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असुर कृष्ण को आर्यों ने विष्णु का अवतार घोषित कर दिया ?

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असुर कृष्ण को आर्यों ने विष्णु का अवतार घोषित कर दिया ?

मैं अक्सर देखता आ रहा हूं कि जब भी किसी तार्किक व्यक्ति से रामायण, महाभारत, गीता, पुराण जैसे विषय पर बहस होती है तो वह सभी तरह से मात खाता हुआ आखिरी में ऋग्वेद पर आकर रुक जाता है और कहता है कि ऋग्वेद में किसी भगवान या देवता के वर्णन के साथ पाखंड नहीं है इसलिए आपको ऋग्वेद पढ़ना चाहिए.

तो आखिरकार मैंने ऋग्वेद पढ़ ही लिया. अब देखता हूं कि आपके ऋग्वेद में क्या है ?? थोड़ा जांच पड़ताल होना तो बनता है. मैंने पढ़ा तो कुछ ऐसा पाया जो कि छलकपट दिख रहा है। और यदि नहीं है तो ऐसा क्यों कि ब्राह्मणों (हिन्दुओं) के सबसे मूल ग्रंथ ऋग्वेद में कृष्ण को असुर, राक्षस, पापी जैसे शब्दों से संबोधित किया गया है और आगे चलकर गीता में कृष्ण को सभी देवी देवताओं सहित जनमानस का आराध्य बताया गया है.

तार्किक हिसाब से कृष्ण एक ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें सिर्फ षड्यंत्र (मूलनिवासियों को जाल में फंसाने) के तहत भगवान मान लिया गया है. इन सभी के बावजूद एक साधारण पुरुष कृष्ण सर्वोपरि देव बन गए. श्रीकृष्ण कितने महान बन गए इसको जानने के लिए आप भागवत गीता में अध्याय 10 और 14 देख सकते है.

इन अध्यायों में कृष्ण कहते हैं – ‘हे कुरुश्रेष्ठ, अब ‘मै’ तेरे लिए दिव्य विभूतियों को प्रधानता से कहूंगा क्योंकि मेरे विस्तार का अंत नहीं है. हे अर्जुन मैं सब भूतों की हृदय में स्थित सबकी आत्मा हूं तथा संपूर्ण भूतों का आदि, मध्य और अंत भी मैं ही हूं.’ इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि जहां तक गीता का संबंध है कृष्ण से महान कोई और देव नहीं है।श, यहां तक कि तथाकथित सृष्टि के रचयिता कहे जाने वाले ब्रह्मा भी उनसे तुक्ष्य है.

थोड़ा जांच पड़ताल करते हैं

हिंदुओं के प्रमुख धर्मग्रंथ ऋग्वेद का मूल देवता इंद्र है. इसके 10,552 श्लोकों में से 3,500 अर्थात् ठीक एक-तिहाई इंद्र से संबंधित हैं. इंद्र और कृष्ण का मतांतर एवं युद्ध सर्वविदित है. प्रसिद्ध महाकाव्य महाभारत में वेदव्यास ने कृष्ण को विजेता बताया है तथा इंद्र का पराजित होना दर्शाया है. इंद्र और कृष्ण का यह युद्ध आमने-सामने लड़ा गया युद्ध नहीं है.

इस युद्ध में कृष्ण द्वारा इंद्र की पूजा का विरोध किया जाता है, जिससे कुपित इंद्र अतिवृष्टि कर मथुरावासियों को डुबोने पर आमादा हैं. कृष्ण गोवर्धन पर्वत के जरिए अपने लोगों को इंद्र के कोप से बचा लेते हैं. इंद्र थककर पराजय स्वीकार कर लेता है. इस संपूर्ण घटनाक्रम में कहीं भी आमने-सामने युद्ध नहीं होता है लेकिन अन्य हिंदू धर्मग्रंथों, विशेषकर ऋग्वेद में इस युद्ध के दौरान जघन्य हिंसा का जिक्र है तथा इंद्र को विजेता दिखाया गया है.

ऋग्वेद मंडल-1 सूक्त 130 के 8वें श्लोक में कहा गया है कि – ‘हे इंद्र ! युद्ध में आर्य यजमान की रक्षा करते हैं. अपने भक्तों की अनेक प्रकार से रक्षा करने वाले इंद्र उसे समस्त युद्धों में बचाते हैं एवं सुखकारी संग्रामों में उसकी रक्षा करते हैं. इंद्र ने अपने भक्तों के कल्याण के निमित्त यज्ञद्वेषियों की हिंसा की थी. इंद्र ने कृष्ण नामक असुर की काली खाल उतारकर उसे अंशुमती नदी के किनारे मारा और भस्म कर दिया. इंद्र ने सभी हिंसक मनुष्यों को नष्ट कर डाला.’

