकर उसकी धूल झाड़ता है, तब हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि कौन सी वह चीज़ है जो उसे ढीठ बना रही है ?

आप बैठकर टीवी देखिए. मेन स्ट्रीम मीडिया की लाश आपके घरों में सड़कर बदबू मार रही है. उसे निकाल कर बाहर फेंक आइए और टीवी को सेनिटाइज़ करिए बेहतर होगा, नहीं तो उसके अंदर के बैक्टीरिया आपके सोचने समझने व महसूस करने वाले सेंसेज को खा जाएंगे. यह कोरोना से भी ख़तरनाक हैं.

ऐसे में सवाल तो फिर भी सरकार पर ही उठता है. कोरोना ने तो बहुत लम्बा वक़्त दिया संभालने का, जितना हो सकता था. मूर्खता और हरामख़ोरी जितनी तेज़ी से फैली है, उसके मुकाबले कोविड-19 के किटाणु बौने साबित हुए हैं.

400 केसेज थे तब आप ट्रंप के स्वागत में दीवारें ऊंची करवा रहे थे. पीपीई किट खरीदना था तब एमएलए ख़रीदारी चल रही थी. लोगों को सुरक्षित निकालना था, तब थाली पिटवा रहे थे.

अब समय आ रहा है जब सवा सौ करोड़ जनता से फिर अपील की जाए कि – ‘आज शाम खिड़की पर आइए ! चांद देखिए कितना स्वछंद दिखने लगा है आजकल. माशाअल्लाह ! क्या दाग़ पाया है. बिलकुल बेदाग़ सा ! सत्तर सालों के इतिहास में पहली बार. हो सके तो सेवईंया खाइए ! यह भी देश के नाम दर्ज होगा कि कुछ लोग थे अतरंगी से.’ अब बताइये कि आंंकड़े 4,000 के पार पहुंंच गए हैं. टेस्टिंग भी बहुत नहीं बढ़ी. अब कैसे संक्रमण के फैलाव की गति को कम किया जाए ?

चालिस दिन तक खून चूस लेने के बाद अब कह रहे हो घर भेजेंगे लाइन लगाओ. पैसे निकालो. आधी-अधूरी जानकारी के इस सर्कुलर का क्या करें हम ? पुलिसकर्मी मज़दूरों को खदेड़ रहे हैं. रास्ते में लोग भूख और कमज़ोरी से दम तोड़ दे रहे हैं. मानसिक रूप से जो टार्चर हो रहे हैं सो अलग.

साहब एक बात बताओ ! नहीं पर्सनली पूछ रहा हूंं – क्या आप अंधे हो ? नहीं, शक की कोई बात नहीं है. मेरा मतलब कौन से टाइप के..? यह कैटेगरी बिलकुल नई-सी जोड़ी है आपने. और आपके पीछे ये लोग जो कोरोना इवेंट का मज़ा लूट रहे हैं, पढ़े-लिखे नमूने भक्त, कोरोनाकाल में हालत इनकी भी ठीक नहीं है. इनको आश्वस्त करिए कि प्रति ट्वीट/कमेंट कुछ खरचा-पानी बढ़ने वाला है क्योंकि उनका कभी अपने प्रिय नेता की थेथरई से मोहभंग नहीं होगा.

वास्तविकता यही है कि आज संकट में पड़ी मेहनतकश आवाम से कारखानों के मालिकों व सरकारों का कोई सरोकार नहीं है. यह सच, लोगों के लिए अब ज़्यादा पुख्ता सच बन गया है. निर्विवाद रूप से बिना किसी गूढ़ या अतिरेक के. क्यूंकि मज़दूरों ने जिससे भी उम्मीद की, वह आज साथ नहीं है. मालिक वर्ग यह भूल गया कि कल इन्हें ही काम करना है. फिर भी वह दरियादिली नहीं दिखा सकता. यह नियमत: बाज़ार के निर्मित सिद्धांतों के खिलाफ़ है.

हम केवल प्राॅफिटेबल एसेट्स से ज़्यादा कुछ नहीं हैं और सरकार के लिए केवल वोटर. इतनी-सी बात क्या आपको महसूस होती है ? जबकि देश को खड़ा किया है हम मजदूरों ने. देश भर में रेल की पटरियां हमने बिछाईं हैं. मौज़ किसी और की और कारखानों के धुंए हमारे हिस्से. यह बलिदान हमी से बार-बार क्यूं ?

उस बहरूपिए नेता को देखो ! उसके कुर्ते की क्रीज़ तक नहीं टूटी. वह बेफ़िक्री से चोले बदल रहा है. अपने भगोड़े मितरों से पूछ रहा है कि नाश्ते में क्या लिया ? डीनर में और लोन चहिये क्या ?? और हमलोगों से क्या कहा जा रहा है ? देशभक्ति दिखाओ ! सियाचिन पर सैनिक मर रहे हैं आप भूखों नहीं मर सकते ?

लाॅकडाउन में वैसे भी तो कोई एहसान नहीं कर रहे हो. जबकि सैनिक हमारे घर के लड़के हैं, हमारे भाई चाचा दोस्त.. हमें ही उनसे अलग पैरलल रखकर हमें ही बलिदान के पाठ पढ़ाए जा रहे हैं ! हद है. तुम बताओ तुमने कितने दिन का उपवास रखा ?

तुम कभी वोट के लिए हमारे घर के लड़कों को ले आते हो, कभी महामारी में हमारे भाइयों को सवालों के आगे खड़ा कर देते हो. जैसे वे देश के नहीं, तुम्हारे चाकर हैं. साहब ! बड़बड़इए नहीं जवाब दीजिये !

कमाल है हजारों किलोमीटर पैदल चलने वालों को माननीय शाह का आईटीसेल अब भी गरियाये जा रहा है ? बताओ भई क्या सब मज़दूर, गंदे, जाहिल व निकम्मे हैं ?? नहीं तो फिर नौटंकी बंद होनी चाहिए. अच्छा होगा शीघ्र ही सबको सुरक्षित निकालने की उचित व्यवस्था की जाय, वरना चीज़ों को कंट्रोल नहीं कर पाएंगे. जितना संक्रमण नहीं बढ़ रहा है उतनी भूखमरी.

कहीं से कोई उम्मीद के पाज़िटिव संकेत नहीं दिख रहे. देखिए कौन किस हालत तक जाता है. खैर, चलो अब बानर के हाथ में उस्तरा दिया है तो सर भिगोकर तैयार रहो, बारी सबकी आ रही है.

  • सिद्धार्थ रत्नम

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