आभा शुक्ला
इलाहाबाद जंक्शन से हर सुबह एक तांगा सवारी बैठाती और खुल्दाबाद, हिम्मतगंज, चकिया पर सवारी उतारती चढ़ाती जंक्शन से 5 किमी दूर स्थित ‘कसरिया’ जाती और फिर वहां से इसी तरह इलाहाबाद जंक्शन रेलवे स्टेशन आती. सुबह 7 बजे से दोपहर 2 बजे तक सवारी ढोने का काम चलता रहता. यह तांगा फिरोज़ अहमद का था जिससे वह जीविकोपार्जन के लिए सवारी ढोते थे.
फिरोज़ अहमद गद्दी बिरादरी के (मुसलमानों में यादव) थे जिनकी इलाहाबाद पश्चिमी और नवाबगंज के ग्रामीण क्षेत्रों में अच्छी आबादी है. यह लोग शौकिया घोड़े और व्यवसायिक रूप से गाय, भैंस, बकरी इत्यादि पाल कर दूध का व्यवसाय करने के लिए जाने जाते हैं.
इस बिरादरी का परंपरागत पहनावा सफेद कुर्ता, सफेद तहमद और सफेद साफा था. अतीक अहमद जीवन भर इसी वेशभूषा को धारण किए रहे.
कसरिया या कसारी मसारी फिरोज अहमद का पुस्तैनी गांव था, उसी गांव के चकिया मुहल्ले में फिरोज अहमद ने 1972 में घर बनवाया और अपने दो बेटों अतीक अहमद और खालिद अज़ीम उर्फ अशरफ तथा तीन बेटियों शाहीन और परवीन और सीमा के साथ चकिया में रहने लगे.
10 अगस्त 1962 को जन्म लेने वाले और जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही उम्र के 17वें साल में अतीक अहमद पर पहला केस दर्ज हुआ और वर्ष 1979 में अतीक अहमद पर अपने गांव कसारी-मसारी में ही भेंड़ चराने वाले लड़के की हत्या का आरोप लगा और वह इसमें नामजद हो गये. आरोप था कि झगड़े में उस लड़के के सर पर चोट लगी और वह मर गया.
अतीक अहमद कक्षा 8 पास थे. दसवीं में फेल होने के बाद पढ़ाई छोड़ चुके थे और वह दोपहर बाद अक्सर अपने अब्बा फिरोज अहमद के उसी घोड़े पर बैठकर इलाहाबाद के पुराने इलाके नखासकोना, अटाला और रोशनबाग में आया करते थे.
1984 में रोशनबाग के छोटे-मोटे दबंग वाहिद राइफल (बदला हुआ नाम) के यहां अतीक अहमद बैठकी लगाते थे, कभी कभी होटल से चाय भी लाते थे, वाहिद राइफल के लिए पान लाते थे.
चुंकि अतीक अहमद बेहतरीन घुड़सवारी और पहलवानी करते थे, इसलिए कम लोगों को पता होगा कि उन्हें लोग ‘पहलवान’ के नाम से जानते थे.
सफेद घोड़े पर बैठकर सफेद कुर्ता, सफेद तहमद और सफेद साफा बांधे लंबी मूंछों वाले अतीक अहमद रोशन बाग, अटाला और नखास कोहना पर पहचाने जाने लगे.
उस समय इलाहाबाद में ‘भुक्खल महाराज’ का एकछत्र राज था. उनके पिता पंडित जगत नारायण करवरिया की कौशांबी (उस समय कौशांबी इलाहाबाद का हिस्सा था) में धाक थी.
पंडित जगत नारायण करवरिया कौशांबी के घाटों और बालू खनन के बेताज बादशाह थे. उनके दो बेटे थे श्याम नारायण करवरिया उर्फ़ मौला महाराज और विशिष्ट नारायण करवरिया ऊर्फ भुक्खल महाराज. भुक्खल महाराज अपने समय के सबसे बड़े बमबाज थे.
यह दोनों भाई इलाहाबाद आए और शहर के कल्याणी देवी मुहल्ले में हवेली बनवा कर रहने लगे और बालू खनन के साथ साथ रियल स्टेट के धंधे के बेताज बादशाह बनकर उभरे.
शहर में घर खाली करवाने या विवादास्पद जमीन मकान खरीदने के मामले में यह लोग सिद्धहस्त हो गये और इससे काफी संपत्ति बनाई, तब इलाहाबाद में भुक्खल महाराज का एकछत्र सिक्का चलता था. उनके नाम की दहशत थी.
दरअसल इलाहाबाद गंगा जमुना के घाटों से बालू खनन के लिए प्रसिद्ध है, और गंगा तथा जमुना से बालू निकालने के लिए यहां दर्जनों घाट हैं. और यहां का रिवाज है कि जिसकी सरकार, उसके लोगों की घाट और घाट का बालू. कांग्रेस की सरकारों में करवरिया इन घाटों के बेताज बादशाह थे.
भुक्खल महाराज का दुर्भाग्य कहिए या अतीक अहमद का सौभाग्य कि कौशांबी का रास्ता चकिया से होकर गुजरता था. अब भी गुज़रता है. भुक्खल महाराज जब भी कौशांबी जाते तो तमाम जिप्सी और महेंद्रा जीप की गाड़ियों के काफिले में उनके बैठे लोग अपने असलहे बाहर निकाले रहते.
अतीक अहमद को यह नागवार लगता कि कोई उनके मुहल्ले से असलहों का प्रदर्शन करते हुए जाए. कहते हैं कि एक दिन उन्होंने हाथों में असलहा लिए भुक्कल महाराज का काफिला रोक लिया और दबंगई से चेतावनी दी कि कल से काफिला गुज़रे तो असलहा गाड़ी के बाहर दिखाई ना दे वर्ना ….!
भुक्कल महाराज की काफी उम्र हो चुकी थी, पंगा लेने की बजाय उन्होंने अक्लमंदी दिखाई और अगली बार से काफिले ने रास्ता ही बदल दिया. शहर में इसे लेकर सनसनी फैली और इस घटना ने 23-24 साल के अतीक अहमद को शहर में चर्चित कर दिया.
यह दौर था जब इलाहाबाद में सलीम शेरवानी की टार्च और बैटरी ‘जीप इंडस्ट्रियल सिंडिकेट’ की भारत में तूती बोलती थी.
उसी दौर में संभवतः 1984-85 में जीप इंडस्ट्रियल सिंडिकेट के कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी थी और कहा जाता है कि सलीम शेरवानी ने तब हड़ताल खत्म कराने के लिए अतीक अहमद की मदद ली और अतीक अहमद ने हर कर्मचारी के घर जाकर अपनी दबंगई से उन्हें मजबूर किया कि वह काम पर आएं, और हड़ताल खत्म हो गयी.
इसके बाद अतीक अहमद इलाहाबाद में दबंग के तौर पर पहचान बनाने में कामयाब हुए.
मगर उन्होंने तब तक ना किसी से हफ्ता वसूला, ना किसी को परेशान किया, ना किसी की ज़मीन मकान कब्जा किया, ना किसी की बहन बेटी की तरफ गलत नज़र उठाई. और उसी समय क्यों ? उनका अपराधिक जीवन जैसा भी हो, पर उन्होंने मरते दम तक कभी किसी की बहन बेटी की तरफ बुरी नज़र नहीं डाली.
सन 1989-90 के उसी दौर में इलाहाबाद नगर महापालिका के पार्षद का चुनाव होने वाला था और तब किसी आरोप में अतीक अहमद जेल में थे. और वहीं से वह चकिया से निर्दलीय सभासद के प्रत्याशी बने तो शहर भर में हाथ में बेड़ियों और जेल की सलाखों को पकड़े अतीक अहमद के बड़े-बड़े कट आऊट इलाहाबाद की सड़कों पर पट गये.
सभासद के चुनाव में सरायगढ़ी और नखासकोना से निर्दलीय ही खड़े हुए ‘चांद बाबा’, ‘चांद बाबा’ हाफ़िज़ कुरान थे. 5 फीट 2 इन्च के पतले दुबले और सर पर हर वक्त गोल टोपी पहने उलट खोपड़ी वाले ‘चांद बाबा’ के नाम सरायगढ़ी में जिस्मफरोशी का धंधा करने वाली औरतों को लगातार बम मार कर मीरगंज भगाने का कारनामा दर्ज हो चुका था.
उसी समय इलाहाबाद में चौक के आसपास ‘चांद बाबा’ नाम का खौफ था. नाम इतना बड़ा की पुलिस भी चांद बाबा से पंगे लेने से कतराती थी. ना सिर्फ पुलिस बल्कि नेता भी चांद बाबा के अपराधिक वर्चस्व से डरते थे.
चांद बाबा उलट दिमाग का शख्स था. बात करते करते आऊट हो जाता था. तुरंत ब्लड प्रेशर हाई, तुरंत गाली गलौज करने लगता और मारपीट शुरू कर देता था. उसका गैंग भी वैसा ही खतरनाक था, जिसमें जग्गा और छम्मन जैसे खतरनाक बमबाज शामिल थे.
कहा जाता है कि कि इलाहाबाद की कोतवाली का गेट तक चांद बाबा के डर से उस समय बंद हो गया था, जो कभी भी बंद नहीं हुआ करता था, ना फिर कभी बंद हुआ.
इस चुनाव में अतीक अहमद ने जेल से ही जीत दर्ज की और चांद बाबा ने भी जीत दर्ज की. और शहर में चांद बाबा के सामने अतीक अहमद आ खड़े हुए.
कहा जाता है कि चांद बाबा से आजिज़ पुलिस और स्थानीय नेताओं विशेष कर इलाहाबाद उत्तरी से कांग्रेस के तत्कालीन विधायक ने चांद बाबा के बराबर अतीक अहमद को खड़ा करने में खूब मदद किया.
कौन था ‘चांद बाबा’ ?
अतीक अहमद पर आने से पहले समझिए कि ‘चांद बाबा’ क्या था ? तब यह आलेख सही से समझ में आएगी.
दरअसल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से उथल-पुथल शहर के हम्माम गली में रहने वाला ‘शौक ए इलाही उर्फ चांद हड्डी’ हार्डकोर क्रिमिनल था. उसके जुर्म का इतिहास सराए गढ़ी के हमाम गली में झाड़ फूंक करने वाले एक बाबा की हत्या से शुरू हुआ. चांद हड्डी को शक था कि उसके बड़े भाई रहमत की मौत बाबा के झाड़ फूंक की वजह से हुई है.
इस घटना से चांद हड्डी, चांद बाबा बन गया. चांद बाबा के खिलाफ शाहगंज थाने में एफआईआर दर्ज हुई और चांद बाबा को गिरफ्तार करके नैनी जेल भेज दिया गया.
जेल से जमानत पर छूटते ही चांद बाबा अपने बड़े भाई रहमत के करीबी दोस्त को गोलियों से भून दिया क्योंकि चांद बाबा को शक था कि यह खास दोस्त भी रहमत की मौत का ज़िम्मेदार है.
यहां से शुरू होता है चांद बाबा के जुर्म का दौर. और चांद बाबा ने तीसरी हत्या अपने वकील की ही कर दी, जब वकील की उसके साथ किसी बात पर बहस हो गई. वकील का सीना पहले चांद बाबा ने गोलियों से छलनी किया, फिर बम मार कर उसके शव को चिथड़े चिथड़े कर दिया.
