Home गेस्ट ब्लॉग बैंककर्मियों का हड़ताल : नफरत से भरा नागरिक निजीकरण का विरोध नहीं कर सकता है

बैंककर्मियों का हड़ताल : नफरत से भरा नागरिक निजीकरण का विरोध नहीं कर सकता है

28 second read
0
0
336

बैंककर्मियों का हड़ताल : नफरत से भरा नागरिक निजीकरण का विरोध नहीं कर सकता है

रविश कुमार

प्रधानमंत्री जी, बैंकरों की हड़ताल की चिन्ता न करें, बैंकर भी वोट धर्म के नाम पर ही देंगे. आज लाखों बैंक कर्मचारी हड़ताल पर हैं. सरकार बैंकों के निजीकरण के लिए संसद के इस सत्र में एक बिल लेकर आई है, जिसके बाद वह आराम से सभी सरकारी बैंकों में अपनी हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम कर सकेगी. सरकार इस साल दो बैंकों के निजीकरण से एक लाख करोड़ जुटाना चाहती है.

बैंक बेच कर विकास के सपने दिखाने वाली सरकार के शाही कार्यक्रमों को देखिए. प्रधानमंत्री के हर कार्यक्रम में करोड़ों फूंके जा रहे हैं ताकि हर दिन हेडलाइन बने. उन कार्यक्रमों में लोगों की कोई दिलचस्पी नहीं है इसलिए सरकारी योजनाओं के लाभार्थियों को पकड़-पकड़ कर बिठाया जाता है. बिहार में जैसे पकड़ुआ शादी होती थी उसी तरह मोदी जी के लिए पकड़ुआ कार्यक्रम हो रहे हैं. उस पर करोड़ों खर्च हो रहे हैं. उस खर्चे का कोई हिसाब नहीं है.

बहरहाल बैंकरों का दावा है कि सरकारी बैंको ने आम जनता की सेवा की है. बैंकर शहर का जीवन छोड़ ग्रामीण शाखाओं में गए हैं और लोगों के खाते खुलवाए हैं. प्राइवेट होने से आम लोगों से बैंक दूर हो जाएंगे. देश भर में लाखों बैंकर हड़ताल कर समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि 2014 के बाद से बैंकों का 25 लाख करोड़ का लोन NPA हुआ है, इसका मात्र पांच लाख करोड़ ही वसूला जा सका है.

ये लोग राजनीतिक दबाव में कारपोरेट को दिए जाते हैं और कारपोरेट को लाभ पहुंचाने के लिए इन लोन को किसी और खाते मेें डाल दिया जाता है फिर वहां से इसकी वापसी कभी नहीं होती है. होती भी है तो बहुत कम होती है. सरकारी बैंक नहीं रहेंगे तो दलित, पिछड़ों और अब तो आर्थिक रुप से कमज़ोर सवर्णों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा. बैंकों की नौकरियां भी कम होंगी.

बैंकों की इस हड़ताल को कोई कवर कर रहा है, इसे लेकर मुझे संदेह है. इन बैंकरों की दुनिया में गोदी मीडिया देखने वाले कम नहीं हैं. इसकी सज़ा सभी को भुगतनी है. सांप्रदायिक होने की सज़ा कुछ आज भुगतेंगे, कुछ दस साल बाद भुगतेंगे. इस माहौल की सज़ा उन्हें भी भुगतनी है जो सांप्रदायिक नहीं हैं. हम जैसे पत्रकार इसमें शामिल हैं. कितने पत्रकारों की नौकरी चली गई. धर्म के नाम राजनीति की इस गुंडई की सज़ा यह है कि आज देश में पत्रकारिता खत्म हो गई है इसलिए बैंकरों को इसका रोना नहीं चाहिए कि मीडिया कवर नहीं कर रहा है.

