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बैंकों का बढ़ता घाटा और पूंजीवादी संकट

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अक्टूबर-दिसंबर के 3 महीने में स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को 2,416 करोड़ का घाटा हुआ. उसके 25 हजार 836 करोड़ के कर्ज और डूब गए. कुल एनपीए अब 1 लाख 99 हजार करोड़ है, जिसमें वो शामिल नहीं जो पहले ही राइट ऑफ कर दिए गए हैं. कुल कर्ज का 10.35% अब एनपीए है और मेरा अनुमान है कि अभी यह ओर बढ़ेगा. हालांकि सरकार और रिजर्व बैंक मिलकर इसे छिपाने की कोशिश में जुटे हैं – दो दिन पहले ही बैंकों को छूट दी गई है कि कुछ छोटी-मध्यम कंपनियों के कर्ज को 6 महीने तक वसूली न होने पर ही एनपीए दिखाया जाये जबकि पहले 90 दिन तक वसूली रुकने पर ही एनपीए दिखाना होता था. घाटे का यह स्तर भी तब है जबकि बैंक ने अभी डूबे कर्ज से होने वाली हानि के 2 तिहाई से कम के लिए ही अलग राशि का इंतजाम किया है – अर्थात होने वाले घाटे के लिए प्रोविजन अभी 66% से कम हैं !

इसको कैसे समझा जाये ?

एसबीआई भारत की कुल बैंकिंग का एक चौथाई है अर्थात इसके नतीजों से पूरी अर्थव्यवस्था के बारे में निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं.

हुआ यह है कि पहली संकटग्रस्त कंपनियां तो अभी फंसी ही हैं, पर अब कुछ और नई कंपनियां आर्थिक संकट के दलदल में जा फंसी हैं – खास तौर पर स्टील और बिजली क्षेत्र में संकट ने कुछ और कॉर्पोरेट को निगल लिया है, जिसका नतीजा ये नए सिरे से बढ़ते एनपीए हैं. साथ ही नोटबंदी से बैंकों के पास सस्ते जमा का जो भंडार इकठ्ठा हुआ था, अब वह ख़त्म है. मोदी-जेटली और भाड़े के भोंपुओं के तमाम झूठे दावों के बावजूद अर्थव्यवस्था में नकदी लेन-देन पहले के स्तर पर जा पहुंचा है. सस्ते फंड के ख़त्म होने से बैंकों की सेहत में हुये नकली सुधार का दौर ख़त्म हो चुका है. जमा की तरलता के अभाव में ब्याज दर बढ़ने लगी हैं, उनके कम ब्याज दर वाले सरकारी बांड भी उतने फायदेमंद नहीं रहे, उनकी कीमतें भी गिर रही हैं.

पर संकट की वजह क्या है?

हालांकि भ्रष्टाचार की भी एक भूमिका है लेकिन मुख्य वजह पूंजीवादी व्यवस्था का गहराता आर्थिक संकट है. पहले कम आमदनी की वजह से उपभोक्ता मांग कम होती है, अति-उत्पादन अर्थात मांग से ज्यादा उत्पादन हो जाता है; इससे उद्योग में नया निवेश कम होता है जिससे फिर मशीनें, आदि पूंजीगत माल बनाने वाले उद्योगों में संकट आता है, स्टील-बिजली, धातुओं की मांग कम होती है. ये उद्योग भी संकट में आते हैं, इससे और बेरोजगारी तथा उपभोक्ता मांग में कमी और तीव्र होती है.

जहां अधिकांश गरीब मेहनतकश लोग खुद अभाव के बावजूद संकट में अक्सर दूसरे की थोड़ी-बहुत मदद करते हैं, वहीं चिकने-चुपड़े, मुस्कराते, ‘सुसभ्य’ दिखते पूंजीपति संकट के दौर में जंगली कुत्तों-भेड़ियों जैसे हो जाते हैं जो ज्यादा बरसात, सूखे, सर्दी में भोजन के अभाव में एक-दूसरे पर गुर्राते, झपटते ताकत भांपते हैं और जो जरा भी कमजोर पड़े बाकी सारे मिलकर उस पर टूट पड़ते, फाडकर खा जाते हैं. संकट के दौर में पूंजीपति भी अपने में से जिसे कमजोर पाते हैं, सब उस पर टूट पड़ते हैं, फाड डालते हैं, खून पी जाते हैं, लोथड़े निगल लेते हैं! वही दौर चल रहा है – जो कंपनी थोड़ा भी खुद को भुगतान में कमजोर पाती है, उसका यही हाल होता है – दिवालिया होकर बंद या कौड़ियों के दाम किसी मजबूत द्वारा निगला जाना.

इस संकट का नतीजा सिर्फ एसबीआई और सरकारी बैंकों में ही नहीं, अब बड़े सशक्त माने जाने वाले एचडीएफसी, आईसीआईसीआई, एक्सिस, यस, कोटक महिंद्रा बैंकों के नतीजों में भी प्रतिबिंबित हो रहा है. साथ ही कुछ दशक पहले की तरह यह संकट आ और जा नहीं रहा बल्कि एक दौर के ख़त्म होने की बातें करते करते नए संकट की आहट आ जा रही है !

@ मुकेश असीम के वाल से साभार

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