चांद बाबा के खिलाफ मुकदमों की फेहरिस्त लंबी होती चली गई और चांद बाबा ने सरेंडर कर दिया.
चांद बाबा को नैनी सेंट्रल जेल भेज दिया गया. नैनी सेंट्रल जेल में चांद बाबा की एक मांग ना मांगे जाने पर चांद बाबा ने जेल में रहते हुए अपने साथी जग्गा के साथ नैनी सेंट्रल जेल के जेलर पर बमों से हमला करवा दिया.
कुछ दिनों के बाद चांद बाबा ज़मानत पर बाहर आ चुका था. चांद बाबा अपने गैंग का विस्तार करने लगा और कुछ ही समय में उसके गैंग में 100 से 150 शातिर अपराधी और बमबाज शामिल हो गए. और यह इलाहाबाद के तमाम मुहल्ले तक फैल गये.
उसी समय गढ़ी सराय में चकलाघर चलते थे. इसके संचालक थे ‘अच्छे’ और उसका भाई ‘लड्डन.’ यह छोटे मोटे बदमाश थे जो वैश्यावृत्ति की दलाली किया करते थे.
मुहल्ले वालों के निवेदन पर चांद बाबा ने मोर्चा संभाला और अच्छे ऐंड ब्रदर्स के साथ भयंकर बमबाजी हुई. और अंत में चांद बाबा ने इस इलाके से वेश्याओं के घरों पर बम मार मार कर मीरगंज तक भगा दिया और सरायगढ़ी क्षेत्र खाली हो गया. इससे चांद बाबा का प्रभाव शहर में और बढ़ गया.
चांद बाबा का नाम शहर की हर अपराधिक घटना में आने लगा और पुलिस तथा प्रशासन की नाक में चांद बाबा ने दम कर दिया.
पुलिस ने चांद बाबा को पकड़ने का प्रयास शुरू किया. उस समय शहर के कोतवाल आए नवरंग सिंह ने जून 1986 के एक दिन सारे थानों की पुलिस बुलाकर चांद बाबा की घेराबंदी शुरू कर दी. मगर चांद बाबा और उसके गैंग के सभी लोग बमबाजी करते हुए पुलिस को चकमा देकर भाग निकले.
इससे गुस्से में आया चांद बाबा अगले ही दिन अपने गैंग के साथ शहर कोतवाली पर ही धावा बोल दिया और कोतवाली पर इतने बम बरसाए कि बमों की मार से शहर कोतवाली दहल गयी. पुलिस ने किसी तरह कोतवाली का गेट बंद करके अपनी जान बचाई.
कोतवाली पर आक्रमण से गुस्से में आई पुलिस और चांद बाबा के बीच चूहे बिल्ली का खेल शुरू हो गया. पुलिस ने चांद बाबा के घर के पास हम्माम गली में ही एक पुलिस चौकी स्थापित की, जिसे कुछ ही दिनों में चांद बाबा और उसके गैंग ने बमों से उड़ा दिया.
पुलिस पर दोहरे आक्रमण से पुलिस ने अब चांद बाबा के खिलाफ कार्रवाई को अपने मान सम्मान से जोड़ लिया और ताबड़तोड़ छापेमारी करने लगी.
तब शहर उत्तरी के तत्कालीन कांग्रेस विधायक ने चांद बाबा को अपने पास बुलाया और उन्हें सरेंडर करने की सलाह दी. और 1988 में चांद बाबा सरेंडर करके जेल चला गया.
जेल से ही 1989 के सभासद के चुनाव में चांद बाबा ने नामांकन कर दिया और जीत दर्ज की. कुछ ही दिनों बाद चांद बाबा को सशर्त जमानत मिल गई और नैनी जेल से चांद बाबा को लेने शहर से भारी हुजूम उमड़ पड़ा. अतीक अहमद खुद खुली जिप्सी में चांद बाबा को नैनी जेल से पूरे जुलूस के साथ लेकर शहर आए.
1989 के शुरुआती दिनों तक ज़िले के दो दबंग अपराध के आरोप लिए और कानून को चुनौती देते अतीक अहमद और चांद बाबा इलाहाबाद में चर्चित हो चुके थे. और तब तक इलाहाबाद दंगों का इतिहास समेटे हुए चल रहा था.
जो लोग इलाहाबाद को जानते हैं वह इलाहाबाद की भौगोलिक स्थिति को भी जानते होंगे. इलाहाबाद जंक्शन सिटी साईड के सामने मुख्य सड़क लीडर रोड आगे बढ़ती हुई जानसेनगंज तक जाती है और फिर हिवेट रोड से होती हुई यह रामबाग तक पहुंचती है. इलाहाबाद से गुज़रने वाली यह दूसरी जीटी रोड है. पहली जीटी रोड चौक नखास कोहना, खुल्दाबाद, हिम्मत गंज और चकिया होकर निकलती है.
यह सड़क इलाहाबाद को दो हिस्सों में बांटती है. इसके दाहिनी तरफ मुसलमान बहुल इलाके आते हैं और दूसरी तरफ हिन्दू बहुल इलाके आते हैं. इन मुहल्लों में अक्सर दंगे हो जाते थे जो बहुत बड़े तो नहीं पर शहर को अस्थिर करने के लिए काफ़ी थे. शौक ए इलाही उर्फ चांद बाबा घनघोर धार्मिक व्यक्ति था. इलाहाबाद में हुए अक्सर दंगों में वह शामिल रहता था.
इलाहाबाद रेलवे स्टेशन और चौक से 2 किमी और दूर ही मुस्लिम बहुल इलाके में उत्तर प्रदेश आवास विकास परिषद की कालोनी है, ‘करैली’ अर्थात गुरु तेग बहादुर नगर. 1979 में बनी शहर के सबसे करीब यह कालोनी अपने निर्माण से ही हिंदू और सिख बहुल थी. इसी कालोनी के बीच में वक्फ़ बोर्ड का एक बहुत पुराना कब्रिस्तान है, जिसमें मौजूद मस्जिद के इक्सटेंशन को लेकर अक्सर शहर का माहौल खराब होता था.
सरकार का कहना था कि आवास विकास परिषद की कालोनी में कानूनन सार्वजनिक धार्मिक स्थल प्रतिबंधित है तो मुस्लिम लोगों का दावा था कि चुंकि यह ज़मीन और कब्रिस्तान वक्फ़ बोर्ड की है इसलिए हम इस पर कुछ भी निर्माण कर सकते हैं.
चुंकि यह कालोनी मुस्लिम क्षेत्र में थी और 99% मुस्लिम मुहल्लों के बीच थी तो धीरे-धीरे हिंदू और सिख भाई लोग अपना मकान बेच बेच कर यहां से जाने लगे. फिर 1984 के सिख विरोधी दंगों ने सिख भाइयों को यहां से घर बेचकर जाने को मजबूर कर दिया.
फिर संभवतः 1985 या 1986 के एक दिन शौक ए इलाही उर्फ चांद बाबा ने ऐलान किया कि शहर से करैली को जोड़ने वाली नूरुल्लाह रोड को ब्लाक करके 24 घंटे के अंदर मस्जिद के निर्माण को पूरा किया जाएगा, जो भी इसके बीच में आएगा बम से मारा जाएगा.
पूरे शहर में भारी सांप्रदायिक तनाव और डर फैल गया था और चांद बाबा और उसके गैंग के लोगों ने वैसा ही किया. और नूरूल्लाह रोड को 24 घंटे के लिए ब्लॉक कर दिया और लगातार बम बरसाते रहे तथा उस मस्जिद में 24 घंटे के अंदर कुछ नवनिर्माण करा दिए गए. 24 घंटे के बाद भारी पुलिस बल के साथ आवास विकास परिषद के लोगों ने मस्जिद का कुछ नवनिर्मित हिस्सा हटा भी दिया.
मगर इस घटना से करैली से गैरमुस्लिमों का पलायन शुरू होने लगा, यह सभी लोग मुसलमानों को औने-पौने दामों में अपने मकान और जमीन बेचकर जाने लगे.
1988 तक चांद बाबा के सभासद बनने के बाद शांतिप्रिय लोगों को शहर में सांप्रदायिक झड़प और दंगों का डर सताने लगा.
उलट खोपड़ी और सनकी ‘चांद बाबा’ क्या ऐलान कर दे, यह उस दौर में हर एक को डराने लगा और गैर-मुस्लिम लोग करैली छोड़ कर जाने लगे.
चांद बाबा की हत्या और अतीक अहमद का उदय
डरते-डरते शहर के सामने आ गया 1989 का विधान सभा चुनाव, और अतीक अहमद ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर नामांकन कर दिया.
अतीक अहमद को नामांकन करता देख आगबबूला ‘चांद बाबा’ ने भी ऐलान कर दिया कि वह भी विधायक का निर्दलीय उम्मीदवार होगा और अगले दिन ही उसने भी नामांकन कर दिया.
अतीक अहमद ने चांद बाबा को समझाने की कोशिश की, कि मुस्लिम वोट बंट जाएंगे, तो चांद बाबा गालियां देते हुए कहता कि ‘ठीक है चलो तुम नामांकन वापस ले लो, विधायक मैं बनूंगा. तुम जाहिल अनपढ़ विधायक बन कर क्या करोगे ?’
और इसी से अतीक अहमद और चांद बाबा के संबंध खराब हो गये और दोनों दबंग लठैत विधानसभा के चुनाव में आमने-सामने थे.
चुनाव प्रचार शुरू हो चुका था. अतीक अहमद इस चुनाव में नियंत्रित रहते तो चांद बाबा बेहद आक्रामक.
शहर पश्चिमी विधानसभा चुनाव के प्रचार में शहर के अटाला, बुड्ढा ताज़िया, अकबरपुर, करैली में स्टेज से ही चांद बाबा अतीक अहमद को गालियां देता, अनपढ़ गंवार कह कर मज़ाक उड़ाता और इसी सबके बीच दोनों की दुश्मनी बढ़ती गयी.
अतीक अहमद के समर्थन में चांद बाबा से पीड़ित लोग आने लगे. प्रशासन और नेता अतीक अहमद के पक्ष में आने लगे जिसमें शहर उत्तरी से विधायक का चुनाव लड़ रहे उस समय शहर की एक बड़ी हस्ती भी थे, जिनकी प्रशासन पर तगड़ी पकड़ थी.
अपनी कमज़ोर होती स्थिति देखकर चांद बाबा बौखलाने लगा और स्टेज से गालियां बढ़ती चली गयीं. और फिर आ गया मतदान का दिन अर्थात 22 नवंबर 1989.
उस दिन ‘चांद बाबा’ पर सनक सवार थी. हर पोलिंग बूथ पर चांद बाबा जाकर गाली गलौज करता और दोपहर बाद वह पहुंच गया शहर पश्चिमी विधानसभा की सबसे बड़े पोलिंग स्टेशन ‘अटाला’ के मजीदिया इस्लामिया इंटर कालेज.
उसे किसी ने बताया कि यहां पर अतीक अहमद के समर्थन में फर्जी वोटिंग हो रही है, और उसने वहां सबसे पहले मौजूद पुलिस के आला अधिकारियों के साथ बत्तमीज़ी और गाली गलौज की. कुछ लोगों का कहना था कि उसने पुलिस के एक आला अधिकारी की कालर पकड़ कर चुनाव बाद वर्दी उतार लेने की धमकी दी.
