विनोद शंकर
झारखंड की रघुवर दास सरकार का कहना था कि महुआ से बड़े पैमाने पर शराब बन रहे हैं, जिसके चलते सरकार के राजस्व में भारी कमी आयी है. यहां महुआ से शराब निर्माण कूटीर उद्योग बन गया है, इससे सरकार को अरबों रूपये का नुकसान हो रहा है इसलिए महुआ को मादक पदार्थ-घोषित कर ही शराब चुलाने पर रोक लगायी जा सकती है. इस संबंध में मद्यनिषेध और उत्पाद विभाग ने प्रस्ताव तैयार कर लिया है. उत्पादन सलाहकार समिति ने जो अनुशंसा की है उसके मुताबिक महुआ की अवैध शराब उत्पादन के कारण राजस्व नष्ट हो रहा है. उनका कहना था कि यह कैंसर का रूप धर लिया है. गांव व शहरों में इसकी बिक्री कूटीर उद्योग की तरह हो रही है.
सरकारी रिपोर्ट के अनुसार जनजातीय संस्कृति को बचाये रखने के लिए महुआ वृक्ष के स्वामी (अनुसूचित जनजाति) बिना किसी लाइसेंस के महुआ फूल का भंडारण कर सकते हैं, परन्तु वह प्रति एकल परिवार पन्द्रह किलोग्राम से अधिक नहीं रख सकते. अगर मंत्रीमंडल समूह महुआ फूल को मादक पदार्थ घोषित करने के प्रस्ताव को पास कर देती है और राज्यपाल का मुहर लग जाता है, तब यह झारखंड के आदिवासियों पर अत्याचार होगा.
यह कानून बन जाने से महुआ फूल के उत्पादन एवं संग्रह और व्यापार से जुड़े लाखों लोगों की परेशानी बढ़ जायेगी. दरअसल झारखंड सरकार शराब निर्माण में लगे देशी-विदेशी कंपनियों, शराब ठेकेदारों एवं शराब माफियाओं को आगे बढ़ाने तथा लाभ देने के लिए महुआ को मादक पदार्थ के रूप में प्रचारित कर रही है तथा इसके लिए एक दैत्यकार कानून लाने को व्यग्र है.
हालांकि सरकार के इस आदिवासी विरोधी नीति की कई संगठनों ने खिलाफत की है. सभी आदिवासी संगठनों ने इस कानून के खिलाफ आन्दोलन करने की धमकी दी है. नेशनल अलायंस ऑफ वूमेन (नाओ) की वासवी किड़ों ने सरकार द्वारा महुआ को मादक पदार्थ की श्रेणी में रखे जाने के प्रस्ताव पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है. उन्होंने मांग की है कि महुआ का ‘लैब टेस्ट‘ होना चाहिए.
बेअसर नीति
बिहार में 5 अप्रैल, 2016 से ‘मद्यनिषेध और उत्पाद विधेयक- 2016′ लागू है. इस कानून के तहत पांच किलो से ज्यादा महुआ एक व्यक्ति के पास पकड़ा जाता है तो उसे उपर्युक्त कानून के अन्तर्गत उम्रकैद से लेकर कम से कम पांच वर्ष तक की सजा हो सकती है. बावजूद इसके आज बिहार में महुआ से शराब बनाने का धंधा कुटीर उद्योग का रूप धारण कर लिया है.
अब तक दसियों लाख लोग इस कानून के तहत गिरफ्तार हो चुके हैं तथा हजारों लोगों का इस प्रकार के अवैध शराब को पीने से मौत हो चुकी है. फिर भी महुआ से शराब बनाने का धंधा यहां खुब फल-फूल रहा है. महुआ के तस्कर मालो-माल हो रहे हैं और मालामाल शराब के डिलिवरी देने वाले माफिया भी हो रहे हैं. चौकीदार से लेकर थानेदार, एसपी तक खुब रूपया पीट रहे हैं. अगर झारखंड में भी महुआ को मादक पदार्थ घोषित किया जाता है तो इसका नजारा बिहार से भी बदतर होगा.
महुआ को मादक पदार्थ घोषित कर मद्यनिषेध या शराब निर्माण से सरकारी राजस्व की बढोत्तरी होगी की नीति सफल नहीं होगी. यह एक दिवास्वप्न के अलावा और कुछ नहीं है, इससे समस्या का समाधान नहीं बल्कि जटिलता बढ़ेगी. उक्त समस्याओं का हल है कि महुआ का वैकल्पिक प्रयोग को बड़े पैमाने पर बढ़वा दिया जाय. महुआ से बायो-डीजल एवं एथनॉल निर्माण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित किया जाय तथा अन्य खाद्य सामाग्री निर्माण को बढ़ावा दिया जाय.