प्रधानमंत्री को भी इनकी परवाह नहीं करनी चाहिए. बैंकर या तो पुलवामा जैसी घटना पर भावुक होकर वोट देंगे या अगर प्रधानमंत्री किसी मंदिर में चले जाएं तो पक्का ही देंगे. जब इतना भर करने से वोट मिल सकता है तो प्रधानमंत्री को हड़ताल वगैरह का संज्ञान नहीं लेना चाहिए. मस्त रहना चाहिए.आम जनता उनसे धार्मिक होने की ही उम्मीद करती है. उनके समर्थक भी दिन रात लोगों को धार्मिक असुरक्षा की याद दिला रहे हैं, और उनका फोटो दिखा रहे हैं कि धार्मिक सुरक्षा इन्हीं से होगी.

अगर कोई बैंकर आर्थिक नीतियों की बात कर रहा है तो इसका मतलब है कि उसके व्हाट्स एप में नेहरु के मुसलमान होने या मुसलमानों से नफ़रत करने की मीम की सप्लाई नहीं हुई है. इसकी सप्लाई कर दी जाए, सब ठीक हो जाएगा. धर्म की राजनीति को 55 कैमरों की सलामी मिलती जा रही है. राष्ट्र गौरव प्राप्ति का जश्न मना रहा है और बैंकर इधर-उधर ताक रहे हैं कि कोई कैमरा वाला कवर करने आ रहा है या नहीं.

2

क्या आपको पता है कि निजीकरण के खिलाफ़ बैंककर्मियों ने हड़ताल करने के लिए दो दिन की सैलरी कटाई है. बैंकरों ने एक दिन की तीन-तीन हज़ार की सैलरी कटाई है. सभी कर्मचारियों ने दो दिनों की हड़ताल के लिए कितनी सैलरी कटाई है, हमें कुल राशि का हिसाब नहीं मिल सका लेकिन कुछ लोगों ने अनुमान के आधार पर बताया कि कम से कम एक हज़ार करोड़ तो दो दिन के कट ही जाएंगे. इसके पहले भी दो दिनों की हड़ताल में सैलरी कटी थी. तो क्या चार दिनों की हड़ताल के लिए बैंकरों ने दो हज़ार करोड़ का वेतन कटाया ?

कमाल का कमिटमेंट है. हज़ारों करोड़ रुपए की सैलरी कटा कर बैंकर हड़ताल कर रहे हैं और उम्मीद है जिन चैनलों को देखते हैं उन पर खूब कवरेज भी हुआ होगा. लेकिन मेरा बैंकरों से एक सवाल है. पिछले सात साल में बैंकरों के व्हाट्सऐप ग्रुप में हिन्दू मुस्लिम नफरत वाली मीम को लेकर कितने मैसेज साझा किए गए ? मॉब लिंचिंग और नफरत से जुड़े कितने मैसेजों को मैनेजर स्तर से ऊपर के अफसरों से साझा करते हुए सही ठहराया ? गोदी मीडिया के कार्यक्रमों को मैनेजर स्तर से ऊपर के कितने अधिकारी देखते हैं और साझा करते हैं ? मैनेजर स्तर से ऊपर के कितने कर्मचारी किसान आंदोलन के समय उन्हें आतंकी बताने वाले पोस्ट शेयर कर रहे थे ?

सांप्रदायिकता नागिरकता की जड़ में मट्ठा डाल देती है. नफरत से भरा नागरिक निजीकरण का विरोध नहीं कर सकता है. यह सवाल मैंने बैंकरों से इसलिए पूछा क्योंकि यही सवाल किसानों से पूछा था कि गांवों में उनके रहते हिन्दू मुस्लिम दंगे हुए. किसानों ने इसका जवाब भी दिया और भरे मंच से इसके लिए माफी मांगी.

कई बैंकरों ने कहा कि उनके व्हाट्सऐप ग्रुप में नफरती मैसेज फार्वर्ड नहीं होते हैं. मुश्किल है इसे स्वीकार करना फिर भी इसमें कोई शक नहीं कि दो दिन के छह हज़ार कटा कर हड़ताल में आना मामूली बात नहीं है. इसका मतलब है कि बैंकरों ने निजीकरण को लेकर काफी विचार विमर्श किया है.