तभी उसकी नज़र घोड़े पर बैठे अतीक अहमद के पिता फिरोज़ अहमद पर पड़ी. चांद बाबा पहले तो उनके पास जाकर फ़र्ज़ी मतदान का आरोप लगाकर उन्हें और अतीक अहमद को गंदी-गंदी गालियां दीं और फिर उन्हें घोड़े से नीचे उतार कर उनकी दाढ़ी नोंच ली और उनके ऊपर थूक दिया.
अब यह अति हो गया था. और यह खबर फैलते ही शहर पश्चिमी में एक सनसनी फैल गई कि पुलिस और प्रशासन अवश्य चांद बाबा को गिरफ्तार करेगा. लोगों में डर और संभावित दंगे होने का डर सताने लगा.
मतदान संपन्न होने तक पुलिस और प्रशासन सहनशीलता और ज़िम्मेदारी का परिचय देता रहा. और शाम के 6 बजते-बजते विधानसभा चुनाव का मतदान सकुशल संपन्न हो गया.
22 नवंबर 1989 रात करीब 8.30 से 9 बजे के बीच, स्थान – रोशन बाग ढाल स्थित कवाब पराठे की एक मशहूर दुकान ‘जब्बार होटल.’ मतदान संपन्न होने के बाद चांद बाबा को आरिफ नाम के एक शख्स ने खबर दी कि जब्बार होटल पर अतीक अहमद बैठे हुए खाना खा रहे हैं.
अपने गैंग के लोगों के साथ चांद बाबा अतीक अहमद को मारने जब्बार होटल पहुंचा ही था कि अचानक इस पूरे क्षेत्र की बिजली चली गई और चारों ओर धुप अंधेरा छा गया.
उस क्षेत्र के पुराने लोग कहते हैं कि रोशन बाग के उस रेस्टोरेंट से लगी सभी सड़कें ब्लाक कर दी गयीं और आवागमन ठप हो गया. कुछ लोगों का कहना है कि यह प्रशासन ने किया, कुछ लोग अतीक अहमद के लोगों का काम बता रहे थे.
चांद बाबा घिर गया था. उसके गैंग के लोग मामले को समझ कर भाग खड़े हुए और अकेले चांद बाबा बम पटकते रहे. भाग खड़े होने वालों में उसके सबसे विश्वसनीय जग्गा और छम्मन भी थे.
उस रेस्टोरेंट के आसपास लगातार बमबाजी होने लगी और फिर रात करीब 10 बजे खबर आई कि चांद बाबा की हत्या हो गयी. वहां के पुराने लोगों का कहना है कि रात के अंधेरे में घिर गए चांद बाबा ने भागने की कोशिश नहीं की और अतीक अहमद को गालियां देता रहा और तभी अतीक अहमद वहां पहुंच गए.
पोस्टमार्टम रिपोर्ट में चांद बाबा के शव में सीक कवाब की गरमागरम नुकीली रॉड से 12 सुराख होने की बात कही गई.
एक आम धारणा आज भी है कि यह अतीक अहमद ने अपने हाथों से किया, मगर यह भी सच है कि अतीक अहमद पर चांद बाबा की हत्या का कोई मुकदमा दर्ज नहीं हुआ, और प्रशासन द्वारा अज्ञात लोगों द्वारा की गई हत्या दिखा कर मामले को रफा दफा कर दिया गया.
चांद बाबा की ऐसी वीभत्स हत्या के बाद पूरे इलाहाबाद में अतीक अहमद का खौफ और दबंगई उरूज़ पर आ गयी. उनकी कहीं भी मौजूदगी सनसनी पैदा करने लगी. चांद बाबा से पीड़ित हिन्दू भाई भी अतीक अहमद के प्रति विश्वास करने लगे.
उस समय यह एक जनमानस था कि चांद बाबा की हत्या अतीक अहमद, प्रशासन और शहर उत्तरी के एक विधायक का मिला जुला परिणाम था. हकीकत क्या थी पता नहीं पर एफआईआर अज्ञात लोगों पर हुई जिसे रात के अंधेरे में पहचाना नहीं गया.
अगले ही दिन विधानसभा चुनाव का परिणाम आया और अतीक अहमद निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर 25,906 अर्थात 33.54% वोट पाकर विजयी घोषित हुए. मृतक चांद बाबा 9281 वोट पाकर चौथे स्थान पर रहे. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गोपाल दास यादव 17,804 वोट पाकर दूसरे तो तीरथ राम कोहली निर्दलीय के तौर पर 12,237 वोट पाकर तीसरे स्थान पर रहे.
धर्मनिरपेक्ष राजनीति के प्रबल पक्षधर थे अतीक अहमद
इलाहाबाद पश्चिमी को एक नये विधायक मिले अतीक अहमद, जिनका असर उस समय के युवाओं पर तेज़ी से पड़ रहा था. विधायक बनने के कुछ समय बाद ही करैली मस्जिद में निर्माण का कार्य पुनः शुरू करने का प्रयास हुआ. विधायक अतीक अहमद वहां आ खड़े हुए और मस्जिद के ज़िम्मेदारान को बुला कर ऐसा डांटा कि यह मामला सदैव के लिए शांत हो गया और आज तक शांत है. करैली से इसके बाद पलायन रुक गया.
अतीक अहमद ने अपराध किए होंगे, मामले न्यायालय के समक्ष थे और हैं मगर अतीक अहमद ने इलाहाबाद शहर को दंगा मुक्त बना दिया. जहां सांप्रदायिक तनाव की खबर सुनते बीच में आकर खड़े हो जाते, दंगाईयों को घूर देते तो लोग पीछे हट जाते. अतीक अहमद ने शहर में बमबाजी बंद करा दी.
ऐसी ही एक घटना मुस्लिम बहुल बख्शी बाज़ार की है, जहां से कुछ मुस्लिम लड़के सटे हुए हिन्दू इलाके महाजनी टोला में पत्थरबाजी कर रहे थे. यह चित्र उस समय समाचार पत्रों में प्रमुखता से छपा था कि अतीक अहमद अकेले ही उन लड़कों को बख्शी बाज़ार की तंग गलियों में दौड़ा लिए और कुछ एक को पकड़ कर वहीं पीटने लगे.
ऐसा जहां सांप्रदायिक तनाव होता अतीक अहमद बीच में खड़े मिलते और इलाहाबाद को आजतक दंगा मुक्त कर दिया. नुपुर शर्मा के हालिया विवादास्पद बयान के बाद इलाहाबाद में पिछले साल पुलिस पर पथराव और भड़की हिंसा भी यदि अतीक अहमद (जेल से) बाहर होते तो नहीं होती.
खैर इसके बाद अतीक अहमद को क्षेत्र के हिंदू और सिख भाइयों का समर्थन मिलता चला गया और अतीक अहमद आगे बढ़ते चले गए. राजनीति और अपराध को साथ साथ समेटे हुए.
विधानसभा चुनाव में जनता दल को 208 सीटें मिलीं और मुलायम सिंह यादव भाजपा के 57 विधायक के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. कांग्रेस ने मुलायम सिंह यादव को बाहर से समर्थन दिया.
नवंबर 1989 में अतीक अहमद पहली बार इलाहाबाद पश्चिमी विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीत कर विधायक बने तो उनके दामन में चांद बाबा की खौफनाक हत्या के ऐसे आरोप थे जो जनता के मनमस्तिष्क में घर गये मगर प्रशासन ने कभी उन्हें इसके लिए आरोपित नहीं किया.
विधायक बनते ही अतीक अहमद ने अपने पिता को तांगा चलाने से मना किया और चकिया तिराहे पर ही अपने आफिस के सामने लकड़ी चीरने का एक कारखाना खरीद कर दे दिया, जहां उनके पिता बैठने लगे.
अतीक अहमद का विधायक के तौर पर यह पहला कार्यकाल मात्र दो साल का ही रहा और इन दो सालों में ‘खूंखार’ अतीक अहमद ने अपनी छवि तोड़ कर इलाहाबाद के तमाम बड़े और इज्ज़तदार लोगों से अपने व्यक्तिगत रिश्ते बनाए, दोस्ती की, जिसमें इलाहाबाद के एक सबसे बड़े होटल व्यवसाई सरदार जी थे तो एक भगवा राष्ट्रवादी पार्टी के उस समय के सबसे बड़े नेताओं में से एक नेता भी थे, जो बाद में विधानसभा अध्यक्ष और कई राज्यों के राज्यपाल बने. अतीक अहमद उन्हें चाचा तो वह अतीक अहमद को बेटा मानते थे.
जनता के बीच अपनी खौफनाक छवि तोड़ने के लिए उन्होंने मंसूर पार्क में कैनवास क्रिकेट टूर्नामेंट करवाए और मंहगे-मंहगे प्राइज़ मनी देकर युवाओं को खुद से जोड़ लिया.
अतीक अहमद ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल जब धन कमाने के लिए शूरू किया तब उन्होंने ज़मीन या बालू खनन में हाथ ना डालकर रेलवे के स्क्रेप को खरीदने का टेंडर डालना शुरू किया. करवरिया बंधुओं से एक सामंजस्य बना और करवरिया बंधू अतीक अहमद और अतीक अहमद करवरिया बंधुओं के रास्ते में नहीं आते थे.
रेलवे के इस काम में उन्होंने अकूत दौलत कमाई. ऐसा पब्लिक परसेप्शन है कि रेलवे के स्क्रेप में सोल्डरिंग के लिए प्रयोग में आने वाले चांदी और कापर वगैरह भी भारी मात्रा में स्क्रेप के साथ आ जाते थे, अतीक अहमद की ट्रकें दिन रात स्क्रेप ढोती रहतीं थी.
अतीक अहमद का उभरता धार्मिक उदार व्यक्तित्व
देश और प्रदेश में राम मंदिर आंदोलन शुरू हो चुका था और इसी दौर में शहर के सभी फैसले लेने वाले कांग्रेस के शहर उत्तरी विधायक का सितारा गिरने लगा तथा भगवा राष्ट्रवादी पार्टी के नेताओं का सितारा बुलंद होने लगा.
राष्ट्रीय स्तर पर मार्गदर्शक मंडल में गये इलाहाबाद के एक और नेता का अतीक अहमद के साथ बेहद करीबी संबंध था. बाकी चाचा और बेटे का रिश्ता तो प्रगाढ़ होता चला गया, इतना कि अतीक अहमद इन्हें मौके-मौके पर मंहगे-मंहगे तोहफे देते रहते, जो इलाहाबाद के समाचार पत्रों की सुर्खियां बटोरती.
इनकी बेटी की शादी में अतीक अहमद ने अपने समय की सबसे महंगी कार गिफ्ट की थी. इन्हें इलाहाबाद में अतीक अहमद का गाडफादर कहा जाता था, जिनके रहते अतीक अहमद सदैव सुरक्षित रहे.
खैर , दो सालों में अतीक अहमद ने अपने नेटवर्क को खड़ा किया और हर मुहल्ले और गांव-कस्बे के असरदार लोगों को अपने साथ किया जो शहर पश्चिमी विधानसभा के विभिन्न क्षेत्रों में उनका चुनाव संचालन और मतदान तक की जिम्मेदारी उठाने लगे.