ऋग्‍वेद के मंडल-1 के सूक्त 101 के पहले श्लोक में लिखा है कि – ‘गमत्विजों, जिस इंद्र ने राजा ऋजिश्वा की मित्रता के कारण कृष्ण असुर की गर्भिणी पत्नियों को मारा था, उन्हीं के स्तुतिपात्र इंद्र के उद्देश्य से हवि रूप अन्न के साथ-साथ स्तुति वचन बोला. वे कामवर्णी दाएं हाथ में बज्र धारण करते हैं. रक्षा के इच्छुक हम उन्हीं इंद्र का मरुतों सहित आह्वान करते हैं.’

इंद्र और कृष्ण की शत्रुता की भी ऋणता को समझने के लिए ऋग्वेद के मंडल 8 सूक्त 96 के श्लोक 13,14,15 और 17 को भी देखना चाहिए (मूल संस्कृत श्लोक देखें शांति कुंज प्रकाशन, गायत्री परिवार, हरिद्वार द्वारा प्रकाशित वेद में).

ऋगवेद के श्लोक 13 – शीघ्र गतिवाला एवं दस हजार सेनाओं को साथ लेकर चलने वाला कृष्ण नामक असुर अंशुमती नदी के किनारे रहता था. इंद्र ने उस चिल्लाने वाले असुर को अपनी बुद्धि से खोजा एवं मानव हित के लिए वधकारिणी सेनाओं का नाश किया.

श्लोक 14 – इंद्र ने कहा-मैंने अंशुमती नदी के किनारे गुफा में घूमने वाले कृष्ण असुर को देखा है, वह दीप्तिशाली सूर्य के समान जल में स्थित है. हे अभिलाषापूरक मरुतो, मैं युद्ध के लिए तुम्हें चाहता हूं. तुम यु़द्ध में उसे मारो.

श्लोक 15 – तेज चलने वाला कृष्ण असुर अंशुमती नदी के किनारे दीप्तिशाली बनकर रहता था. इंद्र ने बृहस्पति की सहायता से काली एवं आक्रमण हेतु आती हुई सेनाओं का वध किया.

श्लोक 17 – हे बज्रधारी इंद्र ! तुमने वह कार्य किया है. तुमने अद्वितीय योद्धा बनकर अपने बज्र से कृष्ण का बल नष्ट किया. तुमने अपने आयुधों से कुत्स के कल्याण के लिए कृष्ण असुर को नीचे की ओर मुंह करके मारा था तथा अपनी शक्ति से शत्रुओं की गाएं प्राप्त की थीं. (अनुवाद-वेद, विश्व बुक्स, दिल्ली प्रेस, नई दिल्ली)

क्या कृष्ण और यादव असुर थे ?

ऋग्वेद के इन श्लोकों पर कृष्णवंशीय लोगों का ध्यान शायद नहीं गया होगा. यदि गया होता तो बहुत पहले ही तर्क-वितर्क शुरू हो गया होता. वेद में उल्लेखित असुर कृष्ण को यदुवंश शिरोमणि कृष्ण कहने पर कुछ लोग शंका व्यक्त करेंगे कि हो सकता है कि दोनों अलग-अलग व्यक्ति हों, लेकिन जब हम सम्पूर्ण प्रकरण की गहन समीक्षा करेंगे तो यह शंका निर्मूल सिद्ध हो जाएगी, क्योंकि यदुकुलश्रेष्ठ का रंग काला था, वे गायवाले थे और यमुना तट के पास उनकी सेनाएं भी थीं. वेद के असुर कृष्ण के पास भी सेनाएं थी. अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के पास उनका निवास था और वह भी काले रंग एवं गाय वाला था. उसका गोर्वधन गुफा में बसेरा था.