ऑल इंडिया बैंक आफिसर्स कंफेडरेशन AIBOC ने 19 पन्नों की की एक रिपोर्ट तैयार की है, जिसमें हर बात का संदर्भ दिया गया है कि सरकार ने ऐसा कहा है या रिज़र्व बैंक और CAG की रिपोर्ट में ऐसा कहा गया है. इसके आधार पर बात रखी गई है कि कैसे सरकार उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए बैंकों को घाटे की तरफ धकेलती चली गई. अब बैंकिंग लॉ अमेंडमेंट बिल 2021 के ज़रिए अपनी हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम करने जा रही है ताकि ये बैंक उन्हीं निजी लोगों के हवाले कर दिए जाएं, जिन्होंने इन बैंकों को खोखला कर दिया है.

हाल ही में प्रधानमंत्री ने कहा था कि सरकारी बैंकों के पांच लाख करोड़ वसूले भी गए हैं जिसकी चर्चा कम होती है. इसके बारे में ऑल इंडिया बैंक आफिसर्स कंफेडरेशन AIBOC ने विस्तार से जवाब दिया है. बताया है कि 2014-15 से 2020-21 के बीच बैंको का NPA (नॉन परफार्मिंग असेट) 25 लाख 24 हज़ार करोड़ का हो गया है. इसमें से 19 लाख 4 हज़ार करोड़ NPA सरकारी बैंकों का है. 8 लाख करोड़ write off किया गया है. इसके कारण सरकारी बैंकों का घाटा बहुत बढ़ गया. 4 लाख 48 हज़ार करोड़ ही वसूले गए हैं वो भी सात साल में !

2014 से लेकर 2020-21 तक 25 लाख करोड़ का लोन NPA हुआ है. वापस कितना आया है करीब साढ़े चार लाख करोड़. क्या यह इतनी बड़ी उपलब्धि है कि प्रधानमंत्री को लगता है कि इस पर चर्चा नहीं हुई ? बैंकरों ने जो प्रेस रिलीज तैयार की है उसमें लिखा है कि 7 दिसंबर को राज्यसभा में वित्त मंत्रालय का जवाब है कि write off करना, एक रुटीन प्रक्रिया है. इससे कर्ज लेने वाले को फायदा नहीं होता है.

बैंकर कहते हैं कि दोनों ही बातें गलत है. बैंकरों का कहना है कि सरकार का ही जवाब कहता है कि 2016-17 से 2020-21 के बीच 25 लाख करोड़ के NPA में से सात लाख करोड़ Written Off किया गया है और इसमें से मात्र 86,986 करोड़ की वसूली हुई है. जाहिर है लोन लेने वाले को फायदा हुआ है. इन सवालों के जवाब में यूनियन नेता पंकज कपूर कहते हैं –

‘आज तक जो भी बैंकों में Bad लोन होते हैं, उसको NPA में Categorise कर दिया जाता है. उससे बैंक को कुछ अर्निंग नहीं हो रही. कोई इंटरेस्ट नहीं आ रहा. रिटेन ऑफ मतलब provisioning. इस एनपीए के अगेंस्ट बैंक को अपने प्रॉफिट में से जब 31 मार्च को उनको प्रॉफिट आता है उसमें से Provisioning करके Bad लोन वाले अकाउंट को राइट ऑफ करना होता है. क्रेडिट करना होता है. जब NPA अकाउंट एनसीएलटी उसके अंदर जाते हैं जो Bankruptcy कोड में जाते हैं जो रिकवर करता है.