ऐसे लोग अतीक अहमद के करीबी बन कर चुनाव के बाद ज़मीन वगैरह का छोटा-बड़ा कारोबार करते और अतीक अहमद रेलवे के स्क्रेप का खरीद करते और भेजते. इस तरह अतीक अहमद का पूरा साम्राज्य धीरे-धीरे खड़ा और बड़ा होने लगा, जिसमें सबकी कमाई होने लगी और लोग अतीक अहमद की छत्रछाया में आने लगे.
सबका काम धाम चलता रहा. अतीक अहमद के पास जब पैसे आ गये तो उन्होंने उसे ग़रीब लोगों में लुटाना शुरू कर दिया. कोई भी गरीब उनके घर या आफिस से खाली नहीं गया. क्या हिन्दू-क्या मुसलमान, क्या मंदिर-क्या मस्जिद, क्या मोहर्रम-क्या दशहरा, क्या दुर्गा पूजा के पंडाल, अतीक अहमद ने दिल खोलकर पैसे बांटे.
इलाहाबाद में 5 रामलीला कमेटी है, पजावा, पथरचट्टी, कटरा, सिविल लाइंस और चौक.
उस जमाने में 1989 से अगले 15-18 सालों तक अतीक अहमद के दिए चंदे से ही राम लीला कमेटी दशहरे का आयोजन करती थी. रामलीला के मंचन पर अतीक अहमद के नाम के जयकारे लगाते, जो जुलूस निकालता उसमें पहले रथ पर अतीक अहमद के बड़े बड़े कट आऊट खड़ा कराकर ऐलान कराया जाता कि हमेशा की तरह इस बार भी रामलीला का मंचन और रथयात्रा अतीक भाई के सौजन्य से हो रही है. दुर्गा पूजा के पंडाल अतीक अहमद के पैसे से सजने लगे और इसके दानकर्ताओं में अतीक अहमद का नाम प्रमुखता से लिखा जाता था.
गरीबों और जरुरतमंदों के मददगार अतीक अहमद
शहर में जिसे चंदा चाहिए अतीक अहमद के पास पहुंच जाता था, कोई बीमार है तो मदद के लिए अतीक अहमद के पास पहुंच जाता, कोई गरीब है तो अतीक अहमद के पास पहुंच जाता, गरीब की बेटी की शादी है लोग अतीक अहमद के यहां मदद के लिए पहुंच जाते थे, कार्ड लेकर अतीक अहमद रख लेते और अपने लोगों से इस परिवार की आर्थिक स्थिति का पता लगवाते, यदि वाकई ज़रूरत मंद है तो पूरी शादी का खर्च कर देते.
इलाहाबाद के एक मशहूर टीवी फ्रिज के दुकानदार से शादी का पूरा इलेक्ट्रॉनिक सामान ऐसे गरीब बेटियों की शादी में भेजवाते रहते जिसमें टीवी, फ्रिज, रेफ्रिजरेटर इत्यादि सामान होते थे. कभी दिन में दो सेट तो कभी 5 सेट और उस दुकानदार को बुलाकर पाई-पाई का पेमेंट करते.
क्या इलाहाबाद विश्वविद्यालय और क्या डिग्री कालेज के चुनाव, हर उम्मीदवार अतीक अहमद से चंदा मांगने पहुंच जाता. अतीक अहमद हिन्दू मुस्लिम नहीं देखते.
आज अतीक अहमद को राक्षस बनाने में जुटा मीडिया उस दौर में उन्हें मसीहा बना कर फ्रंटपेज का विज्ञापन बटोरता था. अतीक अहमद की प्रशंसा में कई-कई पेज भरे रहते. अतीक अहमद के घर का दरवाज़ा सबके लिए हमेशा खुला रहता था. अगर फरियादी हिंदू है तो अतीक अहमद की तत्परता देखते बनती.
अतीक अहमद के सबसे विश्वसनीय लोगों में हिंदू विशेषकर ब्राह्मण लोग ही थे. उनके वकील दया शंकर मिश्र और विजय मिश्र से लेकर उनका वित्तीय और कारोबारी साम्राज्य संभालने वाले एक मिश्रा जी ही थे. मुसलमान लोग तो बस रायफल उठाए उनके काफिले में पीछे पीछे चलते थे.
उनकी हत्या के बाद उनके घर के हिंदू पड़ोसियों का उनके बारे में क्या कहना है आप इस वीडियो में सुन सकते हैं –
प्रचंड राम मंदिर आंदोलन की लहर में भी अतीक अहमद का विधायक बनना और मुकदमों का सिलसिला
अतीक अहमद का पहला कार्यकाल मात्र 2 साल का ही था और जनता दल के टूटने के बाद ही मुलायम सिंह यादव की सरकार गिर गई और मुलायम सिंह यादव ने ‘समाजवादी पार्टी’ की स्थापना की.
1991 में प्रचंड राम मंदिर आंदोलन की लहर में विधानसभा चुनाव हुआ और अतीक अहमद इस बार भी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में पहले से अधिक वोटों से जीत दर्ज की और 36,424 वोट पाकर बीजेपी उम्मीदवार रामचंद्र जायसवाल को 15743 वोटों से हरा दिया।
तो समझिए कि राम मंदिर आंदोलन और लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्रा से उपजे सांप्रदायिक वातावरण में भी अतीक अहमद इलाहाबाद शहर पश्चिमी से दूसरी बार निर्दलीय निर्वाचित हुए तो वह केवल मुसलमानों का वोट पाकर तो विजयी नहीं हुए होंगे जबकि कुल पड़े मतों में से अतीक अहमद ने 51.26 प्रतिशत वोट प्राप्त कर सफलता हासिल की थी.
इसी चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश में विधानसभा की 415 में से 221 सीट जीत कर कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई और कल्याण सिंह सरकार में इलाहाबाद पुलिस ने 1992 में अतीक अहमद के आरोपों की सूची घोषित की और बताया कि अतीक अहमद के खिलाफ उत्तर प्रदेश के लखनऊ, कौशाम्बी, चित्रकूट, इलाहाबाद ही नहीं बल्कि बिहार राज्य में भी हत्या, अपहरण, जबरन वसूली आदि के मामले दर्ज हैं. हालांकि अतीक अहमद के खिलाफ सबसे ज्यादा मामले इलाहाबाद जिले में ही दर्ज हुए.
यह सब मायावती के शासनकाल में दर्ज हुए थे, जिसमें एक दिन में 100 मुकदमे भी दर्ज कराए गए जिसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्क्वैश कर दिया और तमाम तमाम मुकदमे में अतीक अहमद बाईज्जत बरी भी हुए, जिनमें अख्तर हत्याकांड, नीटू सरदार हत्या कांड, बंगाली होटल की रंगदारी इत्यादि शामिल थी.
चाचा-भतीजा की जुगलबंदी के कारण अतीक अहमद पर पुलिस कार्रवाई नहीं हो सकी और अतीक अहमद का साम्राज्य और हनक बढ़ता गया और राष्ट्रवादी पार्टी के ही वरिष्ठ नेताओं की छत्रछाया में अतीक अहमद शहर में अपनी पकड़ बनाते चले गए.
बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद भी दंगों से अछूता रहा इलाहाबाद
6 दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार बर्खास्त हो गयी और विधानसभा भंग कर दी गई. पूरे देश और प्रदेश में सांप्रदायिक तनाव फैल गया मगर इलाहाबाद इससे अछूता रहा क्योंकि तब अतीक अहमद खुली जीप में अकेले पूरे शहर का दौरा करके लोगों को शांत बनाए रखने में सफल हुए. क्या हिन्दू मोहल्ले क्या मुस्लिम मोहल्ले अतीक अहमद बेधड़क सबके बीच खुली जीप से जाकर विश्वास बहाल करने में सफल हुए.
1993 में फिर उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव हुआ और अतीक अहमद फिर निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में जनता के सामने थे और बाबरी मस्जिद की शहादत और राम मंदिर और सांप्रदायिकता से भरे राजनैतिक वातावरण में अतीक अहमद ने निर्दलीय के रूप में जीत का क्रम जारी रखा और इस बार कुल 49.85 प्रतिशत वोट प्राप्त कर बीजेपी के प्रत्याशी तीरथराम कोहली को शिकस्त दी.
इन तीनों बैक टू बैक जीत के बाद अतीक अहमद इलाहाबाद के बेताज बादशाह बन चुके थे. राज्य में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के ‘मिले मुलायम कांशीराम’ गठबंधन के बावजूद उत्तर प्रदेश विधानसभा त्रिशंकु चुनी गई, इसमें भाजपा को 177, समाजवादी पार्टी को 109, बहुजन समाज पार्टी को 67 सीटें प्राप्त हुईं. अर्थात कुल 176 सीट ही प्राप्त हुई.
और इसी कारण निर्दलीय अतीक अहमद महत्वपूर्ण हो गये. बसपा तथा निर्दलीयों के समर्थन से 04 दिसंबर 1993 को मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली.
अब सत्ता और ताकत अतीक अहमद के इर्द-गिर्द घूमने लगी. मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव से सीधे संबंध के कारण इलाहाबाद और प्रदेश का पुलिस प्रशासन उस दौर में अतीक अहमद के सामने नतमस्तक था. अतीक अहमद की सहमति के बिना इलाहाबाद में कुछ हो जाए संभव ही नहीं था.
जिलाधिकारी और कप्तान हुकूम बजाने के लिए उनके दरवाजे पर खड़े रहते और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव जब भी इलाहाबाद आते तो अतीक अहमद के मेहमान होते थे. इससे अतीक अहमद की हनक और बढ़ती चली गयी.
जरुरतमंदों की मदद का जुनून था अतीक अहमद को
मगर इस सबके बावजूद अतीक अहमद ने तीन काम बखूबी किया, पहली यह कि लोगों की मदद करने का काम जारी रखा और खुद की छवि मसीहा की बना ली और दूसरे, ज़मीन और किसी बहन बेटी पर गलत नज़र से खुद को दूर रखा और तीसरे, किसी बड़ी शख्सियत से कभी टकराव मोल नहीं लिया.
लोगों की मदद करने का जुनून ऐसा था कि इसी दौर में एक प्रत्यक्षदर्शी के अनुसार वह अतीक अहमद के पास इलाहाबाद के एक नामी स्कूल में अपने भतीजे के एडमिशन के लिए गया था. वह एक गरीब हिन्दू महिला जो एक डॉक्टर का पर्चा लिए उनके पास आई थी, उससे बात कर रहे थे. अतीक अहमद ने उसे उस दौर में ₹10 हज़ार दिए और ज़रूरत पड़ने पर फिर आकर लेने को कहा.
वह महिला जैसे ही उनके आफिस से निकली सामने लकड़ी की टाल पर बैठे अतीक अहमद के पिता ने उसके हाथ से पैसे छीने और उसमें से ₹100/- देकर उल्टा सीधा बोलकर उस महिला को भगा दिया.
अतीक अहमद को जब यह बात पता चली तो वह गुस्से से वहीं पड़ी कुर्सी उठाकर अपने पिता के ऊपर पटक दिए और उनके हाथ से पैसे लेकर उस महिला को दे दिया और कहा कि उनके द्वारा लोगों को मदद करते वह देख नहीं सकते तो घर बैठें, यहां बैठने की ज़रूरत नहीं है.
