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अतीक प्रकरण : भारत विखंडन और गृहयुद्ध की राह पर चल पड़ा है !

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Subrato Chatterjeeसुब्रतो चटर्जी

अतीक, उसका भाई और बेटा अपराधी थे या आरोपी ? किस अदालत ने उन्हें अपराधी डिक्लेयर किया था ? जब मोदी को मैं गोधरा के लिए दोषी ठहराता हूं और पुलवामा के लिए, तो भक्तों का यही सवाल रहता है कि किस अदालत में सज़ा सुनाई गई थी ? आज मैंने यही सवाल क्रिमिनल लोगों के क्रिमिनल भक्तों के सामने रखा है. अदालत में लाखों अपराध साबित नहीं होते लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वैसे कर्म अपराध की श्रेणी में नहीं आता है.

प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस तरह से मोदी ने अपराध और भ्रष्टाचार को क़ानूनी जामा पहनाया है, उसे सांविधानिक दृष्टिकोण से अपराध की श्रेणी में ही रखा जा सकता है. मैं आश्वस्त हूं कि अगर 2024 में कोई ईमानदार सरकार (जिसकी संभावना न के बराबर है) आ जाए तो पूरी कैबिनेट ही जेल में होगी.

पिछले तीन दिनों से बंबई में था. गुजराती सेठ, यूपी के गुज्जर मिले. सारे मोदी के अंधभक्त. एक मज़ेदार वाक़या हुआ. गुजराती सेठ को मोदी की प्रशंसा करते सुन कर मैंने मज़े लेने की सोची. मैंने उसकी हां में हां मिलाते हुए कहा कि वाक़ई मोदी जी से महान लीडर आज दुनिया में नहीं है. जो बाईडेन तो बिना मोदी से सलाह किए सीनेट नहीं जाते और हरेक बम यूक्रेन पर गिराने के पहले पुतिन मोदी जी को फ़ोन करते हैं. और तो और जी शिन पिंग तो मोदी की अनुमति से रूस गए थे.

गुजराती सेठ का आनंद देखने लायक़ था, लेकिन यूपी का गुज्जर समझ गया कि कुछ ज़्यादा ही हो गया. उसने माना कि मोदी पूरी तरह से विफल है लेकिन हिंदुत्व की रक्षा कर रहा है, इसलिए गोबरपट्टी का वोट मिलेगा.

साथ में एक दिल्ली उच्च न्यायालय का गुज्जर वकील भी था. उसका दृढ़ विश्वास था कि अतीक और उसके परिवार की हत्या जायज़ है. जब मैंने कहा कि फिर तो अदालतों को बंद कर देना चाहिए, कम से कम क्रिमिनल कोर्ट को. फिर आप क्या खाएंगे ? क्योंकि काला कोट बेच कर तो बमुश्किल दो तीन दिन का भोजन जुटेगा ? बेचारे चुप हो गए. कहने का लब्बोलुआब है कि गोबरपट्टी, गुजरात और देश के बड़े हिस्से में मानसिक सन्निपात की स्थिति बन गई है. यह भक्ति नहीं है, यह एक संक्रमण है .

सालों पहले एक बार राची के कांके स्थित पागलखाने में किसी डॉक्टर मित्र से मिलने गया था. बातचीत के क्रम में उन्होंने बताया था कि ज़्यादातर पागल obsession and hallucinations के शिकार होते हैं. ये दोनों लक्षण आज मोदी समर्थकों में भरपूर दिखता है. सत्ता हमेशा ऐसे लंपटों के सहारे चलती है, जब सत्ता फ़ासिस्ट लोगों की हो. भारत विखंडन और गृहयुद्ध की राह पर चल पड़ा है.

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लवलेश की मां को रोते हुए देख कर जाने क्यों मुझे गांधारी याद आ गई. दरअसल, जब आप किसी सर्वशक्तिमान में आस्था रखते हैं तो अपनी बुद्धि और प्रज्ञा को गौण करते हैं. तिसपर अगर कोई अशिक्षित या कुशिक्षित हो तो उसका अर्द्ध विकसित दिमाग़ बहुत आसानी से एक obsession या hallucination का शिकार बन सकता है.

