जगदीश्वर चतुर्वेदी
अंधविश्वास सामाजिक कैंसर है. अंधविश्वास ने सत्ता और संपत्ति के हितों को सामाजिक स्वीकृति दिलाने में अग्रणी भूमिका अदा की है. आधुनिक विमर्श का माहौल बनाने के लिए अंधविश्वासों के खिलाफ जागरूकता बेहद जरूरी है. आमतौर पर साधारण जनता के जीवन में अंधविश्वास घुले-मिले होते हैं.
अंधविश्वासों को संस्कार और एटीटयूट्स का रूप देने में सत्ता और सत्ताधारी वर्गों को सैकड़ों वर्ष लगे हैं. अंधविश्वासों की शुरुआत कब से हुई इसका आरंभ वर्ष तय करना मुश्किल है. फिर भी ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि सामाजिक विकास के क्रम में जब राजसत्ता का निर्माण कार्य शुरू हुआ था, उस समय साधारण लोग किसी से डरते नहीं थे. किसी भी किस्म का अनुशासन मानने के लिए तैयार नहीं थे, राजा की सत्ता को स्वीकार नहीं करते थे. सत्ता के दंड का भय नहीं था. यही वह ऐतिहासिक संदर्भ है जब अंधविश्वासों की सृष्टि की गई.
आरंभिक दौर में अंधविश्वासों को संस्कार और जीवन मूल्य से स्वतंत्र रूप में रखकर देखा जाता था. कालांतर में अंधविश्वासों ने सामाजिक जीवन में अपनी जड़ें इस कदर मजबूत कर लीं कि अंधविश्वासों को हम सच मानने लगे. अंधविश्वास का दायरा बहुत बड़ा है. इसके दायरे में सामाजिक मान्यताएं, सामाजिक आचार-व्यवहार से लेकर कला, ललित कला, साहित्य, राजनीति, व्यापार तक आता है. इसके कारण सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया बाधित हुई है.
भारत में विगत दो हजार वर्षों में किसी भी किस्म की सामाजिक क्रांति नहीं हुई. हम लोगों ने कभी भी इस सवाल पर सोचा नहीं कि हमारे समाज में विगत दो हजार वर्षों में सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई ? तमाम किस्म की कुर्बानियों के बावजूद आधुनिक भारत में कोई सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हुई ? यदि गंभीरता से भारतीय समाज पर नजर डालें तो पाएंगे कि भारत में सामाजिक क्रांति न होने के जिन कारणों की ओर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ध्यान खींचा था, उनकी तरह हमारे समाज ने पूरी तरह ध्यान नहीं दिया.
हजारीप्रसाद द्विवेदी का मानना था कि भारत में सामाजिक क्रांति न होने के तीन प्रमुख कारण हैं. पहला, अंधविश्वास, दूसरा, पुनर्जन्म की धारणा और तीसरा कर्मफल का सिद्धांत. हमारी समूची चेतना इन तीन सिद्धांतों से परिचालित रही है. अंधविश्वास के कारण ही रूढ़ियों ने जन्म लिया. साहित्य एवं कलारूपों में रूढ़ियां और सामाजिक जीवन में रूढ़ियां अंधविश्वास की ही देन हैं.
आधुनिककाल आने के बाद साहित्य से रूढ़ियों का खात्मा हुआ बल्कि सामाजिक जीवन में रूढ़ियां बनी रहीं, अंधविश्वासों के खिलाफ सामाजिक संघर्ष लड़ा नहीं गया. वहीं दूसरी ओर, पूंजीवाद ने बड़े कौशल के साथ अंधविश्वास को अपनी मासकल्चर, विज्ञापन रणनीति और मार्केटिंग का अंग बनाकर नई शक्ल दे दी. आज बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने बाजार के विकास के लिए जिन दो तत्वों का प्रचार रणनीति में सबसे ज्यादा इस्तेमाल कर रही हैं वह है धार्मिक संप्रेषण की पद्धति और दूसरा है अंधविश्वास. इन दो के जरिए जहां एक ओर उपभोक्तावाद का तेजी से विकास हो रहा है, वहीं दूसरी ओर अंधविश्वासों के प्रति भी आस्था बढ़ रही है.