सैकड़ों लोग गवाह थे कि उन्होंने अपने पिता को आफिस आने से रोक दिया और उनके पिता फिर कभी उनके आफिस नहीं आए.
1993 से 1995 के बीच अतीक अहमद लोगों के लिए मसीहा बनकर उभरे, क्या हिन्दू क्या मुसलमान, लोग इज्ज़त से उनको ‘भाई’ कहने लगे. इलाहाबाद में ‘भाई’ का मतलब ‘अतीक अहमद’ हो गया.
अतीक अहमद की सबसे बड़ी राजनीतिक गलती
फिर 2 जून 1995 मायावती ने मुलायम सिंह यादव सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और मुलायम सिंह यादव सरकार अल्पमत में आ गयी. सरकार को बचाने के लिए जोड़-घटाव किए जाने लगे. ऐसे में अंत में जब बात नहीं बनी तो नाराज सपा के कार्यकर्ता और विधायक लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित स्टेट गेस्ट हाउस पहुंच गए, जहां मायावती कमरा नंबर-1 में ठहरी हुई थीं.
2 जून 1995 के दिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में जो हुआ वह शायद ही कहीं हुआ. 2 जून 1995 को मायावती लखनऊ के स्टेट गेस्ट हाउस के कमरा नंबर एक में अपने विधायकों के साथ बैठक कर रही थीं कि तभी दोपहर करीब तीन बजे कथित समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं और विधायकों की भीड़ ने अचानक गेस्ट हाउस पर हमला बोल दिया.
उस दिन एक समाजवादी पार्टी के विधायकों और समर्थकों की उन्मादी भीड़ ने सबक सिखाने के नाम पर दलित महिला नेता की आबरू पर हमला किया और इसमें अतीक अहमद का नाम सबसे अधिक उछला.
यह राजनैतिक जीवन में अतीक अहमद की पहली और सबसे बड़ी गलती थी, जो अतीक अहमद असरदार लोगों से दोस्ती के लिए जाने जाते थे उनका नाम मायावती के चीरहरण करने में सबसे उपर था. मायावती कई बार मंचों से ऐलान कर भी चुकी हैं कि अतीक अहमद ने उन्हें गेस्ट हाउस में मारने की साजिश रची थी.
कहते हैं कि तब गेस्ट हाउस में मायावती ने भाग कर खुद को एक कमरे में बंद कर लिया. गेस्ट हाउस की बिजली पानी काट दी गई. 4 घंटे बाद जब कमरा खुला तब तक उत्तर प्रदेश की राजनीति बदल चुकी थी और भारतीय जनता पार्टी ने मायावती को समर्थन देने का ऐलान कर दिया. अगले ही दिन मायावती ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली और अतीक अहमद उनके रडार पर आ गये.
मायावती ने अपने शासन काल में अतीक पर कानूनी शिकंजा कसा और उसकी संपत्तियों पर बुलडोजर चलवाया और तमाम तरह की बड़ी कार्रवाई हुई. यूपी में मायावती की सरकार में अतीक हमेशा जेल में ही रहे.
नैनी जेल अतीक अहमद का कार्यालय बन गया, जहां लोग बेधड़क अतीक अहमद का नाम बताकर अंदर चले जाते थे. चुंकि वह विधायक थे इसलिए वीआईपी मालवीय कक्ष ही उनका बैरक था, वहीं अतीक अहमद का दरबार लगता था. चाचा का वरदहस्त जारी था.
मगर बसपा जब जब सत्ता में थी तब अतीक अहमद का ऑफिस गिरवाया गया. सिविल लाइंस जैसे पाश एरिया में उनका शापिंग कांप्लेक्स गिराया गया और उसकी संपत्तियों को जब्त किया गया. और यहीं से अतीक अहमद कानूनी शिकंजे में फंसते गये. अतीक अहमद की बड़ी गलतियों में गेस्ट हाउस कांड सबसे बड़ी गलती थी. उन्हें राजनीतिक आवेश से बचना चाहिए था.
अतीक अहमद का सादगी भरा निकाह
मायावती सरकार से भाजपा द्वारा समर्थन वापस लेने के कारण उत्तर प्रदेश में फिर राष्ट्रपति शासन लगा और इसी सबके बीच अतीक अहमद ने 6 अगस्त 1996 को एक मस्जिद में उत्तर प्रदेश पुलिस के एक रिटायर्ड पुलिस कांस्टेबल मोहम्मद हारून की बेटी शाइस्ता परवीन से रिश्ते को कुबूल किया और बेहद सादगी से निकाह कर लिया.
हज़ारों गरीब की शानदार शादियां करवाने वाले अतीक अहमद की शादी इतनी सादगी वाली थी कि किसी को भनक भी नहीं लगी. ऐसा लोग कहते हैं कि अपनी शादी में होने वाले खर्च को बचाकर उन्होंने उसी पैसे से तमाम गरीब बेटियों की शादी करा दी.
साथ ही साथ इलाहाबाद में हर होते अपराध में अतीक अहमद का नाम जुड़ता चला गया, हर होती हत्या पर पहली उंगली अतीक अहमद पर उठने लगी सिवाय सपा विधायक जवाहर पंडित की हत्या के आरोप के.
सपा विधायक जवाहर पंडित की हत्या
13 अगस्त 1996, शाम का वक्त स्थान सिविल लाइंस, इलाहाबाद. जब पूरा क्षेत्र एके-47 की गोलियों की गूंज से तड़तड़ा उठा.
प्रतापपुर से विधायक जवाहर यादव उर्फ जवाहर पंडित की सफेद रंग की मारुति कार इलाहाबाद के सुभाष चौराहे से पत्थर गिरजाघर की तरफ बढ़ रही थी.
गाड़ी गुलाब यादव चला रहे थे और कल्लन यादव जवाहर के साथ पीछे वाली सीट पर बैठे थे. पीछे एक टाटा सूमो लगी थी. पैलेस सिनेमा के ठीक सामने एक तेज रफ्तार टाटा सिएरा आई और जवाहर पंडित की गाड़ी को ओवरटेक करते हुए सामने खड़ी हो गई.
पीछे वाली टाटा सूमो मारुति के एकदम बराबर खड़ी हो गई. सूमो से एके-47 हथियार लेकर निकला रामचंद्र त्रिपाठी उर्फ कल्लू और टाटा सिएरा से चार लोग श्याम नारायण करवरिया उर्फ मौला महाराज, कपिल मुनि करवरिया, सूरजभान करवरिया और उदयभान करवरिया.
मौला महाराज ने AK-47 लिए वह जवाहर पंडित की गाड़ी के पास गए और ललकारते हुए कहा – ‘बाहर निकल जवाहर पंडित.’ धड़-धड़ गोलियां चलने लगीं. तीन लोग सिर्फ जवाहर पंडित पर गोलियां बरसा रहे थे. शहर के सबसे पॉश एरिया में ये पहला मौका था जब AK-47 तड़तड़ाई.
जवाहर पंडित के सिर से लेकर पांव तक गोलियां मारी गईं. सांसें थम गईं. अब गोलियां लगती तो जवाहर यादव की बॉडी 2 इंच ऊपर जंप कर जाती. और बालू खनन में करवरिया बंधुओं को चुनौती दे रहे जवाहर पंडित को गोलियों से छलनी करके हत्या कर दी गई.
बाद में कपिल मुनि करवरिया बसपा से फूलपुर सांसद चुने गए, उनके भाई उदयभान करवरिया बारा से भाजपा विधायक और तीसरे भाई सूरजभान करवरिया भाजपा से एमएलसी बने. बाद में इसी जवाहर पंडित की हत्या के जुर्म में इन सभी करवरिया बंधुओं को अदालत ने उम्रकैद की सज़ा सुनाई. सज़ा के बाद भाजपा ने उदयभान की पत्नी नीलम करवरिया को उसी सीट से विधानसभा का टिकट देकर विधायक बनाया.
मुलायम सिंह यादव की पार्टी के प्रमुख स्तंभ थे अतीक अहमद
खैर, 1996 में फिर उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव हुआ और मुलायम सिंह यादव ने अतीक अहमद को शहर पश्चिमी से समाजवादी पार्टी से उम्मीदवार बना दिया और अतीक अहमद ने इलाहाबाद पश्चिमी सीट से लगातार चौथी बार जीत हासिल किया.
1995 से 2003 तक अगले 8 साल में उत्तर प्रदेश राजनैतिक रूप से अस्थिर रहा. मायावती 3 बार, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह और राम प्रसाद गुप्ता मुख्यमंत्री बने, जिसमें मायावती के काल में अतीक अहमद पर प्रशासन की नज़र टेढ़ी रही और जेल में ही रहे. तो भाजपा की सरकारों में अतीक अहमद अपने राष्ट्रवादी चाचाओं के बदौलत जेल से बाहर रहे और उसी हनक के साथ अपने दबदबे को कायम रखा.
इस बीच अतीक अहमद और 23 अगस्त 2003 को उत्तर प्रदेश के पुनः मुख्यमंत्री बने मुलायम सिंह यादव के संबंध और प्रगाढ़ होते चले गए. मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी के विस्तार के लिए अतीक अहमद के हनक और दबंगई का खूब प्रयोग किया.
उस दौर में अतीक अहमद इलाहाबाद और इसके आसपास, राजा भैया प्रतापगढ़ और उसके आसपास, रमाकांत यादव आजमगढ़ और उसके आसपास, डीपी यादव पश्चिम में मुलायम सिंह यादव के प्रमुख स्तंभ थे.
यह कहने में संकोच ही नहीं कि मुलायम सिंह यादव की सबसे बड़ी ताकत यही लोग थे. इनके बदौलत ही वह समाजवादी पार्टी का विस्तार करते, चुनाव जीतते और सरकार बनाते थे. मगर अब तक अतीक अहमद ने बालू खनन में उतरकर ना तो करवरिया बंधुओं से दुश्मनी मोल ली, न ही ज़मीन के कामों में उतर कर अपने लोगों के काम में दखल दिया.
हालांकि अतीक अहमद अपराधों के तमाम आरोपों के साथ राजनीति की दुनिया में बड़ा नाम करते चले गए. किसी ने उनका उपयोग किया तो किसी ने उनसे प्रयोग करवाया और उनकी ऐसी दहशत फैली कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के 10 न्यायधीशों ने उनके खिलाफ मुकदमे को सुनने से मना कर दिया और सुनवाई से खुद को अलग कर दिया.
अतीक अहमद पर एक भी हिंदू की हत्या या उनको प्रताड़ित करने का आरोप नहीं
अतीक अहमद पर हत्याओं और अन्य अपराधों के जितने भी आरोप थे वह सब मुसलमानों की हत्याओं के ही थे जिसमें जग्गा से लेकर अख्तर इत्यादि की हत्याओं के थे. इसमें अधिकतर लोग छोटे मोटे गुंडे थे या उनसे गैंग से दूर होकर अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए अतीक अहमद के साम्राज्य को चुनौती दे रहे थे या अतीक की जान के दुश्मन थे.
किसी गरीब या सामान्य आम इन्सान अतीक अहमद के अपराध की जद में कभी नहीं आया. बल्कि उनके लिए अतीक अहमद ‘भाई और मसीहा’ ही रहे.
