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बैंकों का निजीकरण : पूंजीपतियों की सेवा में सारी हदें पार करती मोदी सरकार

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बैंकों का निजीकरण : पूंजीपतियों की सेवा में सारी हदें पार करती मोदी सरकार

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एक फ़रवरी को 2021-22 का बजट पेश करते हुए पूरी बेशर्मी के साथ निजीकरण के हक़ में दलीलें दी. बात यह नहीं कि इससे पहले की सरकारें जनपक्षधर थीं, लेकिन जिस तरह से अब निजीकरण और सार्वजनिक क्षेत्र के ख़ात्मे की नीतियों को खुलेआम लागू किया जा रहा है, यह ज़रूर ही एक नया दौर है जो 2014 में भाजपा के सत्ता में आने से शुरू हुआ और अब आम जनता पर पड़ने वाले इसके घातक परिणाम जगजाहिर हैं. दिन-ब-दिन भारत की मेहनतकश आबादी के सामने यह अधिक स्पष्ट होता जा रहा है कि यह सरकार जनपक्षधरता की लुभावनी शब्दावली इस्तेमाल करते हुए असल में किसके पक्ष में काम करती है.

इस बजट में निर्मला सीतारमण और भाजपा सरकार ने भविष्य के लिए अपने इरादे स्पष्ट तौर पर घोषित करते हुए यह बात की है कि सुरक्षा से संबंधित कुछ संस्थानों (समय आने पर इनकी बारी भी आ सकती है) को छोड़कर सार्वजनिक क्षेत्र के बाक़ी सारे संस्थानों का निजीकरण किया जाएगा. इस निजीकरण के अभियान से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक भी सुरक्षित नहीं रहेंगे.

पिछले साल ही केंद्र सरकार ने 10 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का 4 बैंकों में एकीकरण कर दिया था. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की संख्या जो मार्च 2017 में 27 थी, पिछले साल 12 रह गई. सारे सार्वजनिक क्षेत्र पर ही निजीकरण की तलवार लटक रही है और वर्ष 2021-22 के लिए विनिवेश का उद्देश्य सरकार द्वारा 1.75 अरब रुपए रखा गया है, जिसके तहत ही इस वर्ष सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों का निजीकरण किया जाएगा. इस पूरे बजट ने ही सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वाले मुलाज़िमों में रोष की लहर पैदा की है.

विभिन्न संगठनों ने प्रतीकात्मक रोष प्रदर्शन किए. कुछ हड़तालें बजट के बाद हुईं और कुछ अभी भी जारी हैं. अधिकतर मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों का वो हिस्सा, जो वैसे तो निजीकरण के अभियान के कुल मिलाकर हक़ में ही आता है, में भी कुछ दरारें देखने को मिली हैं. सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण को सही समझते हुए भी ये अर्थशास्त्री सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण के विरोध में हैं, क्योंकि इनके अनुसार इससे देश की अर्थव्यवस्था ख़ास तौर पर वित्तीय क्षेत्र में बड़ी अस्थिरता पैदा हो सकती है. आओ इस बात को थोड़ा और जांचते हैं कि केंद्र सरकार बैंकों के निजीकरण से आख़ि‍र कौन-से उद्देश्य हासिल करना चाहती है ?

बैंकों के निजीकरण के पीछे सरकार के कुतर्क और असली उद्देश्य

निर्मला सीतारमण ने बजट पेश करते हुए स्पष्ट किया था कि कुल मिलाकर भाजपा सरकार का उद्देश्य 3-4 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को छोड़कर बाक़ी सभी बैंकों का निजीकरण करना है. केंद्र सरकार, उसके सलाहकार तथा बैंकों के निजीकरण का साथ देने वाले बुद्धिजीवियों का मुख्य तर्क तो यह है कि पिछले सात वर्षों के दौरान सरकार ने करीब 5 लाख करोड़ रुपए की पूंजी इन सार्वजनिक क्षेत्रों के बैंकों में लगाई है, ताकि भारतीय रिज़र्व बैंक के नियमों के अनुसार ज़रूरी पूंजी इन बैंकों में रहे, और इसके बावजूद लगातार इन बैंकों की पूँजी घटती जा रही है तथा अब कोरोना काल के समय में अर्थव्यवस्था को हुए नुक़सान के कारण सरकार अब और ख़र्चा करने में असमर्थ है.