इस कोड में आजतक क्या हो रहा है, जिस सोच के साथ ये गवर्नमेंट लेकर आई थी उसका बिल्कुल विपरीत हो रहा है. उसमे हेयर कट का नाम लेकर आए. ये कंसल्टेंट का टर्म है. जो मैकेंजी बोस्टन यूज करते हैं. हेयर कट 85% तक दे दिया जाता है. 95% तक अभी लास्ट केस जो हुआ है, दिया गया है हेयर कट. मतलब 95% हेयर कट हो गया. 5% ही लोन वाले को देना है. मुझे नहीं देना है मेरा कोई दोस्त या रिश्तेदार उसको परचेज कर लेगा 5% पर. ये बहुत बड़ा लूप होल है, तभी हम backruptcy कोड का भी विरोध कर रहे हैं. निजीकरण बहुत बड़ा फ्रॉड है पूरे देश के साथ. एंटी नेशनल है. एंटी कंट्री है. एंटी इकोनॉमी है. एंटी पब्लिक है.’

एक धारणा फैलाई गई है कि जब सरकारी बैंकों का लोन डूबने लगता है तो सरकार को जनता के पैसे से बचाना पड़ता है. EPW में इस सवाल को लेकर एक शोधपरक लेख छपा है. इस लेख में इंडियन इस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट अहमदाबाद में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर TT राम मोहन के अध्ययन का हवाला दिया गया है. लेख प्रोफेसर राम मोहन का नहीं है मगर उनके काम को कोट किया गया है.

प्रोफेसर राम मोहन का कहना है कि सरकार हमेशा से ही सरकारी बैंकों में पैसा डालती रही है. हर जगह की सरकार सरकारी बैंकों में पैसा डालती है. 2008, 2009 में ब्रिटेन की सरकार ने 4 लाख 50 हज़ार करोड़ रुपये डाले थे ताकि रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड को बचाया जा सके. दो साल में इतना पैसा डालना पड़ा. राम मोहन कहते हैं कि इतना पैसा तो जब से उदारीकरण शुरू हुआ है भारत सरकार ने डाला है. यानी भारत सरकार ने बीस साल में सरकारी बैंकों को बचाने के लिए कुछ खास पैसा नहीं डाला. राम मोहन का तर्क है कि यह धारणा भी गलत है कि प्राइवेट बैंकों के साथ ऐसा नहीं होगा. टैक्सपेयर को अपनी जेब से प्राइवेट बैंकों के लिए भी पैसे देने पड़ेंगे.

सरकार को नाम लेकर बताना चाहिए, ठीक उसी तरह से जैसे आम लोगों के लोन न चुकाने वाले बैंक वाले चले जाते हैं ताकि मोहल्ले में उसे शर्मिंदा किया जा सके. लोन ज़बरन दिए जाने के कारण डूब रहे हैं. डुबाने वाले को राजनीतिक संरक्षण दिए जाने के कारण लोन डूब रहे हैं इसलिए बैंकों की हालत खराब है.

यह सही है कि सरकारी बैंकों के कारण आम लोगों तक बैंकिंग पहुंचा है और लोन मिला है. जनधन खातों का 97 प्रतिशत हिस्सा सरकारी बैंकों में है. प्राइवेट बैंकों ने क्यों तीन प्रतिशत ही जनधन खाते खोले. 43 करोड़ खातों को खोल देना सामान्य बात नहीं है. आज ही यानी 16 दिसंबर को सरकार ने लोकसभा में बताया है कि प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना के तहत स्ट्रीट वेंडर को प्राइवेट बैंकों ने कितने कम लोन दिए हैं. जितना लोन दिया गया है उसका 1.77 प्रतिशत.

बैंक कर्मचारियों को नोटबंदी जैसे विचित्र फैसले भी लागू करने पड़े. अचानक इतना नोट आ गया कि गिनने में गलती हुई और कई कैशियरों ने उतना पैसा अपनी जेब से भरा. देश बैंकरों के इस योगदान को भूल गया लेकिन मैं याद दिलाता रहता हूं.