जो लोग सामाजिक परिवर्तन करना चाहते हैं, उन्हें बहुराष्ट्रीय कंपनियों की धार्मिक संप्रेषण की रणनीति और अंधविश्वास की जुगलबंदी को तोड़ना होगा. उन तमाम क्षेत्रों में हमले तेज करने होंगे जिनसे इन दो तत्वों को संजीवनी मिलती है. इसके अलावा पुनर्जन्म और कर्मफल के सिद्धांत के प्रति आम जनता में आलोचनात्मक रवैय्या पैदा करना होगा. आज अंधविश्वास संस्कृति उद्योग का अनिवार्य तत्व बन गया है. संभवत: कुछ लोगों को यह बात समझ में न आए और कुछ लोगों की भावनाएं भी आहत हों. किंतु इस डर से अंधविश्वासों के खिलाफ जागरूकता पैदा करने के काम को छोड़ा नहीं जा सकता.
प्रश्न उठता है अंधविश्वास क्या है ? इसे किन तत्वों से मदद मिलती है ? इसका सामाजिक आधार कौन सा है ? इससे किस तरह का समाज निर्मित होता है ? किस तरह के कला रूप जन्म लेते हैं ? और इसका विकल्प क्या है ? ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखें तो पाएंगे कि अंधविश्वास की धारणा का बुनियादी सारतत्व एक जैसा रहा है. मिस्र, यूनान और भारत में अंधविश्वासों की शुरुआत तकरीबन एक ही तरह हुई.
अंधविश्वास की बुनियादी विशेषता है अंधानुकरण, वैज्ञानिक विवेक का त्याग और स्वतंत्र चिंतन का विरोध. सामाजिक जीवन में इसका लक्ष्य था आम लोगों को अपने श्रेष्ठजनों के किसी भी आदेश के पालन का अभ्यस्त बनाया जाए. दूसरा, वे उन्हीं पर भरोसा करना सीखें जो हर मामले में समान भाव से धार्मिक विधि-विधानों का पालन करते हों. कलाओं की दुनिया में इसने नयनाभिराम चित्रों और मधुर गीतों की सृष्टि की. नयनाभिराम चित्रों और मधुर गीत-संगीत को मंदिरों में मानदंड के रूप में स्थापित किया गया.
कला के क्षेत्र में किसी को यह इजाजत नहीं थी कि उनमें परिवर्तन करे, इसके कारण कलाओं के रूप सैकड़ों वर्षों तक अपरिवर्तित रहे. किसी ने यह साहस नहीं दिखाया कि कलाओं और मधुर गीतों में परिवर्तन करे. ये कलारूप सैकड़ों वर्षों से एक जैसे हैं. मिस्र के कलारूप इस अंधानुकरण के आदर्श उदाहरण हैं. विगत दस हजार साल से उनकी शैली में किसी तरह का परिवर्तन नहीं हुआ है. इस दौरान वे न तो बेहतर बन पाए और न बदतर ही बन पाए.
इसी तरह अंधविश्वास को जनप्रिय बनाने में झूठ खासकर इष्टकर झूठ की बहुत बड़ी भूमिका रही है. एक ऐसा झूठ, उदात्त झूठ जिसके सहारे संपूर्ण समुदाय को, संभव हो सके तो शासकों को भी स्वीकार करने के लिए राजी किया जा सके. इस तरह के झूठ के आदर्श उदाहरण हैं हमारे रीति-रिवाज और संस्कार जिनकी प्रशंसा करते हुए हमारे शास्त्र थकते नहीं हैं. रीति-रिवाज और संस्कारों की प्रशंसा के क्रम में सबसे ज्यादा हमला स्वतंत्र चिंतन पर किया गया, उन लोगों पर हमले किए गए जो स्वतंत्र चिंतन के हिमायती थे., जो प्रत्येक बात पर शंका करते थे. प्रश्न करते थे.