केंद्र सरकार का तर्क है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के घाटे में होने का कारण घटिया प्रदर्शन है और इसका एक ही हल इसे निजी हाथों में सौंपना है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के घाटे में होने के असली कारणों पर भाजपा सरकार की यह दलील भद्दी और हास्यास्पद है. भारतीय रिज़र्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, इन बैंकों द्वारा कुल क़र्ज़ों का 55 प्रतिशत हिस्सा बड़े व्यवसायों को दिया जाता है, जिनमें से 80 प्रतिशत अब एन.पी.ए. बन चुका है. एन.पी.ए. वह क़र्ज़ा होता है जिस पर भुगतान के तय दिन से 90 दिनों से अधिक मूल या ब्याज़ का भुगतान ना हुआ हो.

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के एन.पी.ए. का बड़ा हिस्सा ऐसा है, जिसका अब भुगतान होने की उम्मीद नहीं है. आश्चर्य की बात यह है कि सरकार इन्हीं बड़े व्यवसायों को सार्वजनिक बैंक बेचने पर तुली हुई है, जिनके क़र्ज़ा ना लौटाने के कारण इन बैंकों की खस्ता हालत हुई है और तर्क दिया जा रहा है कि निजीकरण से ही इन बैंकों का प्रदर्शन बेहतर हो सकता है. निजी बैंक कैसे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से कहीं ज़्यादा ‘अच्छा’ प्रदर्शन करते हैं, इसका बड़ा उदाहरण येस बैंक वाली घटना है.

येस बैंक के घटिया प्रदर्शन के कारण और कारपोरेट संस्थानों को अंधा क़र्ज़ा देने के कारण बड़े वित्तीय संकट में फंस गया था और तब केंद्र सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक, स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को येस बैंक को इस संकट में से निकालने के लिए कहा था. यह कोई विलक्षण घटना नहीं, बल्कि एक रुझान है, जब निजी वित्तीय कंपनी आई.एल.एफ़.एस. गहरे संकट में फंसी तो उसे भी स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया और एल.आई.सी. द्वारा सरकार की ओर से राहत दिलवाई गई थी.

सार्वजनिक संस्थानों को निजी हाथों में देने का असल मक़सद केंद्र सरकार का अपने आकाओं, अंबानी, अडानी जैसे बड़े पूंजीपतियों की सेवा करना है. पूंजीवादी व्यवस्था में ध्रुवीकरण एक अटल परिघटना है, जहां कुछ हाथों में पूंजी दिनों दिन अधिक केंद्रित होती रहती है. भारत में इस प्रक्रिया ने 1991 में गति पकड़ी और अब मोदी सरकार के आने के बाद ध्रुवीकरण पुरानी सारी हदें पार कर चुका है. देश की कुल पूंजी अंबानी, अडानी जैसे कुछ मुट्ठीभर पूंजीपतियों के हाथों में इकट्ठा हो चुकी है.

पूंजी के बढ़ते केंद्रीकरण से इस व्यवस्था की अन्य संस्थाओं में भी अधिक केंद्रीकरण की ज़रूरत और रुझान पैदा होता है. आज देश के बड़े पूंजीपतियों को अपना व्यवसाय कुछ हद तक पटरी पर लाने के लिए और ज़रूरी मुनाफ़़े कमाने के लिए जितने बड़े क़र्ज़ों की ज़रूरत है, उसके लिए ज़रूरी है कि कई सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एकीकरण करके अधिक पूंजी वाले बड़े बैंकों की स्थापना की जाए.

दूसरा सार्वजनिक क्षेत्र की न्यूनतम पूंजी संबंधी शर्तें, क़र्ज़े प्रदान करने की शर्तें भी बड़े कारपोरेट घरानों के क़र्ज़े की ज़रूरतें पूरी करने में बाधा बन रही हैं. इसके साथ ही अर्थव्यवस्था के बाक़ी क्षेत्रों में सिकुड़ते मुनाफ़़े के कारण अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों के साथ ही सार्वजनिक बैंकों में भी निवेश करने का अवसर पूंजीपतियों की ज़रूरत है. बैंकों के निजीकरण और एकीकरण द्वारा बड़े कारपोरेट घराने देश भर के लोगों की बचतों पर अपने निवेश की ज़रूरतों के लिए इजारेदारी चाहते हैं, ना सिर्फ़ क़र्ज़े की प्रतिदिन बढ़ती अपनी ज़रूरतों के लिए बल्कि अपने मुक़ाबले में खड़े दूसरे पूंजीपतियों को भी बाज़ार से बाहर निकालने के लिए भी. इसके साथ ही इन सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण करके सरकार अपने विनिवेश के उद्देश्य को पूरा करना चाहती है. इस विनिवेश से जुटाई गई रक़म को भी सरकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीक़े से पूंजीपतियों की सेवा के लिए ही उपयोग करती है.