उनकी हत्या के बाद कुछ लोगों खासकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वकीलों ने भास्कर से बातचीत की है, उसे आप यहां पढ़ सकते हैं. लोगों को चुनाव के लिए पैसे देते और समझाते थे कि ‘ठीक है चुनाव लड़ लो, जीत लो, मगर मां बाप जउन काम से भेजे हैं वह करो और खूब पढ़ो.’
अतीक अहमद पर अब तक किसी भी एक हिंदू की हत्या या उनको प्रताड़ित करने का आरोप नहीं लगा था. इसके इतर उनका मददगार और मसीहा बनने का कार्यक्रम भी उसी तरह चलता रहा और लोगों की खूब मदद की.
इसी दौर में अतीक अहमद के भाई खालिद अज़ीम उर्फ अशरफ का नाम सुना जाने लगा. अशरफ के दोस्तों की बैठकी सिविल लाइंस के एक प्रतिष्ठित रेस्टोरेंट में होने लगी और साथ में अशरफ़ की वजह से बदनामियों ने अतीक अहमद का पीछा करना शुरू कर दिया.
लालू प्रसाद यादव की घोषणा से अतीक अहमद के वित्तीय व्यवस्था पर सबसे गहरी चोट
इसी सबके साथ 2004 में लोकसभा का चुनाव हुआ और देश में डाक्टर मनमोहन सिंह की सरकार बनी और रेलमंत्री बने लालू प्रसाद यादव. शपथ लेते ही लालू प्रसाद यादव ने घोषणा की कि रेलवे के स्क्रेप अब नीलाम नहीं किए जाएंगे, इसे गला कर रेल के पहिए बनाए जाएंगे.
यह अतीक अहमद के वित्तीय व्यवस्था पर अब तक की सबसे करारी चोट थी. अतीक अहमद का रेलवे स्क्रेप का आक्सन बंद हुआ और उनका वित्तीय साम्राज्य हिल गया.
2004 में यूपीए -1 की सरकार बनते ही रेलवे से स्क्रेप खरीद का काम तत्कालीन रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव द्वारा बंद कर दिया गया. तब तक अतीक अहमद अपना खर्च बहुत बढ़ा चुके थे , तमाम दशहरे मुहर्रम में और तमाम जगहों और लोगों को चंदा देने से लेकर गरीब लड़कियों की शादी और पढ़ाई, उनके काफिले में चलते दर्जनों मंहगी कारों और सैकड़ों असलहाधारी लोगों के कारण अतीक अहमद का खर्च बेतहाशा बढ़ गया और स्क्रेप का काम बंद होने से आमदनी शून्य हो गयी.
इधर साथ ही साथ स्क्रेप का काम बंद होने के बाद उन्होंने नये कारोबार की तरफ कदम बढ़ाया तो उनकी छत्रछाया में ज़मीन का काम कर रहे उनके लोग ही उनकी जद में आ गये और लोगों के अनुसार अशरफ ने आगे बढ़कर उनके जमीन के कारोबार में यह कह कर अपना हिस्सा मांगना शुरू कर दिया कि ‘यह कारोबार भाई के नाम पर ही आप लोग करते हैं.’
फिर पहले अशरफ और उसके बाद अतीक अहमद ज़मीन के कारोबार में पूरी तरह उतर गये. यहीं से उनकी जनता के बीच छवि बदलनी शुरू हो गयी.
इलाहाबाद में उनके लोगों द्वारा हर ज़मीन या मकान की खरीद फरोख्त में उन्होंने हिस्सा लेना शुरू कर दिया. विवादित, झगड़े या किराएदारी की पुरानी बिल्डिंग औने पौने दामों में खरीदनी शुरू कर दी. ऐसी ज़मीन जो किसी और के नाम की कब्ज़ा किसी और का ऐसे लोग अतीक अहमद को अपनी ज़मीन औने पौने दामों में बेचने लगे.
जो किराएदार सीलिंग एक्ट में 50-50 साल से मुकदमा लड़ रहे थे वह अतीक अहमद द्वारा प्रापर्टी खरीदने की सूचना मिलते ही खाली करके चले जाते. ज़मीन के कारोबार में अतीक और अशरफ़ ने अपनी दबंगई के सहारे अंधाधुंध खेल खेला, और अलीना सिटी और अहमद सिटी नामक हाऊसिंग सोसाइटी बना कर लोगों को प्लाट बेचने लगे.
अखिलेश सरकार में सपा से बिगड़ते रिश्ते
अतीक अहमद फिर समाजवादी पार्टी से श्रावस्ती से 2014 का चुनाव लड़े जहां से उन्हें फिर हार मिली. 2017 के पहले तक अतीक अहमद और तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के संबंध बहुत मधुर नहीं रहे और कौशांबी में हुई एक सभा में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अतीक अहमद को सार्वजनिक रूप से धक्का देकर किनारे कर दिया.
अतीक अहमद की जो ट्युनिंग मुलायम सिंह यादव से थी उसके उलट अखिलेश यादव से वह रिश्ते नहीं रहे. संभवतः इसका कारण बाहुबलियों से संबंधों को लेकर भाजपा द्वारा अखिलेश यादव पर आक्रमण था, जिसके कारण अखिलेश यादव बचाव की ही मुद्रा में रहे.
लगातार 4 बार इलाहाबाद शहर पश्चिमी से विधायक चुने जाने के बाद समाजवादी पार्टी ने अतीक अहमद के हनक और प्रभाव का इस्तेमाल अपने पक्ष में मुसलमानों की गोलबंदी के लिए करना शुरू कर दिया क्योंकि मुसलमानों के वोट की दावेदारी बसपा की भी थी, इसीलिए प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, कानपुर, फतेहपुर में अतीक अहमद को सक्रिय किया.
अशरफ़ के बदनाम किस्से और राजेश साहू की हत्या
इसी समय काल में अशरफ़ के बदनाम किस्से भी जनता के सामने आने लगे और अतीक अहमद के दामन में अशरफ़ की कार गुजारियों के दाग लगने लगे. जिस गलत काम से अतीक अहमद सदैव बचते रहे उसे अशरफ धड़ल्ले से करते चले गए.
अशरफ की बैठकबाजी सिविल लाइंस जैसे पाश एरिया में होती थी. इसके पूर्व एक घटना और हुई जब 1996 में 22 साल के अशरफ अपनी कार से दोस्तों के साथ सिविल लाइंस में जा रहे थे कि अचानक कार में ब्रेक लगी और पीछे आ रही कार ने अशरफ की कार में टक्कर मार दी.
पीछे की यह कार इलाहाबाद के एक बड़े व्यापारी राजेश साहू की थी. अशरफ और राजेश साहू के बीच इसी टक्कर को लेकर काफ़ी तीखी बहस हुई, संभवतः हाथापाई भी हुई.
राजेश साहू को जब पता चला कि जिससे उनकी हाथापाई हुई वह अतीक अहमद के भाई अशरफ हैं तो वह बिना विलम्ब किए अतीक अहमद के आफिस जाकर अनजाने में हुई इस घटना के लिए अतीक अहमद से माफ़ी मांगने लगे.
लोगों का कहना है कि हाथ जोड़कर राजेश साहू अतीक अहमद से माफ़ी मांगते रहे और अंत में अतीक अहमद ने कहा कि ‘चलो ठीक है, पर तुम बड़ी गलती कर डाले हो लेकिन जाओ और आगे से सही रहना.’
तब की मीडिया रिपोर्ट के अनुसार माफी मांग कर राजेश साहू अतीक अहमद के आफिस से बाहर निकल कर कुछ दूर चले ही थे कि उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई.
सीधा आरोप अशरफ पर लगा, पर ठीक उसी दिन और उसी समय अशरफ की चंदौली में अवैध तमंचे के साथ गिरफ्तार दिखाया गया. बाद में चर्चा हुई कि उस थाने के तत्कालीन थानाध्यक्ष अतीक अहमद के रिश्तेदार मंसूर अहमद काज़ी थे.
इस मामले में अतीक अहमद उनके पिता फिरोज़ अहमद और अशरफ नामजद हुए. सभी गिरफ्तार हुए फिर ज़मानत पर रिहा हुए. यह मामला अभी तक कहां पहुंचा कुछ खबर नहीं.
कम उम्र में ही अशरफ के ऊपर ऐसे आरोप के बाद कुछ दिन तक तो अशरफ खामोश थे, परन्तु 5-6 साल बाद वह भी भाई की छत्रछाया में रंग दिखाने लगे. उनके कर्म उनके दोस्तों के साथ निचले स्तर के थे. ऐसी चर्चाएं थी कि सिविल लाइंस में बैठकर वह तमाम तरह की आवारागर्दी और बदनामी वाले काम करने लगे.
इसमें इलाहाबाद के एक प्रतिष्ठित प्रतिष्ठान का मामला बहुत हाईलाइट हुआ और वह पूरा सिंधी परिवार अपनी बेटी के साथ इलाहाबाद छोड़ कर चला गया.
कुछ लोगों ने इसकी शिकायत अतीक अहमद से की मगर अतीक अहमद अपने भाई के खिलाफ कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थे और अशरफ की हरकतें बढ़ती चली गईं. उनके छेड़छाड़ और इसी तरह के तमाम कामों की शिकायतों पर अतीक अहमद चुप्पी साध लेते या शिकायत करने वालों को ही डांट देते. इलाहाबाद में हर कोई जानने लगा कि अशरफ अपने बड़े भाई अतीक अहमद की सबसे बड़ी कमज़ोरी हैं. अतीक अहमद ने अपनी राबिनहुड की छवि जो पिछले 15-20 सालों में बनाई थी उस पर अशरफ की हरकतों कारण डेंट लगने लगा.
समाजवादी पार्टी से अतीक अहमद की कुछ खटपट
परन्तु, इसी बीच समाजवादी पार्टी से अतीक अहमद की कुछ खटपट हुई. ऐसी अपुष्ट खबरें आईं कि अतीक अहमद समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बनने के लिए मुलायम सिंह यादव पर दबाव डाल रहे थे, जिसे नहीं माना गया.
अतीक अहमद 1999 में समाजवादी पार्टी छोड़ कर पटेल लोगों की पार्टी ‘अपना दल’ के प्रदेश अध्यक्ष बन गये और अपना दल के टिकट पर इलाहाबाद पश्चिमी से लगातार पांचवीं बार जीत दर्ज कर के विधायक बने.
तब भी जबकि अपना दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनेलाल पटेल खुद चुनाव हार गए लेकिन उनकी पार्टी से अतीक अहमद और नवाबगंज से अंसार पहलवान विधानसभा पहुंचे.
चुनाव के पहले अतीक अहमद के मुलायम सिंह यादव से खटके रिश्ते सत्ता के समीकरण में फिर सहज हो गए. मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री बनने के लिए संख्या बल चाहिए था और अतीक अहमद फिर फिट बैठ गये और मुलायम सिंह यादव की सरकार को समर्थन दे दिया.
ठीक दो साल बाद हुए 2004 के लोकसभा चुनाव में अतीक अहमद अब फूलपुर से समाजवादी पार्टी के सांसद चुने गए तो उन्होंने इलाहाबाद पश्चिमी सीट से विधायक पद से इस्तीफा दे दिया.