आज हम रोम की महानता के गुण गाते हैं किंतु यह भूल जाते हैं कि रोम की महानता का आधार अंधविश्वास था. रोम की महानता के बारे में पोलिबियस ने लिखा कि –
मैं साहसपूर्वक यह बात कहूंगा कि संसार के शेष लोग जिस चीज का उपहास करते हैं, वह रोम की महानता का आधार है और उस चीज का नाम अंधविश्वास है. इस तत्व का उसके निजी और सार्वजनिक जीवन के सभी अंगों में समावेश कराया गया है और इसने ऐसी खूबी से उनकी कल्पनाशक्ति को आक्रांत कर लिया है कि उस खूबी को बेहतर नहीं बनाया जा सकता.
संभवत: बहुत से लोग इसकी विशेषता समझ नहीं पाएंगे, लेकिन मेरा मत है कि ऐसा लोगों को प्रभावित करने के लिए किया गया है. यदि किसी ऐसे राज्य की संभावना होती, जिसके सभी नागरिक तत्वज्ञ होते तो इस तरह की चीज से हम बचे रह सकते थे. लेकिन सभी राज्यों में जनता अस्थिर है, निरंकुश भावनाओं, अकारण क्रोध और हिंसक आवेगों से ग्रस्त है.
इसलिए केवल यही किया जा सकता है कि जनता को अदृश्य के भय से, और इसी किस्म के पाखंडों से काबू में रखा जाए. यह अकारण नहीं, बल्कि सुविचारित चाल थी कि पुराने जमाने के लोगों ने जनता के दिमाग में देवताओं और मृत्यु के बाद के जीवन की बातें बैठाईं. हमारी मूर्खता और विवेकहीनता यह है कि हम इस प्रकार की भ्रांतियों को दूर करना चाहते हैं.
इसके अलावा जिस विधा का निर्माण किया गया वह है चमत्कारवर्णन और दंतकथा. चमत्कारवर्णन और दंतकथाओं ने अंधविश्वासों को आम जनता के जीवन में उतारने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. किसी भी दर्शनवेत्ता और धर्मशास्त्री के उपदेशों के द्वारा पुरुषों और औरतों के समूहों को श्रद्धा, भक्ति और विश्वास की ओर नहीं मोड़ा जा सकता था. इनको प्रभावित करने के लिए अंधविश्वास का लाभ उठाना पड़ता था. यह कार्य चमत्कारवर्णन और दंतकथाओं के बिना संभव नहीं था. कालांतर में इसने नागरिक जीवन की प्राचीन व्यवस्था और साथ ही, वास्तविक सृष्टि संबंधी स्थापनाओं में मिथकशास्त्र के रूप में सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर लिया.
कौटिल्य का अंधविश्वास में विश्वास नहीं था किंतु उन्होंने राज्य के कौशल के तौर पर अर्थशास्त्र में अंधविश्वास की चर्चा की है. उनका न तो राजा के दैवी अधिकार और उसकी सर्वज्ञता की सच्चाई में विश्वास था और न वे यह चाहते थे कि स्वयं शासक इस तरह की वाहियात बात को सच मानें. वे सुझाव देते हैं कि राज्य को अपनी आंतरिक और बाह्य स्थितियों को सुदृढ़ करने के लिए सामान्य लोगों की अंधमान्यताओं का लाभ उठाना चाहिए.
कौटिल्य, अर्थशास्त्र में अनेक ऐसे सुझाव देते हैं जो अंधविश्वासों पर आधारित हैं. संयोग से जिन उपायों को सुझाया गया है वे थोड़े फेरबदल के साथ अब भी लागू किए जाते हैं. कौटिल्य ने कुछ ऐसे साधनों को अपनाने की सलाह दी जो बहुत ही भद्दे थे और जिनका दोहरा उद्देश्य था. वे न केवल जनता के बीच अंधविश्वासमूलक भय उत्पन्न करते थे, बल्कि अंधविश्वास के विरोध में यथार्थ और ठोस कदम उठाने वाले प्रचारकों का शारीरिक रूप से सफाया करने की ओर भी लक्षित थे.