यदुवंशी कृष्ण एवं असुर कृष्ण दोनों का इंद्र से विरोध था. दोनों यज्ञ एवं इंद्र की पूजा के विरुद्ध थे. वेद में कृष्ण एवं इंद्र का यमुना के तीरे युद्ध होना, कृष्ण की गर्भिणी पत्नियों की हत्या, सम्पूर्ण सेना की हत्या, कृष्ण की काली छाल नोचकर उल्टा करके मारने और जलाने, उनकी गायों को लेने की घटना इस देश के आर्य-अनार्य युद्ध का ठीक उसी प्रकार से एक हिस्सा है, जिस तरह से महिषासुर, रावण, हिरण्यकष्यप, राजा बलि, बाणासुर, शम्बूक, बृहद्रथ के साथ छलपूर्वक युद्ध करके उन्हें मारने की घटना को महिमामंडित किया जाना. इस देश के मूल निवासियों को गुमराह करने वाले पुराणों को ब्राह्मणों ने इतिहास की संज्ञा देकर प्रचारित किया. इसी भ्रामक प्रचार का प्रतिफल है कि बहुजनों से उनके पुरखों को बुरा कहते हुए उनकी छल कर हत्या करने वालों की पूजा करवाई जा रही है.

यदुवंशी कृष्ण के असुर नायक या इस देश के अनार्य होने के अनेक प्रमाण आर्यों द्वारा लिखित इतिहास में दर्ज है. आर्यों ने अपने पुराण, स्मृति आदि लिखकर अपने वैदिक या ब्राह्मण धर्म को मजबूत बनाने का प्रयत्न किया है. पद्म पुराण में कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध एवं राजा बलि की पौत्री उषा के विवाह का प्रकरण पढ़ने को मिलता है.

कृष्ण के पौत्र की पत्नी उषा के पिता का नाम बाणासुर था. बाणासुर के पूर्वज कुछ यूं थे-असुर राजा दिति के पुत्र हिरण्यकश्यप के पुत्र विरोचन के पुत्र बलि के पुत्र बाणासुर थे. उषा का यदुकुल श्रेष्ठ कृष्ण एवं रुक्मिणी के पुत्र प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध से प्रेम हो गया. अनिरुद्ध अपनी प्रेमिका उषा से मिलने बाणासुर के महल में चले गए। बाणासुर द्वारा अनिरुद्ध के अपने महल में मिलने की सूचना पर अनिरुद्ध को पकड़कर बांधकर पीटा गया.

इस बात की जानकारी होने पर अनिरुद्ध के पिता प्रद्युम्न और वाणासुर में घमासान हुआ. जब बाणासुर को पता चला कि उनकी पुत्री उषा और अनिरुद्ध आपस में प्रेम करते हैं तो उन्होंने युद्ध बंद कर दोनों की शादी करा दी. इस तरह से कृष्ण और असुर राज बलि एवं बाणासुर और कृष्ण पुत्र प्रद्युम्न आपस में समधी हुए. अब सवाल उठता है कि यदि कृष्ण असुर कुल यानी इस देश के मूल निवासी नहीं होते तो उनके कुल की बहू असुर कुल की कैसे बनती ?

श्रीकृष्ण और राजा बलि दोनों के दुश्मन इंद्र और उपेंद्र आर्य थे. कृष्ण ने इंद्र से लड़ाई लड़ी तो बालि ने वामन रूपधार उपेंद्र (विष्णु) बलि से. राजा बलि के संदर्भ में आर्यों ने जो किस्सा गढ़ा है वह यह है कि राजा बलि बड़े प्रतापी, वीर किंतु दानी राजा थे. आर्य नायक विष्णु आदि राजा बलि को आमने-सामने के युद्ध में परास्त नहीं कर पा रहे थे, सो विष्णु ने छल करके राजा बलि की हत्या की योजना बनाई.

विष्णु वामन का रूप धारण कर राजा बलि से तीन पग जमीन मांगी। महादानी एवं महाप्रतापी राजा बलि राजी हो गए. पुराण कथा के मुताबिक वामन वेशधारी विष्णु ने एक पग में धरती, एक पग में आकाश तथा एक पग में बलि का शरीर नापकर उन्हें अपना दास बनाकर मार डाला.

कुछ विद्वान कहते हैं कि वामन ने राजा बलि के सिंहासन को दो पग में मापकर कहा कि सिंहासन ही राजसत्ता का प्रतीक है इसलिए हमने तुम्हारा सिंहासन मापकर संपूर्ण राजसत्ता ले ली है. एक पग जो अभी बाकी है उससे तुम्हारे शरीर को मापकर तुम्हारा शरीर लूंगा. महादानी राजा बलि ने वचन हार जाने के कारण अपनी राजसत्ता वामन विष्णु को बिना युद्ध किए सौंप दी तथा अपना शरीर भी समर्पित कर दिया.