इधर इलाहाबाद पश्चिमी विधानसभा क्षेत्र का परिसीमन हुआ और पश्चिमी सीट के मुस्लिम बाहुल्य इलाके काट काट कर बगल के इलाहाबाद दक्षिणी विधानसभा और चायल विधानसभा में जोड़ दिए गये और हिंदू बहुल क्षेत्रों को पश्चिमी सीट से जोड़ दिया गया. इलाहाबाद पश्चिमी सीट का वह समीकरण उलट पलट गया जिसके कारण अतीक अहमद 5 बार लगातार विधायक चुने गए.
खाली हुई इलाहाबाद पश्चिमी सीट पर उपचुनाव हुआ और अतीक अहमद ने अपने रसूख का इस्तेमाल करके अपने भाई अशरफ को समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार बना दिया जबकि समाजवादी पार्टी की स्थानीय इकाई गोपाल दास यादव को उम्मीदवार बनाने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगाए हुए थी. पर अतीक अहमद के आगे किसी की एक ना चली. यही गलती अतीक अहमद के लिए काल बन गयी.
नंबर 1 मोस्ट वांटेड क्रिमिनल से विधायक बने राजू पाल और उसकी हत्या
बसपा ने पिछले चुनाव में एक नारा दिया था ‘चढ़ गुंडों की छाती पर, मोहर लगेगी हाथी पर.’ और फिर मायावती ने अतीक अहमद के भाई अशरफ के खिलाफ उस समय इलाहाबाद के हिस्ट्रीशीटर नंबर 1 और पुलिस की जारी लिस्ट में नंबर 1 मोस्ट वांटेड क्रिमिनल राजू पाल को टिकट दे दिया. इलाहाबाद के तराई क्षेत्र में आतंक का पर्याय बने राजूपाल को तब इलाहाबाद के लोगों ने पहली बार देखा जब वह जुलूस के साथ नामांकन करने जा रहे थे.
खैर, चुनाव में भाजपा ने अधोषित रूप से अंदर ही अंदर बसपा को समर्थन कर दिया और परिसीमन से गड़बड़ाए समीकरण के कारण अशरफ शहर पश्चिमी से चुनाव हार गये और पुलिस के डर से भागे भागे फिर रहे इनामी हिस्ट्रीशीटर राजूपाल विधायक बन गए.
कहते हैं कि अशरफ हारने के बाद अतीक के कंधे पर सिर पर रखकर फूट फूटकर रोये और अतीक ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था, तुम्हें विधायक बनवाकर रहूंगा.
राजूपाल विधायक बनने के बाद वह अतीक अहमद के साम्राज्य को चुनौती देने लगे. कभी नगर निगम की ठेकेदारी तो कभी किसी ज़मीन पर अधिकार को लेकर राजूपाल की दबंगई लगातार दिखाई देने लगी. तभी 25 जनवरी, 2005 को एक बार फिर इलाहाबाद शहर दहल गया।
नवनिर्वाचित विधायक राजू पाल की कार पर सुलेमसराय में नीवा मोड़ पर धूंआंधार फायरिंग की गई और तब समाचारपत्रों में छपी खबरों के अनुसार हमलावरों ने राजूपाल को गोली लगने के बाद जब उन्हें अस्पताल लेकर जाया जा रहा था तब घटनास्थल से स्वरूप रानी मेडिकल कॉलेज तक करीब 5 किमी तक उनको गोलियां मारते रहे.
अस्पताल में स्ट्रेचर पर लाद कर जब ले जाया जा रहा था तब हमलावरों ने उनके ऊपर फायरिंग की और सीने में तमाम गोलियां उतार दीं. राजूपाल की हत्या कर दी गई और फिर प्रशासन ने उनके शव को उनके परिवार को ना देकर आनन फानन में आधी रात को अंतिम संस्कार कर दिया.
इस हत्याकांड में अतीक अहमद, अशरफ और उनके लोगों का नाम आया. मुलायम सिंह यादव की सरकार में पावरफुल अतीक अहमद और अशरफ गिरफ्तारी से बचते रहे.
राजूपाल की हत्या के बाद इलाहाबाद पश्चिमी सीट पर पुनः चुनाव हुआ. अशरफ बदनामी के उच्च स्तर पर थे. पार्टी और लोगों ने अतीक अहमद से अपनी पत्नी को विधानसभा उपचुनाव में उतारने का सुझाव दिया मगर अतीक अहमद नहीं माने. यह चुनाव अशरफ और राजू पाल की विधवा पूजा पाल के बीच हुआ और सत्ता के सहारे अशरफ चुनाव जीत कर विधायक बन गए.
इसी के साथ साथ करेली के लखनपुर गांव में सन 2005 में अतीक अहमद ने हाईटेक टाउनशिप बसाने की योजना शुरू की थी. अलीना सिटी और अहमद सिटी के नाम से इस प्रोजेक्ट के लिए सात सौ बीघा जमीन ली गई, जिसमें आरोप लगा कि किसानों की ज़मीनों को
अतीक अहमद ने डरा धमका कर औने पौने दाम में खरीद ली. आए दिन अतीक अहमद और अशरफ द्वारा कहीं कब्जे की खबर तो कहीं जबरन बैनामे कि खबरें आने लगीं जिसमें ज्यादातर नाम अशरफ का आता था, और दाग अतीक अहमद के दामन में लगते थे.
ज़मीन के कारोबार में उतरने के बाद अतीक अहमद की छवि पूरी तरह बदलने लगी और लोग डरने लगे कि उनकी ज़मीन या संपत्ति पर अशरफ और अतीक की नजर ना पड़ जाए.
यह मुलायम सिंह यादव की सरकार का समय था. सत्ता और प्रशासन को उंगलियों पर नचाते अतीक अहमद और अशरफ ज़मीन के कारोबार के दलदल में उतरते चले गए. सत्ता का सहारा लेकर अशरफ़ हर वह काम करने लगे जिससे अतीक अहमद ने 17-18 साल तक खुद को बचाए रखा.
मदरसा कांड से अतीक अहमद की सामाजिक-राजनीतिक साख पर कलंक
और फ़िर 17 जनवरी 2007 में कड़ाके की ठंड में इलाहाबाद फिर दहल गया. और उस रात जो हुआ उसने अतीक अहमद की आन बान शान सबको हवा में उड़ा दिया. इलाहाबाद शहर के इतिहास में यह रात शायद सबसे काली रातों में से एक मानी जाएगी.
करेली के बाहरी इलाके महमूदाबाद के एक सुनसान इलाके में एक ‘मदरसा’ स्थित था. यह मदरसा अतीक अहमद के सजातीय लोगों के गांवों से घिरा था. इलाहाबाद और आस पास के गरीब घरों की तमाम लड़कियां इसमें पढ़ाई करती थी. मदरसे में लड़कियों का हास्टल भी था.
17 जनवरी देर रात हास्टल के दरवाजे पर दस्तक हुई. अमूमन देर रात हास्टल में कोई नहीं आता था. अंदर से पूछा गया तो धमकी भरे अंदाज में तुरंत दरवाजा खोलने को कहा.
दरवाजा खोला गया तो सामने तीन बंदूकधारी खड़े थे. तीनों अंदर घुसे. लड़कियां एक हाल में सोती थी, वे सीधे वहीं पहुंच गए. धमकी और गाली गलौज के साथ लड़कियों से कहा गया कि वे नकाब खोल दें. सामने मौत खड़ी थी. बेबस लड़कियों के सामने और कोई चारा नहीं था. बंदूकधारी दरिंदों ने उनमे से दो नाबालिग लड़कियों को चुना और अपने साथ ले जाने लगे.
लड़कियां हैवानों के पैरों में गिर गईं. रहम की भीख मांगी लेकिन शैतानों का दिल नहीं पसीजा. वे दोनों लड़कियों को उठा ले गए. बाहर उनके साथ दो लोग और शामिल हो गए.
कुल पांच लोगों ने आगे नदी के किनारे दोनों लड़कियों के साथ कई कई बार दुष्कर्म किया. दोनों लड़कियों को सुबह होने से पहले लहूलुहान हालत में मदरसे के दरवाजे पर फेंक बदमाश भाग निकले.
इस घटना ने प्रदेश की राजनीति में भूचाल ला दिया था. तत्कालीन समाजवादी पार्टी की सरकार बैकफुट पर आ गई. अगले दिन इस शर्मनाक कांड को छिपाने की पुरजोर कोशिश की गई. पुलिस ने सिर्फ छेड़खानी की धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया और पांच रिक्शे वालों और एक दर्जी का काम करने वालों को गिरफ्तार करके बंद कर दिया. लेकिन घटना सुर्खियों में आने के दो दिन बाद गैंगरेप समेत संगीन धाराओं में एफआईआर दर्ज की गई.
क्षेत्र में हर कोई समझ रहा था कि यह क्या हो रहा है मगर अतीक अहमद के सामने बोलने की किसी की हिम्मत नहीं थी. यह पहली घटना थी जिसमें अतीक अहमद ने अपने ही लोगों का मान सम्मान और समर्थन खो दिया और जिस क्षेत्र के लोग अतीक अहमद को तमाम आरोपों के बावजूद अपना मसीहा मानते थे, वह मदरसा कांड के कारण अतीक अहमद से दूर होने लगे.
चुंकि मदरसा इलाहाबाद के एक प्रख्यात मौलाना का था, जिनका तबलीग में अच्छा खासा असर था, क्षेत्र के सभी मदरसा संचालक और मौलानाओं ने इस कांड को लेकर क्षेत्र के प्रतिष्ठित पालकी मैरेज हॉल में एक बैठक की. होने वाली इस बैठक का सुनकर सांसद अतीक अहमद भी वहां पहुंच गए.
सारे ओलेमा और मदरसा संचालकों ने अतीक अहमद को बहुत बुरा भला कहा और उनसे करेली के थानाध्यक्ष को स्थानांतरित करने कि मांग की जिससे सांसद अतीक अहमद ने गुस्से में यह कहते हुए ठुकरा दिया कि ‘जिसे जो उखाड़ना है उखाड़ ले. एसओ राजेश कुमार सिंह मेरा छोटा भाई है, वह नहीं हटेगा.’ और बैठक से गुस्से में उठ कर चले गए.
अतीक अहमद के इस रवैए ने पूरे विधानसभा क्षेत्र में मदरसा कांड को लेकर अतीक और अशरफ़ पर संदेह और गहरा दिया. जिन लोगों को इस आरोप में पुलिस ने गिरफ्तार किया, उन्हें बाद में अदालत से राहत मिल गई. उन लोगों ने पुलिस पर फंसाने का आरोप लगाते हुए घटना में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया.
मामले ने तूल पकड़ा और एसओ राजेश कुमार सिंह और अतीक के बीच सांठगांठ की खबरों के बीच तत्कालीन एसएसपी बीडी पॉलसन ने एसओ राजेश सिंह को सस्पेंड कर दिया था. राजेश पर आरोप था कि गैंगरेप की सूचना देने के बाद भी उन्होंने पहली एफआईआर सिर्फ छेड़खानी की दर्ज की थी.
2007 विधानसभा चुनाव होने की घोषणा होने ही वाली थीं और इसी मदरसे में तब मायावती आईं और उन्होंने घोषणा की कि आने वाले चुनाव में उनकी सरकार बनी तब मदरसा कांड की सीबीआई जांच कराई जाएगी.
