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बैन की राजनीति यानी भयदोहन का आज़माया हुआ हथियार

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बैन की राजनीति यानी भयदोहन का आज़माया हुआ हथियार

Subrato Chatterjeeसुब्रतो चटर्जी

यहां बैन की राजनीति चल रही है. दिवाली में पटाखे बैन. दुर्गा पूजा में पंडाल बैन. छठ में घाट पर पूजा बैन. गुजरात, बिहार में शराब बैन. सच बोलने वाली किताबें बैन (लज्जा). सच दिखाने वाली फ़िल्में बैन. सोशल मीडिया बैन. इंटरनेट बैन. सच दिखाने वाला टीवी चैनल बैन. सच लिखने वाला पत्रकार बैन. बिना वैक्सीन लिए विदेश यात्रा बैन… बैन की राजनीति यानी भयदोहन का आज़माया हुआ हथियार.

क्या आपने कभी सोचा है कि लोकतंत्र की आत्मा नागरिक की आज़ादी में बसती है ? क्या आपने कभी सोचा है कि लोकतांत्रिक तरीक़े से चुनी हुई सरकारों को किसने हक़ दिया है कि वे निर्धारित करें कि हम क्या पहनेंगे, क्या खाएंगे, कहां जाएंगे और किस तरीक़े से अपने त्योहार मनाएंगे ?

क्या दुनिया की कोई भी लोकतांत्रिक दल इन नारों पर कोई भी चुनाव जीत सकती है कि अगर वे जीत गए तो किन किन चीजों पर बैन लगाएंगे ?

महामारी एक्ट के बहाने लोगों की आज़ादी छीनने की बात हो अथवा, तथाकथित पर्यावरणविदों द्वारा पटाखे बैन करने की बात हो, हर स्थिति में एक स्वयंभू गिरोह अपने को नागरिक स्वतंत्रता का नियंत्रा मानकर हमारी आज़ादी के मायने ही बदलने की कोशिश में लगे हैं.

सरकारों की स्थिति तो और विचित्र है. ख़ूंख़ार हत्यारे और अपराधियों के गिरोह पूंजीपतियों की सहायता से गद्दी हथियाकर लोकतंत्र को दफ़्न कर हमें अपने अधिकारों का पाठ पढ़ा रही है. इतना ही नहीं, एक तड़ीपार गुंडा सुप्रीम कोर्ट को उसकी औक़ात बता रहा है.

बैन की राजनीति दरअसल भयदोहन का आज़माया हुआ हथियार है. अब देखिए, कोरोना का भय दिखा कर ट्रेनों में बिस्तर और भोजन की सुविधा छीन ली गई और किराया भी बढ़ा दिया गया. हवाई यात्रा में भी यही हाल है.

लोकतंत्र एक evolving process यानि उन्नत होती प्रक्रिया है. ठीक इसी तरह, अपने कर्तव्य बोध के क्रमिक विकास के साथ-साथ अपने अधिकारों के प्रति बढ़ती हुई चेतना एक विकासशील लोकतंत्र की मूल आवश्यकता है इसलिए, ट्रेन में बिस्तर, भोजन, सीनियर सिटिज़न के लिए रियायत तथा अन्य रियायतें और सुविधाओं का छीने जाने को हमें अपनी नागरिकता के ह्रास के साथ जोड़ कर देखना होगा.

ठीक इसी तरह बदले गये श्रम क़ानूनों, कृषि क़ानूनों और निजीकरण को भी हमें अपने नागरिक अधिकारों पर कुठाराघात के रुप में समझना होगा.

भारत एक नया लोकतंत्र है, लेकिन इस नए लोकतंत्र में 2014 के पहले अनेक ऐसी संस्थाएं और क़ानून बने जिन्होंने हमें एक बेहतर और साधन संपन्न नागरिक होने में मदद की. RTI बस एक उदाहरण है. स्वतंत्र न्यायपालिका और चुनाव आयोग भी इसी कड़ी में आते हैं. 2014 के बाद स्थितियां तेज़ी से बदली. हम एक ऐसे राष्ट्र में विघटित होते रहे जिसमें सरकार का काम केवल लूटना, छीनना, तोड़ना, लड़ाना, झूठ बोलना और सारे सांविधानिक संस्थाओं को ख़त्म करना रह गया.

कॉंग्रेस ने एक हद तक राजनीति का अपराधीकरण किया था, भाजपा ने अपराधियों का राजनीतिकरण कर दिया, यही फ़र्क़ है. कॉंग्रेस में भी हत्यारे और बलात्कारी चुनाव जीत कर आते हैं, लेकिन भाजपा की तरह प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और मुख्यमंत्री नहीं बनते. जब तक आप इस फ़र्क़ को नहीं समझेंगे तब तक आपको दोनों एक ही दिखेंगे लेकिन ऐसा है नहीं.

अब बैन की राजनीति पर लौटते हैं. गुजरात और बिहार को शराब बैन करने से कितना आर्थिक नुक़सान हुआ, और कितना सामाजिक और चुनावी लाभ हुआ यह एक अलग विश्लेषण का विषय है, लेकिन इतना तो तय है कि इससे दोनों राज्यों के निवासियों को पीने की आदत नहीं गई. इसके उलट, दोनों प्रांतों में शराब की तस्करी बढ़ गई और पुलिस और आबकारी विभाग की आमदनी भी बढ़ी.

अब इस बढ़ी आमदनी का कितना हिस्सा नेता लोगों को पहुंचता है, इसे समझने के लिए आपको मुंबई ड्रग केस और मुंद्रा पोर्ट पर पकड़े गए तीन हज़ार किलो हेरोइन के मामले पर पैनी नज़र रखने की ज़रूरत है.

पटाखों के बैन से पर्यावरण कितना शुद्ध हुआ, इस पर पर्यावरण वैज्ञानिक बात करें तो बेहतर है, मुझे बस इतना मालूम है कि इस बैन से शिवाकाशी के पटाखे उद्योग को अपूरणीय क्षति हुई है. ख़ास कर जब इस उद्योग से जुड़े मुसलमानों की रोज़ी रोटी छिन रही हो तो हिंदू राष्ट्र के पैरोकारों को असीम विकृत आनंद की प्राप्ति हो रही है.

गो-हत्या निवारक क़ानून से भले ही यूपी के किसानों की खेती चौपट हो रही हो लेकिन राष्ट्रवादियों के लिए पहलू खान की हत्या का रास्ता भी साफ़ हो जाता है.

इसी क्रम में किताबों और सोच पर बैन लगाने से गौरी लंकेश और पनसरे मारे जाते हैं और नागरिक अधिकार के सवाल उठाने पर सुधा भारद्वाज सरीखों की न्यायिक हत्या के लिए जेल के दरवाज़े खुल जाते हैं. ज़रूरत बैन की राजनीति को समझने की है, सोचिएगा ज़रूर.

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ROHIT SHARMA

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