वामन वेशधारी विष्णु ने एक लाल धागे से हाथ बांधकर राजा बलि को अपने शिविर में लाकर मार डाला. इस लाल धागे से हाथ बांधते वक्त विष्णु ने बलि से कहा था कि तुम बहुत बलवान हो, तुम्हारे लिए यह धागा प्रतीक है कि तुम हमारे बंधक हो. तुम्हें अपने वचन के निर्वाह हेतु इस धागा को हाथ में बांधे रखना है.

हजारों वर्ष बाद भी इस लाल धागे को इस देश के मूल निवासियों के हाथ में बांधने का प्रचलन है, जिसे रक्षासूत्र या कलावा कहते हैं. इस रक्षासूत्र या कलावा को बांधते वक्त पुरोहित उस हजार वर्ष पुरानी कथा को श्लोक में कहता है कि – ‘येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल: तेन त्वामि प्रतिबद्धामि रक्षे मा चल मा चल.’ (अर्थात् जिस तरह हमने दानवों के महाशक्तिशाली राजा बलि को बांधा है उसी तरह हम तुम्हें भी बांधते हैं. स्थिर रह, स्थिर रह.)

पुराणों के प्रमाण

दरअसल, इन पौराणिक किस्सों से यही प्रमाणित होता है कि कृष्ण, राजा बलि, राजा महिषासुर, राजा हिरण्यकश्यप आदि से विष्णु ने विभिन्न रूप धरकर इस देश के मूल निवासियों पर अपनी आर्य संस्कृति थोपने के लिए संग्राम किया था. इंद्र एवं विष्णु आर्य संस्कृति की धुरी हैं तो कृष्ण और बलि अनार्य संस्कृति की.

बहरहाल, कृष्ण को क्षत्रिय या आर्य मानने वाले लोगों को कृष्ण काल से पूर्व राम-रावण काल में भी अपनी स्थिति देखनी चाहिए. महाकाव्यकार वाल्मीकि ने रामायण में भी यादवों को पापी और लुटेरा बताया है तथा राम द्वारा किए गए यादव राज्य दु्रमकुल्य के विनाश को दर्शाया है.

वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड के 22वें अध्याय में राम एवं समुद्र का संवाद है. राम लंका जाने हेतु समुद्र से कहते हैं कि तुम सूख जाओ, जिससे मैं समुद्र पार कर लंका चला जाऊं. समुद्र राम को अपनी विवशता बताता है कि मैं सूख नहीं सकता तो राम कुपित होकर प्रत्यंचा पर वाण चढ़ा लेते हैं. समुद्र राम के समक्ष उपस्थित होकर उन्हें नल-नील द्वारा पुल बनाने की राय देता है.

राम समुद्र की राय पर कहते हैं कि वरुणालय मेरी बात सुनो. मेरा यह यह वाण अमोध है. बताओ इसे किस स्थान पर छोड़ा जाए. राम की बात सुनकर समुद्र कहता है कि ‘प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवं पुण्यात्मा हैं, उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर दु्रमकुल्य नाम से विख्यात एक बड़ा पवित्र देश है, वहां आभीर आदि जातियों के बहुत-से मनुष्य निवास करते हैं जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं. वे सबके सब पापी और लुटेरे हैं. वे लोग मेरा जल पीते हैं. उन पापाचारियों का स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पाप को मैं सह नहीं सकता, श्रीराम ! आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए.

महामना समुद्र का यह वचन सुनकर सागर के बताए अनुसार उसी देश में वह अत्यंत प्रज्जवलित वाण छोड़ दिया. वह वाण जिस स्थान पर गिरा था वह स्थान उस वाण के कारण ही पृथ्वी में दुर्गम मरुभूमि के नाम से प्रसिद्ध हुआ.’

राम-रावण काल में यादवों के राज्य दु्रमकुल्य को समुद्र द्वारा पवित्र बताने तथा वहां निवास करने वाले यादवों को पापी एवं भयानक कर्म वाला लुटेरा कहने से सिद्ध हो जाता है कि यादव न आर्य हैं और न क्षत्रिय, अन्यथा वाल्मीकि और समुद्र इन्हें पापी नहीं कहते. जिस तरह से इस देश में दलितों को तालाब, कुओं आदि से पानी पीने नहीं दिया जाता था और डॉ. आम्बेडकर को महाड़ तालाब आंदोलन करना पड़ा, क्या उससे भी अधिक वीभत्स घटना यादवों के दु्रमकुल्य राज्य के साथ घटित नहीं हुई है ?

रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने उत्तर कांड के 129 (1) में लिखा है कि आभीर यवन, किरात खस, स्वचादि अति अधरुपजे। अर्थात् अहीर, मुसलमान, बहेलिया, खटिक, भंगी आदि पापयोनि हैं. इसी प्रकार व्यास स्मृति का रचयिता एक श्लोक में कहता है कि ‘बढ़ई, नाई, ग्वाला, चमार, कुम्भकार, बनिया, चिड़ीमार, कायस्थ, माली, कुर्मी, भंगी, कोल और चांडाल ये सभी अपवित्र हैं. इनमें से एक पर भी दृष्टि पड़ जाए तो सूर्य दर्शन करने चाहिए तब द्धिज जाति अर्थात् बड़ी जातियों का एक व्यक्ति पवित्र होता है.’

इस आशय के अनेक श्लोक ऋग्वेद में हैं जो यह सिद्ध करते हैं कि आर्य लोग भारत के मूल निवासियों से किस हद तक नफरत करते थे तथा उन्होंने चमड़ी के रंग के आधार पर इनकी हत्याएं की हैं. यादवश्रेष्ठ कृष्ण काली चमड़ी वाले थे. इंद्र और यज्ञ विरोधी होने के लिहाज से ऋग्वेद के अनुसार उनका संघर्ष अग्नि, सोम, इंद्र आदि से होना स्वाभाविक है.

जिनसे जीत नहीं सकते उन्हें अपने में मिला लिया

ऋग्वेद से लेकर तमाम शास्त्रों में अहीर व अहीर नायक कृष्ण अनार्य कहे गए हैं लेकिन इसके बावजूद जब इस देश के मूल निवासियों में कृष्ण का प्रभाव कायम रहा तो इन आर्यों ने कृष्ण के साथ नृशंसता बरतने के बावजूद उन्हें भगवान बना दिया और कृष्णवंशीय बहादुर जाति को अपने सनातन पंथ का हिस्सा बनाने में कामयाबी हासिल कर ली.

जब कृष्ण अनार्य थे तो गीतोपदेश का सवाल उठना लाजिमी है. गीतोपदेश में कृष्ण ने खुद भगवान होने, ब्राह्मण श्रेष्ठता, वर्ण व्यवस्था बनाने जैसे अनेक गले न उतरने वाली बातें कही हैं. ऋग्वेद स्वयं ही गीता में उल्लेखित बातों का खंडन करता है. जब कृष्ण खुद वेद के अनुसार असुर और इंद्रद्रोही थे तो वे वर्ण व्यवस्था को बनाने की बात कैसे कर सकते हैं ? गीता में ब्राह्मणवाद को मजबूत बनाने वाली जो भी बातें कृष्ण के मुंह से कहलवाई गई हैं वे सत्य से परे हैं. काले, अवर्ण असुर कृष्ण कभी भी वर्ण-व्यवस्था के समर्थक नहीं हो सकते.

दरअसल, भारत के मूल निवासियों में अमिट छाप रखने वाले कृष्ण का आभामंडल इतना विस्तृत था कि आर्यों को मजबूरी में कृष्ण को अपने भगवानों में सम्मिलित करना पड़ा. यह कार्य ठीक उसी तरह से किया गया जिस तरह से ब्राह्मणवाद के खात्मा हेतु प्रयत्नशील रहे गौतम बुद्ध को ब्राह्मणों ने गरुड़ पुराण में कृष्ण का अवतार घोषित कर खुद में समाहित करने की चेष्टा की.

जिस तरह से असुर कृष्ण की भारतीय संस्कृति आर्यों ने उदरस्थ कर ली उसी तरह बुद्ध की वैज्ञानिक बातों ने हिन्दू धर्म के अवैज्ञानिक कर्मकांडों के समक्ष दम तोड़ दिया. डॉ. आम्बेडकर के बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद अब भारत में कुछ बौद्ध नज़र आ रहे हैं, वरना इन आर्यों ने बुद्ध को कृष्ण का अवतार और कृष्ण को विष्णु का अवतार घोषित कर कृष्ण एवं बुद्ध को निगल लिया था. कैसी विडंबना है कि विष्णु का अवतार जिस कृष्ण को बताया गया है, वह कृष्ण लगातार वेद से लेकर महाभारत ग्रंथ तक में इंद्र से लड़ रहा है ?

  • कृष्ण कुमार की समीक्षा व लेख

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