[ नरेन्द्र मोदी सरकार की लगातार चल रही जनविरोधी नीतियों के कारण देश का न केवल खजाना ही खाली हो गया, जिसके परिणामस्वरूप रिजर्व बैंक में रखे रिजर्व धनराशि को मोदी सरकार ने छीन ली है, वरन् विरोध करने वाले अपने ही कठपुतली उर्जित पटेल को धकियाकर बाहर का रास्ता दिखा दिया है. वहीं देश के तमाम मेहतनकश लोगों की संचित धनराशि को भी नोटबंदी और जीएसटी जैसी जनद्रोही नीतियों के कारण लूटकर कंगाल बना डाला है. इसी विषय पर साथी रविन्द्र पटवाल का आलेख पाठकों के लिए प्रस्तुत है. ]
उत्तर भारतीय पिछले 18 सालों से बड़ी तेजी से रोजगार की तलाश में औद्योगिक प्रदेशों और महानगरों की ओर भाग रहे हैं. पहले यह प्रश्न महाराष्ट्र और कुछ हद तक पंजाब में उठते थे, लेकिन आज यह सवाल गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक और यहां तक कि मध्यप्रदेश से भी उठने लगे हैं, जिसका खुद का ट्रैक रिकॉर्ड ऐसा नहीं है, जो रोजगार उत्पादन करता हो.
योगी जी ने गाय की सुरक्षा के लिए गौशाला बनाने के लिए पिछले साल बुंदेलखंड को छोड़ हर जिले में कोष बंटवाया और इस साल सभी नगर निगमों को कुल 160 करोड़ गौशाला बनाने और रखरखाव के लिए आवंटित किया है. इंसानों का क्या है, वे तो अपने पेट के जुगाड़ और परिवार के लिए देश में कहीं भी धक्के खा सकते हैं. मार खा कर वापस आकर फिर कुछ महीने बाद जा सकते हैं.
अयोध्या में मंदिर बनेगा, उसके लिए सड़क और दीपावली में दिए और रौशनी में कुछ रोजगार मिल सके तो वही सबसे बड़ी बात है. उत्तर भारतीय समाज में एक लेवल प्रशासनिक सेवाओं की तैयारी और सफलता से जुड़ा था, बाकी बड़ा हिस्सा तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के सरकारी रोजगार और घर में किसी एक के रेलवे, फ़ौज, अध्यापन या मुंबई कोलकता और दिल्ली गुड़गांव में प्राइवेट नौकरी में पा जाता था.
लेकिन हाल के दशक में स्थिति विकट हुई है. सरकारी नौकरियों के स्रोत सूख चुके हैं. खेती अब दिन-प्रतिदिन घाटे का सौदा हो चुकी है. नोटबंदी ने छोटे और मझौंले उद्योगों खासकर कालीन बुनकर और बनारसी साड़ी जैसे उद्योगों को मारने का काम किया है.
पिछले 15 वर्षों के दौरान चीनी उत्पाद के बहिष्कार के नाम पर चीनी झालर का विरोध और असलियत में बीसियों गुना चीन से आयात कर भारतीय व्यापारियों ने अपने परम्परागत उद्योग-धंधों को जिसमे कम मुनाफा और ज्यादा श्रम शक्ति लगती थी, साथ ही लाइसेंस, प्रोविडेंड फण्ड, पॉलुशन बोर्ड, उत्पाद-कर सबसे छुटकारे के रूप में चीनी माल का विकल्प चुन लिया है.
सरकारें बनती हैं, बिगड़ती हैं. देश गड्ढे में जा रहा है. लेकिन खासकर उत्तर भारत के राज्यों को इससे कभी अधिक सरोकार रहा भी नहीं. उत्तर प्रदेश और बिहार नामक दो राज्य जिनके पास 115 सांसद भेजने की कुव्वत है, वे इसी बात से अभी तक मग्न हैं कि वे देश का प्रधान और रेल मंत्री चुनते हैं. भले ही वे मुंबई में बैठे सेठ के इशारों पर चलते हों.
अब स्थिति विस्फोटक हो रही है, देखते हैं शायद यह सवाल भी उत्तर भारतीय पूछे कि गंगा जमुना के उस जग प्रसिद्द बेसिन पर जहां सदियों से सभ्यताएं जन्मी, दुनिया भर से आईं वह आज इस बदहाल स्थिति में क्यों और कैसे है ?
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क्या देश और समाज के इस हालत पर गुस्सा नहीं आना चाहिए ?
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