भारी दबाव के बीच समाजवादी पार्टी की सरकार ने अपने तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष अहमद हसन को मदरसे भेजा जहां उन्होंने पीड़ितों को ₹5-5 लाख मुआवजा देने की कोशिश की, मगर अतीक अहमद की मौजूदगी में जनता ने इसका भारी विरोध किया और पीड़ितों के परिजनों ने पैसे लेने से मना कर दिया. अहमद हसन को खाली हाथ वापस आना पड़ा.
इस घटना ने अतीक अहमद की बनाई 18 साल की ज़मीन छीन ली, अतीक अहमद अपने ही लोगों के बीच अपनी लोकप्रियता खो चुके थे और अशरफ घृणा के पात्र बन गये.
इस घटना के बाद फिर कभी अतीक अहमद के परिवार का कोई भी शख्स कोई भी चुनाव नहीं जीत सका. क्षेत्र के लोग मानते हैं कि अतीक अहमद को उन दोनों नाबालिग लड़कियों की आह लग गयी.
2007 के विधानसभा चुनाव में मायावती की पुर्ण बहुमत की सरकार बनी तो मदरसा कांड की सीबीआई जांच शुरू हुई मगर कुछ दिन बाद ही सीबीआई ने इस घटना को अपने स्तर के अनुरूप ना मानते हुए जांच बंद कर दी.
मायावती सरकार के निर्देश पर अतीक अहमद और अशरफ पर राजू पाल हत्याकांड और मदरसा कांड को लेकर कार्यवाही शुरू हुई और स्पेशल टॉस्क फोर्स के तत्कालीन आइजी ने अतीक अहमद के ड्रीम प्रोजेक्ट एलीना और अहमद सिटी की जांच करते हुए कार्रवाई करने के निर्देश दिए और उन प्रोजेक्ट्स में बने भवनों को ध्वस्त कर दिया गया.
राजूपाल की हत्या के बाद पहली बार 31 दिसंबर 2008 में सांसद अतीक अहमद को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने पीतमपुरा के गालिब अपार्टमेंट्स से गिरफ्तार कर लिया. जबकि एक और आरोपी और अतीक अहमद के भाई अशरफ को लगभग 2.5 साल की फरारी के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा कौशांबी से गिरफ्तार किया गया.
ऐसा भी कहा जाता है कि मदरसा कांड इसलिए अंजाम दिया गया क्योंकि अतीक अहमद के ड्रीम प्रोजेक्ट अलीना सिटी और अहमद सिटी को जोड़ने के लिए जो रास्ता था, मदरसा उसके बीच में आ रहा था. मदरसे की नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार मदरसा प्रबंधकों को सबक सिखाने और डराने के लिए किया गया, जिससे वह मदरसे को कहीं और शिफ्ट कर दें. खैर, यह सब लोगों के बीच बना परसेप्शन है. सच जांच में ही कहीं खो गया.
अतीक अहमद और अशरफ राजूपाल हत्याकांड में गिरफ्तार हो चुके थे और 2009 के लोकसभा चुनावों के पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती से अपने संबंधों को सुधारने के लिए समाजवादी पार्टी के व्हिप का उल्लंघन करके 22 जुलाई, 2008 को तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की ओर से पेश किए गए विश्वास प्रस्ताव के ख़िलाफ़ अतीक अहमद ने वोटिंग की थी. संसद में वोटिंग के लिए अतीक अहमद को विशेष रूप से जेल से संसद लाने की व्यवस्था की गई.
मगर तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती नहीं पसीजीं हालांकि इससे अतीक अहमद के संबंध समाजवादी पार्टी से ज़रूर खराब हो गये. राजू पाल हत्याकांड और मदरसा कांड की बदनामी सर पर ढो रहे अतीक अहमद से समाजवादी पार्टी भी किनारा करने लगी.
मदरसा कांड के बाद अतीक अहमद और उनके परिवार का कोई भी सदस्य कभी कोई चुनाव नहीं जीता और खुद अतीक अहमद जो लगातार 6 चुनाव जीते हों वह मदरसा कांड के बाद लगातार 4 चुनाव हार गए.
अतीक अहमद ललितपुर की जेल में बंद थे और 2009 का लोकसभा चुनाव आ गया. फूलपुर लोकसभा क्षेत्र से समाजवादी पार्टी के सांसद रहे अतीक अहमद फिर से अपना दल में शामिल हो गए और इस बार वह ललितपुर जेल से ही प्रतापगढ़ लोकसभा क्षेत्र में किस्मत आजमाने के लिए उतरे मगर वहां वह चौथे स्थान पर रहे.
फिर आ गया उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव 2012 और अतीक अहमद अपनी परंपरागत सीट इलाहाबाद शहर पश्चिमी से विधानसभा का चुनाव अपना दल से लड़े मगर अपनी जिस अजेय सीट पर वह 5 बार लगातार शान से जीतते रहें, पर वहां से भी वह राजू पाल की विधवा पूजा पाल के मुकाबले 8885 वोटों से हार गए.
यह उनके विधानसभा क्षेत्र का परिसीमन और मदरसा कांड का असर था, कभी उनके लिए दिवाने रहने वाले मुसलमान उन्हें वोट देने ही नहीं गये.
2012 में उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव की सरकार बनी और अतीक अहमद ज़मानत पर छूट कर जेल से बाहर आ गए. मगर उनके ऊपर मदरसा कांड का इतना बड़ा कलंक लग चुका था कि वह सार्वजनिक जीवन में कम ही दिखाई देते. उनके पड़ोसियों के अनुसार वह चकिया के अपने घर में अपने बच्चों के साथ ही ज़्यादातर रहते.
अतीक अहमद कई मौकों पर अपने अनपढ़ होने की बात कर चुके थे, अपने पढ़े लिखे ना होने के कारण तमाम जगहों पर अपमानित होने की बात भी सार्वजनिक रूप से बोल चुके थे. अपने बेटों को वह पढ़ाना चाहते थे. उन्होंने सभी को इलाहाबाद के प्रतिष्ठित इंग्लिश मीडियम के स्कूल कालेज में पढ़ाया, मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था.
अतीक अहमद फिर समाजवादी पार्टी से श्रावस्ती से 2014 का चुनाव लड़े जहां से उन्हें फिर हार मिली. 2017 के पहले तक अतीक अहमद और तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के संबंध बहुत मधुर नहीं रहे और कौशांबी में हुई एक सभा में मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अतीक अहमद को सार्वजनिक रूप से धक्का देकर किनारे कर दिया.
अतीक अहमद की जो ट्युनिंग मुलायम सिंह यादव से थी उसके उलट अखिलेश यादव से वह रिश्ते नहीं रहे. संभवतः इसका कारण बाहुबलियों से संबंधों को लेकर भाजपा द्वारा अखिलेश यादव पर आक्रमण था जिसके कारण अखिलेश यादव बचाव की ही मुद्रा में रहे. हालांकि उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने इन्हीं बाहुबलियों के सहारे राजनीति की और समाजवादी पार्टी खड़ी की जिसमें अतीक अहमद प्रमुख थे.
दरअसल अतीक अहमद बदलते समाज और वातावरण को कभी भांप नहीं पाए और अपनी अकड़ या अपने अशिक्षित होने के कारण लगातार गलती करते चले गए.
2017 के विधानसभा चुनाव के पूर्व दो घटनाएं हुईं. पहली यह कि कानपुर कैंट से समाजवादी पार्टी ने अतीक अहमद की उम्मीदवारी घोषित की मगर भारी दबाव में अखिलेश यादव को अतीक अहमद का टिकट वापस लेना पड़ा. और दूसरे यह कि इलाहाबाद के नैनी स्थित सैम सिंगिंगबाटम युनिवर्सिटी में उनके सिफारिश करने के बावजूद मैनेजमेंट ने किसी का एडमिशन करने से मना कर दिया तो अतीक अहमद घर से गुस्से में सीधे युनिवर्सिटी के वाइसचांसलर के आफिस में जाकर मारपीट की.
सारी घटनाएं सीसीटीवी फुटेज में आईं जिसे लेकर प्रबंधन इसके खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय चला गया और तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीबी भोंसले और न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा ने अतीक अहमद की सारी ज़मानत रद्द करके गिरफ्तार करने का आदेश दिया.
2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत हुई और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बने और उन्होंने अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी और आज़म खान के खिलाफ कार्रवाई को अपनी सरकार के प्रमुख एजेंडे में रखा.
अतीक अहमद तब से अपने जीवन के अंत तक जेल में ही रहे. हालांकि फूलपुर के तत्कालीन सांसद केशव प्रसाद मौर्य के उपमुख्यमंत्री पद ग्रहण करने के बाद दिए इस्तीफे के बाद 2018 में हुए उपचुनाव में अतीक अहमद देवरिया जेल से ही निर्दलीय उम्मीदवार थे. यहां से भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा.
उसके बाद जो कुछ हुआ सब आप सभी को पता है. पुलिस की जांच जारी है और इस संबंध में कुछ भी कहना उचित नहीं. जांच के बाद मामला अदालत में जाएगा, न्यायालय के आदेश के बाद ही कुछ कहना उचित होगा.
मगर जहां इसी उत्तर प्रदेश के आधे से अधिक विधायक दाग़ी हैं, जिन पर गंभीर अपराध के तमाम मुकदमे दर्ज हैं, सांसदों का भी यही हाल है. बिहार में गोपालगंज जिले के जिलाधिकारी के आजीवन कैद की सजायाफ्ता हत्यारे आनंद मोहन सिंह को रिहा किया जा रहा है.
अतीक अहमद की जब हत्या हुई तब वह 61 वर्ष के थे और इस 61 वर्ष में वह लगभग 20 साल जेल में ही रह चुके थे. वह परिस्थितियों को भांपने में असफल रहे. अपने भाई अशरफ को नियंत्रित ना कर सके, खुद को बदल नहीं सके और अपराध पर अपराध करते चले गए, तब कि जबकि परिस्थितियां उनके प्रतिकूल थी.
आज के समय में जहां हर फोन में रिकार्डर हो, वहां उन पर ऐसे आरोप लगें कि फोन करके किसी को जेल से ही घमकी देना, जहां हर जगह सीसीटीवी हो वहां जेल में बुला कर किसी के साथ मारपीट करना, बेटे असद द्वारा सीसीटीवी कैमरे के सामने उमेश पाल की हत्या कराना, बेवकूफी भरा काम ही था जो अतीक अहमद अपने स्वभाव के कारण लगातार करते चले गए. यह भी समझ नहीं पाए कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार है, जो अपराध और अपराधी को लेकर बेहद सख्त है.
परिणाम सामने है. सबकुछ खत्म हो गया, मिट्टी में मिल गये. बाकी जिनकी उन्होंने मदद की वह उनके लिए मददगार थे, जिन पर ज़ुल्म किया उनके लिए वह ज़ालिम थे. शायर मुज़फ्फर राजमी ने कहा है कि –
ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई
डिस्क्लेमर – सभी तथ्य और बातें अतीक अहमद के विधानसभा क्षेत्र शहर पश्चिमी में पब्लिक डोमेन और विभिन्न मीडिया रिपोर्ट से लेकर संकलित किए गए हैं.
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मुझे अतीक अहमद से पूरी हमदर्दी है क्योंकि …
आयेगा, तो अतीक ही …
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