अगर आप तथाकथित उच्च शिक्षित भी हैं तो भी आपको willing suspension of disbelief के जाल में फँसने का डर है. दोनों स्थितियों में आपके अतार्किक होने की संभावना है और आवश्यकता पड़ने पर उग्र होने की भी. यही उग्रवादी आपको हिंसक प्रवृत्ति का बनाता है और समय आने पर अपराधी बना देता है.

उदाहरण के लिए अगर किसी उच्च शिक्षित आस्थावान व्यक्ति के सामने उसके भगवान (?) की मूर्ति का कोई अपमान कर दे तो वह तुरंत हिंसक बन जाएगा. कोई पहुंचा हुआ संत शायद ऐसा नहीं भी करे, क्योंकि वह अपने थेथरई में इतना समाहृत हो गया है कि उसके पास एक निर्लज्ज मुस्कुराहट के सिवा और कुछ बचा नहीं है, आत्मसम्मान बोध भी नहीं. उनकी बात अलग है.

लवलेश रोज़ हनुमान मंदिर जाता था और बिना पूजा किए पानी भी नहीं पीता था. कभी सोचा है कि वह ऐसा क्यों करता था या बहुतेरे ऐसा क्यों करते हैं ? इसलिए नहीं कि उन्होंने ईश्वर को आत्मसात् कर लिया है, परंतु इसलिए कि उसने बचपन से ऐसा अपने परिवेश में देखा है कि जो ऐसा करते हैं, उनको समाज में अच्छा व्यक्ति कहा जाता है. फिर इस अच्छा व्यक्ति बनने या दिखने की इच्छा पर ग्रहण कैसे लग गया ?

इस प्रश्न के उत्तर में आपको उन भौतिक परिस्थितियों का अध्ययन करना होगा जो उसके सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सोच को कुम्हार सा गढ़ रहे थे. एक तरफ़ सुशिक्षा के अभाव में अर्ध विकसित मस्तिष्क, दूसरी तरफ़ ग़रीबी, बेरोज़गारी और लंपटों का गिरोह जो राजनीति के नाम पर गले में भगवा पट्टा डाल कर हरेक गली चौबारों में शिकार की तलाश में घूम रहे हैं.

ऐसा कहा जाता है कि योगी सरकार के आने के बाद यूपी के ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बेरोज़गार युवाओं को पांच सौ रुपये प्रतिदिन के हिसाब से गांजा और भंग की सप्लाई में लगा दिया गया है. अगर यह सच है तो ग्रामीण समाज के वृहत लंपटीकरण के लिए यह एक बहुत बड़ा कारण बन गया है. इन परिस्थितियों में क्रिमिनल बनना बहुत आसान है.

एक बात पर ग़ौर कीजिए. पकड़े जाने पर लवलेश ने कहा कि उसने यह हत्या नाम कमाने के लिए किया. हो सकता है कि उसके प्रायोजक उसे यही बयान देने के लिए कहा हो और यह पूरा सच नहीं है.

सोचने वाली बात यह है कि क्या लवलेश ने झूठ कहा ? बिल्कुल नहीं. वह उसी प्रदेश में पैदा और बड़ा हुआ है जहां पर जनता ने एक निकृष्टतम अपराधी को अपना मुखिया चुना है. वह उसी देश में पैदा हुआ है, जिसने जघन्यतम अपराधियों को अपना मुखिया चुना है.

सवाल ये है कि उस प्रांत और देश ने लवलेश के युवा मन पर कैसा असर किया होगा ? यही न कि अगर आप कुख्यात अपराधी बन जाएं तो देर सबेर आपके लिए सत्ता का रास्ता बन जाता है और चुनावी जीत आपको संत महात्मा साबित कर देता है ?

शेक्सपीयर ने कहा था कि ज़हर सर से उतरते हुए धीरे-धीरे पूरे शरीर में फैल जाता है. जिस समाज से लवलेश जैसे आते हैं वह समाज सबसे नीचे के तबके का है. कल तक यह समाज कांवड़ ढोकर और विभिन्न तथाकथित धार्मिक अवसरों पर डी जे की धुन पर अश्लील नृत्य कर अपने को ज़ाहिर करने के लिए सड़कों पर उतर कर दो चार दिन में शांत हो जाता था और तथाकथित भद्र जन अपने अपने घरों में चैन की सांस लेते थे.