बिहार में महुआ मादक पदार्थ घोषित
बिहार में नीतीश कुमार की सरकार ने जो ‘बिहार मद्यनिषेध और उत्पाद विधेयक-2016′ बनाया है उसमें महुआ को मादक पदार्थ की श्रेणी में रखा है, जबकि सरकार ने अब तक इसका ‘लैब टेस्ट’ तक नहीं करवाया है. बिना किसी जांच के महुआ को मादक पदार्थ घोषित करना सरकार के तानाशाही पूर्ण रवैया है. दरअसल महुआ को मादक पदार्थ घोषित करना नीतीश सरकार की एक सनक है. इस सरकार की शराब बंदी कानून की न तो नीति सही है और न नियत.
जैसा कि यह सर्वज्ञात तथ्य है कि महुआ जंगल में रहने वालों की अर्थव्यवस्था से जुड़ी हुई चीज है. यह केवल शराब बनाने की वस्तु नहीं है. आज महुआ का कई तरह का उपयोग किया जा रहा है, जिसका विस्तारित विवरण पहले ही रखा जा चुका है. बिहार मद्यनिषेध और उत्पाद विधेयक -2016 पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए बांके बाजार लुटूआ थाना के असुराइन गांव के गनौरी भूइयां कहते हैं –
‘महुआ हमारा नगदी फसल है. यह हमारा भोजन भी है और औषध भी. परन्तु दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि बिहार में जब से शराब बंदी कानून लागू हुआ है, तब से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महुआ के फूल को चुनने, रखने व बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया है. नये कानून के मुताबिक अब हम पांच किलोग्राम से ज्यादा महुआ नहीं रख सकते, जबकि एक पेड़ में दस किलोग्राम से लेकर डेढ़ सौ किलोग्राम तक फूल गिरता है.
‘शराबबंदी के पहले महुआ का फूल बेचकर हम आदिवासी, गरीब, भूमिहीन जनता लोग अच्छा पैसा इकठ्ठा कर लेते थे, जिसके बदौलत बेटा-बेटी की शादी-विवाह का काम बड़ी आसानी से निपट जाता था, कर्जा-पंइचा भरा जाता था, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई में काम आता था या फिर कृषि कार्य में बतौर पूंजी के रूप में निवेश किया जाता था. नीतीश सरकार द्वारा रोक लगा दिये जाने के बाद अब महुआ खरीदने वाले व्यापारी गांव में नहीं आते और बजार के व्यापारी भी अब डर से नहीं खरीदते. फलतः हम गरीब लोगों की आय का एक बड़ा स्त्रोत सूख गया है.
‘जब-जब चुनाव आता है, तब नेताओं द्वारा कहा जाता है कि – ‘हम गरीब जनता के हित में सरकार चलायेंगे’, पर जीतने के बाद जो भी नेता सरकार बनाते हैं, वे अमीरों और पूंजीपतियों के हित में काम करने लगते हैं. यानी शोषित-श्रमिक गरीब जनता के खिलाफ काम करने लगते हैं, जिसका जीता-जागता उदाहरण यह शराबबंदी कानून है. शराबबंदी कानून में महुआ पर प्रतिबंध लगाकर नीतीश कुमार ने हम गरीबों के पेट पर लात मारी है. इस कानून द्वारा घर आयी लक्ष्मी को हमसे दूर कर दिया गया है.’
रोहतास जिला का रोहतास थाना अंतर्गत एक गांव है भवनवा. बीस-पच्चीस घर की यह बस्ती है. यहां के नेपाली चेरो कहते हैं –
‘हमारे गांव में प्रति वर्ष एक हजार क्विंटल महुआ का उत्पादन होता है. यहां के लोग वन विभाग, बिहार सरकार एवं अपनी निजी जमीन से एक हजार क्विंटल महुआ फूल चुनते हैं. इस वर्ष 2021 के सीजन में ₹30/- किलो महुआ बिका है, इस हिसाब से इस गांव के लोगों का कुल 30 लाख रूपये की आमदनी हुई, यानी औसतन हर घर को एक लाख रूपया. हालांकि यही महुआ जुलाई 2021 में व्यापारी वर्ग साठ रूपये किलो बेच रहे हैं. एक दम दिन के उजाले की तरह साफ है कि बिहार के नेताशाही और नौकरशाही के सनक के चलते जंगल और उसके आसपास रहने वाले लोगों का भारी आर्थिक चपत लग रही है.’