अंधविश्वास के साथ-साथ पुनर्जन्म और कर्मफल की प्राप्ति की धारणा का भी व्यापक पैमाने पर इस्तेमाल किया गया. इसका साहित्य पर भी गहरा प्रभाव पड़ा. हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार साहित्य में काव्य-रूढ़ियों का चलन शुरू हुआ. यह मान लिया गया कि जो कुछ हो रहा है उसका उचित कारण है, ज़िस कार्य में असामंजस्य है, वह अवश्य भविष्य में करने वाले को दंड देने का साधन बनेगा. इस विचार ने भारतीय साहित्य में सामंजस्यवादी दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा की है. समाज की विषमताओं और अनमेल परिस्थितियों को कभी विद्रोही दृष्टि से नहीं देखा गया.
यह मान लिया गया नाटक दुखांत नहीं होना चाहिए. असंतोष और विद्रोह के अभाव में कवि की बुद्धि अधिकाधिक सूक्तियों और चमत्कारों में उलझती गई. साहित्य में सिर्फ रस और रस में भी सिर्फ श्रृंगार रस की रचनाओं का बाहुल्य इस मार्ग के अनुसरण का स्वाभाविक परिणाम था. उल्लेखनीय है रस की अवधारणा की उत्पत्ति का समय तकरीबन वही है जब अंधविश्वास, पुनर्जन्म और कर्मफल की प्राप्ति के सिद्धांत का जन्म हुआ. रसों में हमारे प्राचीन लेखकों ने सिर्फ श्रृंगार रस पर ही मुख्यत: जोर दिया और अन्य रसों की उपेक्षा की.
तात्पर्य यह है कि अंधविश्वास के साथ आनंदमूलक मनोरंजन, कामुकता, स्त्री के सौंदर्यमूलक हाव-भावों का गहरा संबंध है. यह संबंध मध्यकाल से विकसित हुआ और आधुनिक काल तक चला आया है. अंधविश्वास के समूचे कार्य-व्यापार को यदि इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो पाएंगे कि समाज में कलाओं में नकल की प्रवृत्ति वस्तुत: अंधविश्वास के प्रति सहिष्णु भाव पैदा करती है.
नकल की प्रवृत्ति को पूंजीवाद का प्रधान गुण माना जाता है. इस अर्थ में पूंजीवाद अपने विकास के साथ-साथ सामंती और पूर्व सामंती कला रूपों और मूल्यबोध को बरकरार रखता है. कलाओं में अंधानुकरण आधुनिक काल में नकल में रूपांतरित कर लेता है. इससे जहां कभी न खत्म होने वाले मनोरंजन की सृष्टि करने में मदद मिलती है वहीं दूसरी ओर अंधानुकरण के एटीटयूट्स, रवैए और संस्कार का विकास होता है. कलाओं से यथार्थ गायब हो जाता है. उसकी जगह काल्पनिक यथार्थ या आभासी यथार्थ ले लेता है.
इसी तरह अंधविश्वास या नकल की संस्कृति का परजीवीपन और पेटूपन की संस्कृति से गहरा संबंध है. इसका स्वतंत्रता के विचार से विरोध है, यह उन तमाम विचारों को अस्वीकार करती है, जो नकल या अंधानुकरण के विरोधी हैं. पूंजीवाद अपनी सामान्य प्रकृति के अनुसार अंधविश्वासों को भी वस्तु के रूप में बदल देता है, उन्हें संस्थागत रूप दे देता है. अंधविश्वासों को कामुकता एवं रोमांस के साथ प्रस्तुत करता है और यह कार्य फिल्म, टी.वी. और वीडियो फिल्मों के संगठित औद्योगिक माल के उत्पादन के रूप में करता है.
कामुकता, पोर्नोग्राफी, अतिलयात्मक गीत और संगीत तथा नकल के आधार पर निर्मित कलाएं जितनी ज्यादा बनेंगी, उतना ही ज्यादा अंधविश्वास भी बढ़ेगा. उतनी ही ज्यादा सामाजिक असुरक्षा, भेदभाव और तनाव की सृष्टि होगी. इसका प्रधान कारण यह है कि आज अंधविश्वास को मासकल्चर ने अपना सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बना लिया है.
