Home गेस्ट ब्लॉग बाबा साहेब को समझना हो तो आरक्षण के ईमानदार पहलू को समझे

बाबा साहेब को समझना हो तो आरक्षण के ईमानदार पहलू को समझे

6 second read
1
0
1,992

शोषण, अत्याचार, छुआछूत व भेदभाव जैसे अनेक शब्दों के मायने को मिलाकर यदि एक शब्द बनाना हो तो वह ‘दलित’ से बेहतर और क्या होगा ? सामाजिक और राजनीतिक विकास की सदियां भी जिस दलित शब्द के मायने को बदलने में बहुत हद तक नाकाम रहीं, तो उस शब्द से पहचाने जाने वाली भारत की एक बड़ी आबादी का विकास कैसे होता ? खैर, इन बीतती सदियों में उनकी जुबां पे अपने हक की आवाज जरूर पैदा हुई, जो पहले गूंगी थी. सदियों से गूंगी जुबां से यूं खुद के शोषण के खिलाफ अप्रत्याशित आवाज का असर तो होना ही था, सो हुआ और उसी आवाज का परिणाम था और है – ‘आरक्षण’.

आरक्षण पर आज ऐतराज का जाल बुनने वालों को मालूम हो, न हो, पर इसकी शुरुआत आजादी से बहुत पहले से हो गई थी. महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने 1902 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण की शुरुआत की थी. यही नहीं, कोल्हापुर राज्य में पिछड़े वर्गों/समुदायों को नौकरियों में आरक्षण देने के लिए 1902 में अधिसूचना भी जारी की गई. यह अधिसूचना भारत में दलित वर्गों के कल्याणार्थ आरक्षण उपलब्ध कराने वाला पहला सरकारी आदेश था.

पिछड़े वर्गों या कहें दलितों की आवाज का असर बाद में आंदोलन का रूप भी लेने लगा. इसकी शुरुआत भी सबसे पहले दक्षिण भारत से हुआ, जो विशेषकर तमिलनाडु में जोर पकड़ा. इस आंदोलन को छत्रपति साहूजी महाराज के अलावा रेत्तामलई श्रीनिवास पेरियार, अयोथीदास पंडितर,ज्योतिबा फुले और बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर जैसे समाज सुधारकों का सतत् नेतृत्व मिला. इनके सतत् आंदोलनों की चोट से ही समाज में दलितों के खिलाफ सदियों से खड़ी अस्पृश्यता की अन्यायपूर्ण दीवार ढहाई गई.

लेकिन फिर भी दलितों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए यह काफी नहीं था. 

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का मानना था कि दलितों को जागरूक बनाने और उन्हें संगठित करने के लिए उनका अपना स्वयं का मीडिया होना अति आवश्यक है. इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने 31 जनवरी, 1920 को मराठी पाक्षिक ‘मूकनायक’ का प्रकाशन प्रारंभ किया. ‘मूकनायक’ के पहले अंक में बाबा साहेब ने लिखा कि “भारत असमानताओं की भूमि है. यहां का समाज एक ऐसी बहुमंजिला इमारत की तरह है, जिसमें एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर जाने के लिए न तो कोई सीढ़ी है और ना ही दरवाजा. कोई व्यक्ति जिस मंजिल में जन्म लेता है, उसी में मृत्यु को प्राप्त होना उसकी नियति होती है.” उन्होंने लिखा कि “भारतीय समाज के तीन हिस्से हैं-ब्राह्मण, गैर-ब्राह्मण और अछूत.” उन्हें ऐसे लोगों पर दया आती है जो यह मानते हैं कि पशुओं और निर्जीव पदार्थों में भी ईश्वर का वास है परंतु अपने ही धर्म के लोगों को छूना भी उन्हें मंजूर नहीं होता. उन्होंने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि “ब्राह्मणों का लक्ष्य, ज्ञान का प्रसार नहीं बल्कि उस पर अपना एकाधिकार बनाए रखना है.”

बाबा साहेब की यह मान्यता थी कि गैर-ब्राह्मण, पिछड़े हुए इसलिए हैं क्योंकि वे न तो शिक्षित हैं और ना ही उनके हाथों में सत्ता है. दमितों को इस चिर-गुलामी से मुक्त कराने और गरीबी व अज्ञानता के दलदल से बाहर निकालने के लिए, उनकी इन कमियों को दूर करना होगा और इसके लिए महती प्रयासों की आवश्यकता होगी.