जैसा कि हम सब जानते हैं आज का भारत तीन तरह का है. एक शहर का भारत जो गुलजार है, दूसरा गांव का भारत जो आधा नरक है और तीसरा जंगल का भारत जो हर चीज से महरूम, उपेक्षित व वंचित है. आज जंगल का भारत ही सबसे दीन-हीन हालत में है और सबसे ज्यादा शोषण और दमन का शिकार भी. महुआ जंगल के भारत का ही वनोपज है, इसलिए ही महुआ के साथ ऐसा सलूक हो रहा है. नवादा जिला के सामाजिक कार्यकर्ता दिनेश कुमार अकेला का यही कहना है.
बिहार के नीतीश सरकार का कहना है कि महुआ से शराब बनता है, इसीलिए इसको मादक पदार्थ घोषित किया गया है तथा इसका संग्रह करने एवं व्यापार करने पर प्रतिबंध लगाया गया है. तब प्रश्न उठता है कि शराब तो चावल, गेहूं, जौ, जई, गुड़, गन्ना का रस, केला, संतरा, अंगूर एवं किशमिश से भी बनता है, इस पर रोक क्यों नहीं लगायी गई ? इसे मादक पदार्थ क्यों नहीं घोषित किया गया ?
बात बिल्कुल साफ है कि ये सब बड़े-बड़े कंपनियों, धनी किसानों, फार्मरों, जमींदारों तथा कारपोरेट कंपनियों द्वारा उपजाया जाता है और अमीरों तथा खाये-पीये अघाये मध्यम वर्ग द्वारा उपयोग किया जाता है तथा यह ऐसे ही लोगों का भोजन है, जबकि महुआ वनोत्पाद है जो गरीबों द्वारा इकठ्ठा किया जाता है और उनके ही उपयोग की यह वस्तु है और आय की भी. यह उनका भोजन भी है और औषध भी इसलिए ही इसे मादक पदार्थ घोषित किया गया है.
शीशे की तरह एकदम साफ है कि आजकल सारे आफत गरीबों, आदिवासियों, दलितों, शोषितों एवं श्रमिकों पर ही ढ़ायी जाती है. ‘कदुआ पर सितुअ चोख’ वाली कहावत झूठ नहीं है. चाहे जिस भी पार्टी की सरकार हो वह अपने अंर्तवस्तु में अमीरों, पूंजीपतियों एवं उंची जाति व उंचे वर्गों की ही होती है और है भी, सो गरीबों पर जुल्म करेंगी ही.
महुआ से शराब बनता है यह एक बोगस बात है, थोथा तर्क है. यह अर्द्धसत्य, तथ्यहीन, आधारहीन व अनर्गल प्रलाप है. यह धर्मराज उवाच के अलावा और कुछ भी नहीं है. आवें, तथ्यों की तहकीकात करें –
गया-औरंगाबाद की सीमा पर एक पहाड़ी है जो चाल्हो पहाड़ के नाम से विख्यात है. कभी यह नक्सलवादियों का अड्डा हुआ करता था, पर आज कल यह शराब उत्पादन का ‘हब’ बना हुआ है. इस छोटी सी पहाड़ी पर एक सौ से ज्यादा शराब चुलाने की भठ्ठी कार्यरत है. इस धंधे में सैकड़ों लोग लगे हुए हैं. एक व्यक्ति नाम नहीं छापने के शर्त पर बताते हैं कि –
‘दस किलो महुआ में चालीस किलो गुड़ मिलाकर सड़ाते हैं, जिससे 50 लीटर फूली दारू तैयार होता है. यह दारू 100 रूपये लीटर हम व्यापारी के हाथों में बेच देते हैं. व्यापारी एक लीटर दारू में पांच लीटर पानी मिलाकर मनमानी कीमत पर बेचते हैं. हमें प्रति टीप दो से ढ़ाई हजार रूपये की बचत होती है, जो महीना में 25-30 हजार के आसपास आय होती है. इसी आय में से चौकीदार से लेकर थानेदार तक को रिश्वत देना पड़ता है.