आम जनता और निजीकरण

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों सहित इस पूरे निजीकरण के अभियान ने लाखों-करोड़ों लोगों पर बेरोज़गारी की तलवार लटका दी है, जिसके कारण इन मुलाज़िमों ने संघर्ष का रास्ता अपनाया है, लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र, ख़ास करके सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण से सिर्फ़ इन बैंकों में काम कर रहे मुलाज़िमों पर ही नहीं, बल्कि भारत की बड़ी आबादी पर बुरा असर पड़ सकता है.

ऑल इंडिया बैंक इंपलॉइज़ एसोसिएशन के सचिव देवीदास तुलजापुरकर का कहना है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण के इस प्रस्ताव का सीधा-सीधा मतलब आम जनता के करीब 90 लाख करोड़ के खातों को बड़े पूंजीपतियों को सौंपना है. अमरीका में 2008 के संकट के समय का तज़ुर्बा यह स्पष्ट दिखाता है कि निजी बैंकों की मुनाफ़़े की हवस में आम जनता के खातों में पाई-पाई जोड़कर की गई बचतों की थोड़ी बहुत भी सुरक्षा नहीं रहती. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बेहतर प्रदर्शन के नाम पर किया जाने वाला निजीकरण आने वाले दिनों में भारत की आम जनता के लिए बड़ी समस्या खड़ी कर सकता है.

यहां साथ ही यह समझना भी ज़रूरी है कि इस लेख का मक़सद पूंजीवाद के तहत सार्वजनिक क्षेत्र को आदर्श के तौर पर पेश करना नहीं, बल्कि यह दिखाना है कि कैसे पूंजीवादी व्यवस्था की अटल गति और इसके अंदर मुनाफ़़े की हवस के चलते पूंजीपति और उनके तलवे चाटने वाली सरकारें जनता की बुनियादी सुविधाओं (सार्वजनिक क्षेत्र सहित) पर भी कटौती करने से कतराती नहीं हैं.

1947 के बाद सार्वजनिक क्षेत्र देश के पूंजीपतियों के लिए ज़रूरी था, क्योंकि उनके पास उस समय काफ़ी पूंजी नहीं थी. दूसरा जनता को भी कुछ शांत रखने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र और कुछ सुविधाएं ज़रूरी थी. 1991 तक आते-आते सार्वजनिक क्षेत्र भारत के पूंजीपतियों के पैरों की बेड़ी बनने लगा और अब तो यह मुनाफ़़े के भूखे अंबानियों-अडानियों के गले का फाँस बन चुका है. इसी कारण अपने आकाओं की सेवा में भाजपा सरकार ने निजीकरण की गति को चोटी पर पहुंचा दिया है.

निजीकरण के इस अभियान का देश-भर में विरोध हो रहा है और सार्वजनिक क्षेत्र के रूप में जनता के लिए बची हुई कुछ सुविधाओं को बचाने के लिए लोग सड़कों पर उतर रहे हैं. संघर्ष को निजीकरण के विरोध से आगे बढ़ाकर, कुल व्यवस्था के विरोध तक भी ले जाने की ज़रूरत है. भारत के हुक्मरानों ने ना तो सार्वजनिक क्षेत्र को जनता की सेवा के लिए बनाया था और ना ही निजीकरण जनता की बेहतरी के लिए हो रहा है. इस व्यवस्था का और इसके अंदर बन रही नीतियों का केंद्र बिंदू मुनाफ़़े की हवस ही होती है. यहां मुनाफ़़े की देवी के आगे आम इंसानों की बलि हर रोज़, हर घंटे, हर पल दी जाती है. आज अगर इंसान, इंसान की तरह जीना चाहता है तो उसे अवश्य ही इस मानवता विरोधी व्यवस्था को ख़त्म करके एक बेहतर समाज बनाने की ओर बढ़ना होगा.

  • नवजोत, पटियाला
    मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 7, मई-जून (संयुक्तांक) 2021 में प्रकाशित

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