अंधविश्वास की रणनीति और धार्मिक संप्रेषण की शैलियों को अपनाकर विज्ञापन, फिल्म और टी.वी. उद्योग तेजी से अपना विकास कर रहा है. पहले अंधविश्वास के माध्यम से राज्य अपने लिए जहां एक ओर धन जुटाता था, वहीं दूसरी ओर जनता के दिलो-दिमाग पर शासन करता था. आज भी इस स्थिति में बुनियादी फर्क नहीं आया है. सिर्फ तरीका बदला है और इस कार्य में परंपरागत अंधविश्वास प्रचारकों के अलावा जो नया तत्व आकर जुड़ा वह है पूंजीपति वर्ग, बाजार और संस्कृति उद्योग.
अब अंधानुकरण की प्रवृत्ति का बाजार की शक्तियां खुलकर अपने मुनाफों के विस्तार के लिए इस्तेमाल कर रही हैं. अंधानुकरण के लिए जरूरी है कि स्टीरियोटाइप प्रस्तुतियों पर जोर दिया जाए. इनमें खर्च कम और मुनाफा ज्यादा होता है और प्रस्तुतियां जल्दी ही समझ में आ जाती हैं. इस तरह की प्रस्तुतियां यथार्थ के निषेध और स्वतंत्र सृजन या मौलिक सृजन के निषेध को व्यक्त करती हैं.
वे ऐसे उन्माद, आनंद और मनोरंजन की सृष्टि करती हैं जो प्रभेदों का सृजन करता है. ध्यान रहे, प्रभेद वहीं पैदा होते हैं जहां भय हो, अंधविश्वास हो या जहां एक-दूसरे को धोखा देकर हराने का प्रयत्न किया जाता है. वहां परस्पर व्यवहार में सहज भाव नहीं होता. अंधविश्वास मूलत: ऐसी स्वाधीनता की हिमायत करते हैं जो मनुष्य को पीड़ित करती है. यह संबंधहीन स्वाधीनता है. यह बुनियादी तौर पर नकारात्मक स्वाधीनता है.
अंधविश्वास तरह-तरह के धार्मिक उपकरणों को जमा करने और धार्मिक उपकरणों के माध्यम से अंधविश्वासों से राहत पाने का रास्ता सुझाते हैं. रवींद्रनाथ टैगोर के शब्दों में, ‘मानव जीवन में जहां अभाव है वहीं उपकरण जमा होते हैं … इस अभाव और उपकरण के पक्ष में ईष्या है, द्वेष है, वहां दीवार है, पहरेदार है, वहां व्यक्ति अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है और दूसरों पर आघात करना चाहता है.’
अंधविश्वास, पुनर्जन्म और कर्मफल के सिद्धांत से मुक्ति पाने के लिए जरूरी है कि तर्क और विमर्श के पुराने पैराडाइम को बदलें. पुराने पैराडाइम से जुड़े होने के कारण हम प्रभावी ढंग से अंधविश्वास का विरोध नहीं कर पा रहे हैं. तर्क के पैराडाइम को बदलते ही हम विकल्प की दिशा में बढ़ जाएंगे. पैराडाइम को बदलते ही विचारों में मूलगामी परिवर्तन आने लगेगा.
आम तौर पर हमारे बहुत से बुद्धिजीवी पुराने पैराडाइम को बनाए रखकर तर्कों में परिवर्तन कर लेते हैं. ध्यान रहे, अंधविश्वास को तर्क और विवेक से अपदस्थ नहीं किया जा सकता. जब तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर नया पैराडाइम निर्मित नहीं किया जाता, तब तक अंधविश्वास को अपदस्थ करना मुश्किल है.
अंधविश्वास का जबाव तर्क नहीं विज्ञान है. जो लोक तर्क में विश्वास करते हैं वे पैराडाइम बदलते ही असली शक्ल में सामने आ जाते हैं. ध्यान रहे, जब पैराडाइम बदलते हैं तो उसके साथ ही, सारी दुनिया भी बदल जाती है. कहने का तात्पर्य यह है कि पैराडाइम बदलते ही हमारा विश्व दृष्टिकोण बदल जाता है, नए का जन्म होता है, वैज्ञानिक चेतना के विकास की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं. यही वह बिंदु है जिस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है.