समय की पटकथा बदल रही है. अब यही तबका सिर्फ़ तमाशे से खुश नहीं है. अब वह अपराध के रास्ते चल पड़ा है अपने को समाज में प्रतिष्ठापित करने के लिए. समाज के लंपटीकरण का नतीजा समाज के अपराधीकरण ही होता है.

इसलिए किसी मंदिर मस्जिद के सामने शीश नवाकर उन लवलेशों का आदर्श मत बनिए और न ही किसी अपराधी को धर्म और जाति देख कर वोट दीजिए. अगला अतीक आप बन सकते हैं. और पहले वे बनेंगे जो क़ानून व्यवस्था के complete collapse को मुस्लिम हत्या के नाम पर celebrate कर रहे हैं. हत्या सिर्फ़ जीवन की होती है, लाश की पहचान आप धर्म के नाम पर करते हैं.

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दो टुक में यह समझ लीजिए –

  • जो भी राम, कृष्ण या किसी भी हिंदू अवतार की पूजा करेगा वह क्रिमिनल के सिवा कुछ नहीं होगा.
  • जो भी किसी भी व्यक्ति पूजा के साथ कोई भी संबंध रखेगा, वह क्रिमिनल के सिवा कुछ नहीं होगा.
  • जो भी पैग़म्बरी, मसीही का उदाहरण देगा वह क्रिमिनल के सिवा कुछ नहीं होगा.
  • जो भी भाववादी दर्शन में विश्वास करेगा, वह क्रिमिनल के सिवा कुछ नहीं होगा.
  • जो भी मूर्त को बलि दे कर अमूर्त की साधना में अपनी गांडूगिरी के स्वार्थ में लीन रहेगा, वह क्रिमिनल के सिवा कुछ नहीं होगा.
  • जो भी ईश्वर और भाग्य के सहारे रहेगा, वह क्रिमिनल के सिवा कुछ नहीं होगा.
  • जो भी चुनावी लोकतंत्र में विश्वास रखेगा, वह क्रिमिनल के सिवा कुछ नहीं होगा.

जीवन भर के अनुभवों के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं. वैसे विश्वास तो बीस साल की उम्र में ही हो गया था. अब परिस्थितियां बदल गईं हैं. हम प्रेमचंद के बाद की पीढ़ी हैं. अमृत राय की पत्रिका कहानी को मात्र दो रुपये में (डाक खर्च सहित) घर घर बेच कर साहित्य की सेवा पर प्रफ़ुल्लित होने वाले बेवक़ूफ़ों की पीढ़ी के हैं.

हमें 1976 में भी धर्मवीर भारती का बौद्धिक दोगलापन पसंद नहीं आता था और कमलेश्वर का भी नहीं. हम तो शैलेश माटियानी की कहानी मिट्टी में डूबे रहते थे और ख़ाली समय में गली आगे मुड़ती है, दोस्तों को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे. राम वग़ैरह राजा के चक्कर में हमने कभी पत्नी प्रताड़क और बाप की कुंठित इच्छा के ग़ुलामों को तरजीह नहीं दी.

हम खुली हवा में सांस लेने वाले गोबरपट्टी के जंतुओं से अलग जीव थे. हमारे समय में नेरुदा भी लिखते थे और एलन गिंसबर्ग भी. भूखी पीढ़ी के बांग्ला के साहित्यकार भी अपने जंगल भोज में शामिल होते थे और धूमिल की कविताएं भी मेरी बांग्ला साहित्यिक पत्रिका में अनुदित होकर स्थान पातीं थी.

इसलिए जब आज के स्वनामधन्य हिंदी और गोबरपट्टी के गधे मुझे अपना ज्ञान बांटने की कोशिश करते हैं तो मुझे उनपर दया आती है. कृपया अपने गधत्व पर खुद रश्क करें. मुझे मालूम है कि आपको अभी तक शुद्ध हिंदी भी लिखनी नहीं आती, मार्क्सवाद और राजनीति की समझ तो बहुत दूर की बात है !

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