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आतंकवाद का आतंक

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आतंकवाद का आतंक

गुरूचरण सिंह

अपनी-अलग जातीय पहचान को बचाने के लिए आतंक चाहे नगा, असमिया, सिख और दूसरे जाति समूहों का हो, विलय के समझौते का पालन न करने और इस समझौते की बुनियाद ही खत्म करके उसे दो हिस्सों में तोड़ने के विरोध में कश्मीरी आतंक हो, आर्थिक सामाजिक गैर-बराबरी को दूर करने के लिए चाहे नक्सलियों का आतंक हो, एक सदी से चलता आ रहा लेकिन पिछले कुछ बरसों में शिखर छूने लगा धार्मिक कट्टरता वाला हिंदू-मुस्लिम आतंक हो, या फिर अपनी सत्ता और वर्चस्व को कायम रखने के लिए सत्तारूढ़ दल का पुलसिया आतंक हो, आतंक कैसा भी क्यों न हों, वह देश की बुनियाद को तो कमजोर करता ही है, सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुंचाता है.

लेकिन विडंबना तो देखिए, इसी आतंक से लड़ने के नाम पर सबसे बड़ा लाभ होता है पुलिस बलों को. कड़े कानूनों के चलते उन्हें बेशुमार अधिकार मिल जाते हैं, आतंकियों के सफाए के नाम पर असली-नकली कैसे भी ‘एनकाउंटर’ किए जा सकते हैं. अपनी खुन्नस निकालने के लिए किसी को भी आतंकी घोषित करना और मनचाही ‘वसूली’ न होने पर एनकाउंटर कर देना, उनका रोजमर्रा का काम हो जाता है. खबरे तो उनके कत्ल की सुपारी तक लेने की भी हैं. देखते ही देखते ही इस काम में महारत रखने वाले पुलिसकर्मी बिना बारी के प्रोमोशन की लंबी छलांग लगा कर फौरन पहली/ दूसरी कतार में पहुंच जाते हैं, फ्लैट से बंगले तक का सफर देखते ही देखते तय कर लेते हैं, मतलब यह कि आम से ‘खास’ हो जाते हैं. कल तक खटारा जीपों और दूसरे वाहनों से चलने वाली पुलिस अचानक जिप्सी और इनोवा पर सवार हो जाती है और अत्याधुनिक हथियारों और अधिकारों के हाईटेक जिरह-बख्तर से लैस हो जाती है.

खैर, पूरी दुनिया में लड़ी जा रही है आतंक के खिलाफ यह लड़ाई. सीरिया लड़ता है, अमरीका लड़ता है, इज़राइल लड़ता है, अपनी नस्लीय पहचान खो जाने के डर से यूरोप भी लड़ता है, रूस और चीन भी लड़ता है. पिछले कुछ सालों से इस लड़ाई में भारत भी कहां पीछे है, ‘अपने’ सांझे दुश्मन मुस्लिम आतंकवाद से लड़ने में. सच्चाई तो यह है कि कश्मीर में ‘शहीद’ होने वाले सैनिकों और अर्धसैनिक बलों के कार्मिकों की संख्या नक्सली आतंक से प्रभावित इलाकों और पूर्वोत्तर सीमांत राज्यों में मरने वाले पुलिस/सैनिक बलों के कार्मिकों से कहीं कम है. फिर भी हाय-तौबा केवल कश्मीर के लिए मचाई जाती है, कारण शायद घाटी का मुस्लिम आबादी वाला होना है.

बहुत मुमकिन है इसमें कुछ कसूर मुस्लिम समुदाय की एक खामोशी का भी रहा हो, जो दुनिया के किसी भी खित्ते में होने वाली किसी भी ऐसी कार्रवाई पर एक साजिश-सी लगने लगती है, जितनी मुखरता से मुस्लिम समुदाय पर हुए किसी अत्याचार की कड़ी निंदा की जाती है, उनके किसी वहशी संगठन की कार्रवाई पर भी उनका चुप रह जाना हिंदू उग्रवादियों के हाथ में एक हथियार थमा देता है. संघ की नफरती मुहिम में यह भी एक सहायक वजह है लेकिन यह सोच सारी दुनिया में कैसे फैल गई, यह एक विचारणीय मुद्दा अवश्य है. शब्दकोषीय आधार पर बात करें तो आतंकवाद और आतंक शब्द का वह अर्थ तो कहीं है ही नहीं जिसके आधार पर समाज में इस शब्द को लेकर आतंक की धारणा बनी है.

अगर कोई व्यक्ति धनवान है और अपने से कम अमीर या फिर गरीब मजलूम को डराता धमकाता है तो यकीन मानिए वह भी आतंकी है. कोई भी सरकारी अधिकारी, मंत्री- संतरी, सांसद विधायक या महंगी एसयूवी में झंडा लगाए फर्राटा लगाते पार्टी के दूसरे नेता अगर आम नागरिक में दहशत पैदा करने का काम करते हैं तो वे सभी भी आतंकी ही हैं. संविधान में दी गई गारंटी के बावजूद अपनी आस्था और विश्वास दूसरों पर धोपना, न मानने पर डराना-धमकाना, गोलबंद होकर जानवर की तरह घेर कर किसी का शिकार करना (मॉब लिंचिंग) भी आतंक हैं. जातीय हिंसा, अपहरण, बलात्कार, भूमाफिया का बस्तियां जलाना या जबरदस्ती खाली करवाना, गैर-कानूनी काम करते हुए कानून को मानने वाले लोगों में खौफ़ पैदा करना, आदिवासियों को उनकी पुश्तैनी जमीन से बेदखल करना और सरकारी मिलीभगत से उनके परंपरागत जल, जंगल, जमीन पर जबरदस्ती कब्जा करना, विरोध करने पर उन्हें नक्सली घोषित कर एनकाउंटर करा देना, उनकी तथा दलितों की औरतों का शारीरिक शोषण करना – ये सब भी तो इसी आतंकवाद के नमूने हैं.

प्रधानमंत्री के ‘सैनिकों के सीने वाली आग’ जैसे बयान किसी भी नजरिए से एक जिम्मेदार रहनुमा के बयान नहीं कहे जा सकते. उसमें और 84 में सिखों के कत्लेआम के दौरान दिए सज्जन कुमार और दूसरे कांग्रेसी नेताओं के बयानों में अंतर ही कहां है ? संसद में नागरिकता कानून में संशोधन पारित करवाते समय गृह मंत्री का झूठ, आक्रामक भाषा का प्रयोग करते हुए ‘क्रोनोलॉजी’ समझाते हुए देश में दहशत का माहौल बनाने की कोशिश ही तो कही जाएगी. बाहुबली की भाषा है यह, उकसाने, भड़काने वाली भाषा है यह. यह भी तो आतंक है.

आप भी अगर किसी भी तरह से किसी आदमी (भले ही वह आपके परिवार का हो, पड़ोसी हो या दूसरे मजहब को मानने वाला हो) को डराते-धमकाते हैं तो आप भी खुद को आतंकी ही माने क्योंकि ऐसा करने वाला शरीफ आदमी तो हो ही नहीं सकता. न तो भगवान ने और न ही संविधान ने किसी भी आदमी को दूसरे लोगों को डराने-धमकाने का अधिकार दिया है.

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ROHIT SHARMA

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