अंधविश्वास का जबाव तर्क से देंगे तो अंतत: पराजय हाथ लगेगी. यदि पैराडाइम बदलकर विज्ञानसम्मत चेतना से इसका जबाव देंगे तो अंधविश्वास को अपदस्थ कर पाएंगे. हमारे रैनेसां के चिंतकों ने अंधविश्वास का प्रत्युत्तर तर्क से देने की चेष्टा की और इसका अंतत: परिणाम यह निकला कि हम आज अंधविश्वास से संघर्ष में बहुत पीछे चले गए हैं. तर्क को आज अंधविश्वास ने आत्मसात कर लिया है. अंधविश्वास का तर्क से बैर नहीं है, उसकी लड़ाई तो विज्ञानसम्मत चेतना के साथ है.
अंधविश्वास के कारण बौद्धिक अधकचरापन पैदा होता है. इन दिनों विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना के बजाय मिथकीय चेतना पर जोर दिया जा रहा है. आज विज्ञान को सत्य की खोज के काम से हटाकर व्यावहारिक उपयोग, उद्योग और युद्ध के साजो-सामान के निर्माण में लगा दिया गया है. यहां तक कि धर्म और विज्ञान में सहसंबंध स्थापित करने की कोशिशें चल रही हैं. अब विज्ञान को पूंजीवाद ने महज एक चिंतन का रूप या शुद्ध विज्ञान बना दिया है या उपयोगी रूप तक सीमित कर दिया है.
एक जमाना था विज्ञान पर विश्वास था, किंतु एक अर्से के बाद विज्ञान के प्रति संशय का भाव पैदा हुआ. शुरू में विज्ञान के प्रति प्रशंसाभाव था. बाद में मोहभंग हुआ और विज्ञान के प्रति संशय भाव पैदा हुआ. आज पूंजीवादी वैज्ञानिक निराश और हताश हैं कि क्या करें? वे पीछे मुड़ नहीं सकते. आगे किस तरह बढ़ना है ? बढ़ गए तो कहां पहुचेंगे ? आज विज्ञान के पूंजीवादी पक्षधर परेशान हैं कि विज्ञान के इतने विराट जुलूस को कहां ले जाएं ? इसके कारण विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना के प्रति अविश्वास और गहरा हुआ है.
आम लोगों से लेकर बुद्धिजीवियों तक संशयवाद बढ़ा है. इसके कारण पुन: एक सिरे से अंधविश्वास और आध्यात्मिकता की बाढ़ आ गई है. कुछ लोग मानव स्वभाव की उन्नतिशीलता को लेकर कुछ भी होता न देखकर हताशा में डूबे जा रहे हैं और विज्ञान को तिलांजलि दे रहे हैं. कुछ ऐसे भी लोग हैं जो पहले से ही यह मानकर चल रहे हैं कि विज्ञान की सामाजिक परिणतियों पर कोई भी विचार-विमर्श हानिकर होने को बाध्य है.
कुछ ऐसे लोग भी हैं जो विज्ञान के व्यावहारिक उपयोग के अलावा और किसी भूमिका पर सोचने के लिए तैयार नहीं हैं. कुछ लोगों के लिए विज्ञान का विनाश के अलावा और किसी काम में उपयोग संभव नहीं है. कुछ के लिए यह संपत्ति और मुनाफों के अंबार खड़ा कर देने का साधन मात्रा है. यह सही है कि पूंजीवाद समाजों में विज्ञान का सही उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा रहा. यह भी सच है कि वैज्ञानिक वेतनभोगी कर्मचारी होकर रह गए हैं.
आज वैज्ञानिक या तो किसी विश्वविद्यालय में काम करता है या किसी उद्योग या संस्था में काम करता है. निजी साधनों से वैज्ञानिक अनुसंधान करने वाले वैज्ञानिक अब दुर्लभ हो गए हैं. जाहिरा तौर पर वैज्ञानिक जहां काम करता है वहां के हितों की उसे सबसे पहले पूर्ति करनी होगी. यही बिन्दु है जहां पर हमें विज्ञान की सामाजिक भूमिका पर गंभीरता से विचार करना चाहिए. यदि विज्ञान बंदी है और वैज्ञानिक खरीदा जा चुका है तब अंधविश्वास के खिलाफ विज्ञान और विज्ञानसम्मत चेतना की भूमिका शून्य के बराबर होगी.
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