कैशियरों को जो नुकसान हुआ है उसके लिए नेहरू को इस्तीफा देना ही चाहिए लेकिन अच्छी बात है कि नोटबंदी में बैंकरों के योगदान को लेकर प्रधानमंत्री ने प्रशंसाओं में श्रेष्ठ प्रशंसा अर्थात भूरी भूरी प्रशंसा की थी. ये भूरी भूरी प्रशंसा मुझे बहुत पसंद है, क्योंकि आज तक किसी ने मेरी भूरी भूरी प्रशंसा नहीं की है. नोटबंदी के समय बैंकरों के योगदान की प्रशांसा करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था –

‘बैंक कर्मचारियों ने इस दौरान दिन-रात एक किए हैं. हजारों महिला बैंक कर्मचारी भी देर रात तक रुककर इस अभियान में शामिल रही हैं. पोस्ट ऑफिस में काम करने वाले लोग, बैंक मित्र, सभी ने सराहनीय काम किया है. इतिहास गवाह है कि हिंदुस्तान के बैंकों के पास एक साथ इतनी बड़ी मात्रा में, इतने कम समय में, धन का भंड़ार पहले कभी नहीं आया था. बैंकों की स्वतंत्रता का आदर करते हुए मेरा आग्रह है कि बैंक अपनी परंपरागत प्राथमिकताओं से बाहर निकलकर अब देश के गरीब, निम्न मध्य वर्ग औऱ मध्यम वर्ग को केंद्र में रखकर अपने कार्य का आयोजन करें.’

ठीक यही दलील अपनी जेब से 2000 करोड़ देकर हड़ताल करने वाले बैंकर दे रहे हैं कि सरकारी बैंक ही किसान, गरीब, दलित, महिलाओं को लोन देते हैं. लघु मध्यम स्तर के उद्योगों को लोन देते हैं. इनके पास जो भी लोन है उसका बड़ा हिस्सा सरकारी बैंकों का है. अगर बैंकों का निजीकरण होगा तो गरीब और निम्न मध्यम वर्ग तक लोन की पहुंच नहीं हो पाएगी.

बैंक यूनियनों का कहना है कि सरकारी बैंकों के विलय के कारण उनकी संख्या 27 से घट कर 12 पर आ गई है. इससे नौकरियों की संख्या कम होगी और आरक्षण का लाभ कम होगा. बैंक यूनियन का दावा है कि बैंकों के 80,000 पद कम हो गए हैं. बैंकों के विलय से 3000 से अधिक ब्रांच कम हो गए हैं. क्या बैंकर इन बातों को लेकर मिडिल क्लास को समझा पाएंगे ? अगर नहीं तो उनकी हड़ताल से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. जो मिडिल क्लास इस बात से संतुष्ट है कि मिडिल क्लास के कैपिटल शहर गुरुग्राम में लोग मुसलमानों को नमाज़ पढ़ने से इस तरह रोक रहे हैं, वह इस बात से क्यों असंतुष्ट होगा कि सरकार बैंकों का निजीकरण कर रही है ? dear bankers, do you get my point.

बैंक यूनियन का दावा है कि हड़ताल में 9 लाख बैंकर शामिल हो रहे हैं. मैं ये प्राइम टाइम views के लिए नहीं कर रहा क्योंकि जब भी बैंकरों पर कार्यक्रम किया है, यू-ट्यूब पर कम ही व्यू मिले हैं. इस कार्यक्रम के भी नौ लाख व्यूज़ तो नहीं मिलेंगे जबकि किसी गोदी मीडिया ने प्राइम टाइम में बैंक हड़ताल पर विस्तार से कार्यक्रम नहीं किया होगा.

मैं यह कार्यक्रम इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मैं बैंकरों से सांप्रदायिकता और गोदी मीडिया को लेकर सवाल करना चाहता था. किसानों ने भारत बंद किया तो उसके बाद देश से माफी भी मांगी कि हमें अफसोस है कि ऐसा करना पड़ा. यह एक तरीका था समाज से जुड़ने का. बैंकरों को रिस्क लेकर भीतर चल रहे खेल के बारे में जनता को बताना पड़ेगा कि किस कारपोरेट पर मेहरबानी चल रही है. उन्हें डर लगता है तो वे किसानों को ऑफ रिकार्ड बता दें फिर किसान सारे देश को ऑन रिकॉर्ड बता देगें. किसानों को डर नहीं लगता है.

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…