जाहिर है दलितों को ऐसे दलदल से बाहर निकालने के लिए आरक्षण से बेहतर और क्या रास्ता हो सकता था. भारत सरकार अधिनियम-1919 तैयार कर रही साउथ बोरोह समिति के समक्ष जब बाबा साहेब को भारत के एक प्रमुख विद्वान के तौर पर गवाही देने के लिए आमंत्रित किया गया तो उन्होंने दलितों और अन्य धार्मिक समुदायों के लिए पृथक निर्वाचिका और आरक्षण देने की वकालत की. 1932 में बाबा साहेब के इस बात पर ब्रिटिश सरकार अपनी सहमति देते हुए दलितों को पृथक निर्वाचिका देने की घोषणा तक कर दी, लेकिन यह महात्मा गांधी जी उचित नहीं लगा. वह इसकी जगह रूढ़िवादी हिंदू समाज से सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को खत्म करने तथा हिंदुओं में राजनीतिक और सामाजिक एकता बढ़ाने के पक्ष में खड़े हो गए और पृथक निर्वाचिका की घोषणा की वापसी के लिए यरवदा जेल में अनशन पर बैठ गए. ऐसे में बाबा साहेब और हिंदू समाज व कांग्रेस के नेताओं के बीच यरवदा जेल में संयुक्त बैठक हुई, जिसमें बाबा साहब ने गांधी जी के अनशन के आगे सुधार के आश्वासनों के आधार पर अपनी पृथक निर्वाचिका की मांग वापस ले ली.

आजादी के बाद जब संविधान निर्माण की जिम्मेवारी बाबा साहेब को मिली तो उन्होंने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों में आरक्षण प्रणाली शुरू के लिए संविधान सभा का समर्थन हासिल किया, जिसे सभा के अन्य सदस्यों का भी साथ मिला. तय हुआ कि इस सकारात्मक कार्यवाही के द्वारा दलित वर्गों के लिए सामाजिक और आर्थिक असमानताओं के उन्मूलन और उन्हें हर क्षेत्र में अवसर प्रदान कराने की चेष्टा की जाएगी.

लेकिन सवाल है कि दलित वर्गों के लिए संवैधानिक तौर पर संकल्पित चेष्टाएं क्या अब पूरी हो चुकी हैं ? वैसे आज यह सवाल आरक्षण पर ऐतराज करने वालों को एक बैमानी लगती है और ऐसे लोग अक्सर इसे शिक्षा या मेडिकल, इंजीनियरिंग की परीक्षाओं से जोड़कर अपनी दलील देते हैं और इस पर रोष जताते हैं लेकिन ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि मौजूदा समय में दलितों को आरक्षण का फायदा एडमिशन में जरूर मिलता है, पर वे भी सामान्य की तरह ही चार या पांच सालों के प्रशिक्षण उत्तीर्ण करने बाद ही डॉक्टर या इंजीनियर बनते हैं.

एक बात और जिसे रोष में भूला दिया जाता है कि आरक्षण की ईमानदारी भी इस मुद्दे का एक पहलू है. जैसा कि इसकी आवश्यकता संविधान गढ़ते वक्त बाबा साहेब समेत पूरी संविधान सभा में महसूस की गई थी, जिसे बाद में जैसे भूला दिया गया हो और आज यह महज राजनीति करने का औजार बनकर रह गया है.

आरक्षण का रास्ता असल में समाज में सैकड़ों सालों से व्याप्त ऊंच-नीच, जातपात और भेदभाव को मिटाने व समानता को बढ़ावा देने के लिए अपनाया गया था, पर कलांतर में इस पर जारी बेईमान राजनीति ने इसके ईमानदार पहलू को मानों धूमिल कर दिया है. इसे आज सभी को समझने की जरुरत है, तभी शायद हम बाबा साहेब को भी दरअसल समझ पाएंगे.

– उदय केसरी

Read Also –

ब्राह्मणवादी सुप्रीम कोर्ट के फैसले दलित-आदिवासी समाज के खिलाफ खुला षड्यन्त्र
आरक्षण: एक जरूरी ढ़ांचागत व्यवस्था
एस.सी., एस.टी. के खिलाफ वह अपराध जिसे करने की अब खुली छूट दी केंद्र की भाजपा सरकार और सुप्रीम कोर्ट ने

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

One Comment

  1. Sakal Thakur

    April 14, 2018 at 4:36 am

    आरक्षण आज भी जरूरी है क्योंकि जातिवाद घृणित रूप से समाज में मौजूद है

    Reply

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…