सुब्रतो चटर्जी
आज़ादी के तीस साल के बाद राजनीति का अपराधीकरण और 1990 से अपराधियों का राजनीतिकरण शुरू हुआ. नरसिंह राव सरकार द्वारा मुक्त अर्थव्यवस्था अपनाए जाने के फलस्वरूप जहां एक तरफ़ आवारा बाज़ारू पूंंजी का वर्चस्व बढ़ा, वही दूसरी तरफ़ इस पूंंजी को राजनीतिक परिदृश्य और देश की नीति निर्धारण करने वाले अनैतिक लुच्चों की ज़रूरत भी महसूस हुई.
आवारा पूंंजी पहले साधारण जन जीवन में अपनी उपस्थिति और स्वीकार्यता उत्पाद और सेवाओं की कुशलता के माध्यम से दर्ज करवाता है, और क्रमशः अंतहीन लाभ के लोभ में अंतहीन शोषण का सबसे कारगर हथियार बन जाता है. एक उपभोक्ता संस्कृति, जिसे आम तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी हिक़ारत से देखा जाता है, धीरे-धीरे नागरी संस्कृति के लिए अपरिहार्य बन जाता है.
जिसे हम acquisitive urge यानी हासिल करने की प्रवृत्ति कहते हैं, मज़ेदार बात यह है कि, ये प्रवृत्ति शोषणमूलक आवारा पूंंजी और शोषित उच्च तथा मध्यम वर्ग में भी समान रूप से पाया जाता है. फ़र्क़ बस इतना है कि पूंंजीपति आपके क्रय शक्ति के विनिमय से अकूत और अजर दौलत इकट्ठा करता है, और आप consumer durables इकट्ठा कर अपने को दूसरों से ज़्यादा अमीर समझते हैं, जबकि वास्तव में हर बेवजह की ख़रीदारी के साथ आप थोड़ा और गरीब हो जाते हैं.
धीरे-धीरे सारा समाज इसी आत्मघाती प्रवृत्ति का शिकार बन जाता है. इसका फल वितृष्णा है, नहीं, वैराग्य की वितृष्णा नहीं, ये अपनी सामाजिक व राजनीतिक ज़िम्मेदारियों के प्रति वितृष्णा या उदासीनता है, जिसका इंतज़ार आवारा पूंंजी को पिछले एक सौ सालों से था.
उदासीनता का ये माहौल एक राजनीतिक शून्य पैदा करता है, एक ऐसी परिस्थिति जिसमें कुछ सच्चे राजनेता या ज़मीन पर लड़ने वाले लोग तो रहते हैं, लेकिन उनके आस-पास कोई समर्थक नहीं होता. स्थिति 1920 के आयरलैंड की होती है, जब यीटस को कहना पड़ा – The best lack all conviction. The worst are full of passionate intensity. जी, यही वो बेस्ट यानि सबसे अच्छों की विश्वासहीनता है जो कि वर्स्ट यानि निकृष्टतम की उर्जा का अमर स्रोत है.
ऐसे परिदृश्य में आवारा पूंंजी राजनीतिक पटल पर निकृष्टतम व्यक्ति या विचार को ढूंंढ कर देश की राजनीति के केंद्र में स्थापित कर मज़े लेता है. चूंंकि आप उपभोक्तावाद का शिकार हो कर अपना चरित्र ही खो चुके हैं, अब बाज़ार के बाद अपनी ही चुनी गई सरकार के हाथों खुद को लुटते, अपमानित होते और जेल जाते हुए चुपचाप देखते रहते हैं. आप किसी भी जनप्रतिरोध के स्वर में अपना स्वर नहीं मिला सकते. इसी तरह फासीवाद के ख़िलाफ़ आपकी बौद्धिक लड़ाई भी महज़ एक नूरा कुश्ती के सिवा कुछ नहीं है.
अगर ऐसा नहीं होता तो दिशा रवि जैसे सैकड़ों सताए गए युवाओं और सुधा भारद्वाज जैसे मानवाधिकार कार्यकर्ता लोगों के साथ आप वैसे ही खड़े होते जैसे कभी निर्भया के साथ खड़े थे.
दरअसल आप डरे हुए हैं. आप इसलिए डरे हुए हैं कि मुस्लिम विद्वेष के नाम पर आवारा पूंंजी द्वारा प्रायोजित क्रिमिनल लोगों की एक गिरोह को चुनने के बाद आपका चुनाव बहुत सीमित हो चुका है, या आपने खुद कर दिया है. यही वजह है कि आज क्रिमिनल खुलकर गोलवरकर जैसे शैतानों की पैरवी कर रहे हैं, देश का तिनका-तिनका आवारा पूंंजी के हवाले कर रहे हैं, और आप चुप हैं. आप खुद उसी आवारा पूंंजी के प्रोडक्ट हैं. आपसे नहीं होगा.
इस परिप्रेक्ष्य में किसानों की लड़ाई रोज़ नए नए आयाम जोड़ती जा रही है. मैंने इस आंदोलन के शुरू में कहा था कि ये भारत बनाम इंडिया की लड़ाई है, भारत बनाम ईंग्लैंड की लड़ाई नहीं जिसके प्रायोजक वही आवारा पूंंजी आपके टीवी स्क्रीन पर है. ये लड़ाई पूंंजी और श्रम के बीच है, आपके पास अपना पक्ष चुनने का अंतिम मौक़ा है.
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