‘प्रतिमाह एक हजार रुपया चौकीदार लेता है और ₹5000 थानेदार. मेहनत व खर्च के वनिस्पद फायदा कम है, सर, फिर रिस्क भी बहुत है – महुआ-गुड़ खरीदने से लेकर माल डिलवरी तक में. माल पहाड़ से उतार कर व्यापारी के नियत जगह पर पहुंचानी पड़ती है. घुस देने के बावजूद पुलिस द्वारा पकड़े जाने का भय बना रहता है. कभी महुआ, गुड़ पकड़ा जाता है तो कभी यंत्र व बर्तन भी तोड़ दिये जाते हैं. मजबूरी में यह धंधा कर रहा हूं, सर !’
उपरोक्त तथ्य से दो बातें स्पष्ट होती है – पहला, आजकल शराब निर्माण में महुआ का स्थान गौण है, मुख्य स्थान गुड़ का है क्योंकि गुड़ सस्ता और महुआ महंगा है, तब क्या नीतीश कुमार गुड़ को मादक पदार्थ घोषित करेंगे ? असंभव ! दूसरी बात आमजन महुआ का अधिकांश उपयोग भोजन और औषधी के रूप में करते हैं न कि शराब के रूप में. शराबबंदी कानून के चलते ही महुआ-गुड़ से शराब बनाने का धंधा जोर पकड़ा है. इस कानून के पूर्व बिहार में महुआ और गुड़ का इतना मांग नहीं था और न इतना यह मंहगा था.
सनद रहे कि महुआ का संग्रह से लेकर भण्डारण तक में तथा इससे विभिन्न प्रकार के बायो प्रोडक्टस बनाने के काम में महिलाएं ही लगी हैं. बिलकुल स्पष्ट है कि महुआ जंगल व उसके आस पास रहने वाली आदिवासी, दलित एवं गरीब महिलाओं के सशक्तिकरण का एक आयाम है, सो महुआ के व्यवसाय को आगे बढ़ाकर ही हम कई मोर्चा पर लड़ सकते हैं.
बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार महुआ का विभिन्न किस्म के खाद्य पदार्थ तैयार करके तथा उससे बायो-डीजल एवं एथनॉल तैयार करके ही हम शराब पर पाबंदी लगा सकते हैं न कि महुआ फूल पर पाबंदी लगाकर. आजकल छत्तीसगढ़ सरकार महुआ से बायो-डीजल, एथनॉल एवं पिट्रोल तैयार करवाने की प्रक्रिया में आगे बढ़ रही है.
ज्ञात हो कि पूर्ण शराबबंदी के बाद लोग ‘कफ सिरप’ को नशा के लिए उपयोग कर रहे हैं. यह बात एवं घटना को सभी कोई जानतें हैं और सरकार तथा इसके आला अफसर भी जानते हैं, फिर भी कफ सिरप के निर्माण एवं बिक्री पर कोई प्रतिबंध नहीं है, आखिर क्यों ? इसके साथ ही पलटा प्रश्न यह भी है कि तब सिर्फ महुआ फूल पर ही प्रतिबंध क्यों ? इसका उत्तर एकदम साफ है और वह यह है कि महुआ गरीबों के जीवन और जीविका से तथा यह उनके अर्थव्यवस्था से भी जुड़ा है, इसी कारण इस पर हमला किया जा रहा है. ठीक ही कहा गया है- ‘गरीब की लुगाई सबकी भौजाई.’
कफ सिरप के बारे में महत्वपूर्ण बात यह है कि इसे बड़ी-बड़ी दवा कंपनियां बनाती हैं और ये कंपनियां चुनावी चंदा एवं बॉण्ड के रूप में सत्ताधारी दल समेत सभी विपक्षी संसदीय दलों को मोटी रकम देते हैं. इसी कारण उनके उत्पाद पर रोक नहीं लगती. यह अन्याय नहीं तो और क्या है ? यह जनता की नहीं पूंजीपतियों की राज है.
उपर्युक्त तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि महुआ मूलतः पेय नहीं ठोस भोज्य पदार्थ है. यह जंगल में रहने वाले गरीबों का जीवन-जीविका का स्रोत है. वस्तुतः महुआ फूल पर प्रतिबंध इनके आर्थिक गतिविधियों, धार्मिक जीवन, रीति-रीवाज, पूजा-पाठ, पर्व-त्योहार, शादी-विवाह, मृत्युभोज एवं सभी प्रकार के उत्सव एवं संस्कृतिक जीवन पर हमला है. यह आदिवासियों के आत्मनिर्भर समाज व उनके स्वभिमानी जीवन पर आक्रमण है. महुआ को चुनने, खरीदने-बेचने व पांच किलो से अधिक रखने पर रोक लगाना आदिवासियों, दलितों, गरीबों और खासकर महिलाओं के छाती पर मुंग दलने के समान है.
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