गंगा-जमुनी धारा को तलवार से काट कर बांटा नहीं जा सकता, इन चुनावों में हिंदुत्व की इस विचार धारा की जीत हुई है और तरह-तरह से दहशत फैला कर इस गंगा-जमुनी संस्कृति को चोट पहुंचाने वाले तथाकथित हिंदुत्ववादियों के प्रयासों की हार. क्योंकि 2014 के बाद कम-से-कम दो सैंकड़ा से ज्यादा हुई ऐसी घटनाओं को मतदाताओं ने कोई महत्व नही दिया, यह इन चुनावों में स्पष्ट दिखा.
मेरा पूरा विश्लेषण राजनेताओं की व्यक्तिगत सफलता या विफलता पर आधारित न होकर मतदाताओं की उस सोच पर आधारित है, जिसके अधीन उसने वोट किया है. हिंदी हृदय स्थल ने स्पष्ट संदेश दिया है कि उसे सत्ता का “कांग्रेस मुक्त भारत“ अभियान कतई पसंद नही है. साथ ही उसने “आस्था“ के विषय को राजनीति के केंद्र में लाने के प्रयासों को भी पूरी तरह नकार दिया है.
गंगा-जमुनी धारा को तलवार से काट कर बांटा नहीं जा सकता, इन चुनावों में हिंदुत्व की इस विचार धारा की जीत हुई है और तरह-तरह से दहशत फैला कर इस गंगा-जमुनी संस्कृति को चोट पहुंचाने वाले तथाकथित हिंदुत्ववादियों के प्रयासों की हार. क्योंकि 2014 के बाद कम-से-कम दो सैंकड़ा से ज्यादा हुई ऐसी घटनाओं को मतदाताओं ने कोई महत्व नही दिया, यह इन चुनावों में स्पष्ट दिखा.
बीजेपी को उम्मीद रही होगी कि योगी जी हजारों साल पुराने हिंदुत्व की इस परिभाषा को बदल देंगे, निराशाजनक ही साबित हुआ है. भविष्य में भी फायदा नहीं मिलेगा, यह सन्देश भी इन चुनावों ने दिया है.
बीजेपी सरकारों की कमियों की चर्चा करने वाले हिंदुओं की पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा सार्वजनिक उपहास उड़ाने की प्रवृत्ति ने भी, बहुत से हिन्दू वोटरों को जिन्होंने 2014 में बीजेपी को वोट दिया था, ने 2018 में बीजेपी से दूर और कांग्रेस की गोद में डाल दिया.
हिंदी हृदय स्थल ने 2014 में कांग्रेस के सफाये की अपनी गलती को सुधारा है और हिंदी हृदय प्रदेशों के मतदाताओं ने एक स्पष्ट निर्णय सुनाया है कि आस्था उनका निजी विषय है, किसकी सच्ची है किसकी झूठी, कोई जनेऊ पहने न पहनें, रोली, चन्दन का टीका माथे पर लगाये न लगाएं, मंदिर जाय न जाये, मूर्ति पूजा करे न करे, मन्दिर भी जाये गिरजाघर और मस्जिद भी, नवरात्र का व्रत भी करे और रोजा भी रखे वगैरह वगैरह; इस पर किसी तीसरे का टीका-टिप्पणी करना, छींटाकसी करना, उपहास उड़ाना, और वो भी सत्ता के राजनीति के शिखर पर बैठे जिम्मेदार लोगों द्वारा, आमजन को कतई पसंद नहीं आया.
एक बात और इन राज्यों के मतदाताओं ने सेकुलरिज्म (धर्म निरपेक्षता) की हिंदुत्ववादी परिभाषा को पूरी तरह नकार दिया है, जिसके अनुसार एक आस्था विशेष के बहुसंख्यकों के साथ उ.प्र. सहित इन राज्य सरकारों के कर्ता-धर्ताओं की खुल्लम-खुल्ला भागीदारी को नैतिक और संवैधानिक रूप से सही बताने के तमाम प्रयास किये जाते रहे हैं. मतदाताओं को सेकुलरिज्म की संवैधानिक परिभाषा ही स्वीकार है.
प्रधानमंत्री की योजनाओं जैसे स्वयं सहायता समूह की महिलाओं के सशक्तिकरण, उज्ज्वला योजना आदि-आदि के लाभार्थियों को जिला प्रशासन द्वारा सीखा-पढ़ा कर प्रधानमंत्री या अन्य बीजेपी नेताओं के साथ मंच पर लाने के आयोजनों को भी आम लोगों ने पसंद नहीं किया. इसका फायदा नहीं नुकसान ही हुआ. कमोंवेश यही प्रदर्शन निचले स्तर पर जिलों में दुहराया गया, इसका भी कोई फायदा इन राज्यों में नहीं मिला है. भविष्य में मिलेगा इस पर संशय करने की बहुत गुंजाइश है.
इन राज्यों के मतदाताओं को अभी उम्मीद है कि 2019 के लोकसभा चुनाव से पूर्व, आने वाले समय में बीजेपी अपनी राह बदलेगी. इन चुनाव नतीजों से उत्साहित होकर लोकसभा के चुनाव के परिणामों का सटीक आंकलन नहीं किया जा सकता.
खेत, खलिहान-किसानों के मुद्दे, शिक्षित युवकों में फैली बेरोजगारी, ध्वस्त या बीमार हो रहे या शिक्षकों की कमी और आवश्यक इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी से जूझते शिक्षण संस्थान, प्रतियोगी परीक्षा परिणामों के आने के बावजूद बरसों नौकरियों के लिए बुलाया न जाना जैसे युवाओं की समस्या, सार्वजनिक जीवन और गोपनीयता की चादर के नीचे छिपाकर सरकारी गलियारों में हो रहे भ्रष्टाचार आदि मुद्दों पर आमजन को बीजेपी नेताओं के भाषण नहीं परिणाम चाहिए.
मजबूत विपक्ष लोकतंत्र की मजबूती के लिए जरूरी है और मतदाताओं ने वही करके दिखाया है. सत्ताधारियों को सबक सिखाया है. इन राज्यों में कांग्रेस को शीघ्र कुछ कर के दिखाना होगा, जिससे मतदाताओं का विश्वास उसके प्रति मजबूत हो सके. बहुत कठिन डगर है कांग्रेस के लिए भी.
- विनय ओसवाल
देश के जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक
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