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असग़र वजाहत, अब बतायें कि सच क्या है ?

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असग़र वजाहत, अब बतायें कि सच क्या है ?
असग़र वजाहत, अब बतायें कि सच क्या है ?

जिस व्यक्ति के नाम को ‘जिन लाहौर नइ वेख्या ओ जन्मया ई नइ’ जैसे बहुचर्चित नाटक के लेखन का श्रेय हासिल हो, उस व्यक्ति (यानी असग़र वजाहत) का मनस्संतुलन अब बुढ़ापे में आकर कुछ डोल गया सा लगता है, या फिर उनकी स्मृति ही अब उन्हें धोखा देने लगी है और उन्हें अब यह पता ही नहीं रहता कि उन्होंने कब क्या कहा-लिखा है तथा उसका सच से कितना सम्बन्ध है.

उनके जिस नाटक पर ‘आधारित’ फ़िल्म का लेखक (पटकथा, संवाद सहित) होने के नाते उनकी चौतरफ़ा थू-थू हो रही है, उस नाटक का नाम वास्तव में क्या है— इस बाबत सच यदि स्वयं असग़र वजाहत ही बतायें तो बेहतर. उनके पैरोकार या गुर्गे इस बाबत कृपया अपना ज्ञान न झाड़ें क्योंकि वे इस नाटक के रचनाकार नहीं हैं— और स्वयं असग़र वजाहत जो इस नाटक के वास्तविक रचनाकार हैं, वही इसका नाम कभी कुछ लिखते हैं तो कभी कुछ.

चित्र—1

विगत 27 दिसम्बर, 2022 को फेसबुक पर प्रसारित अपनी पोस्ट में खुद असग़र वजाहत ने ही अपने इस नाटक का नाम ‘गोडसे@गांधी.कॉम’ लिखा है.  (देखें : चित्र—1 जो उनकी उसी पोस्ट का स्क्रीनशॉट है.) जबकि 30 जनवरी, 2023 को फेसबुक पर ही प्रसारित अपनी पोस्ट में खुद असग़र वजाहत ने ही अपने इस नाटक का नाम ‘गांधी@गोडसे.कॉम’ लिखा है. (देखें : चित्र—2 स्क्रीनशॉट में लाल घेरे में). जबकि असग़र वजाहत द्वारा लिखित उनके एक ही नाटक के ये दोनों नाम एक-साथ तो सच हो नहीं सकते ! इस बाबत सच क्या है, स्वयं वही बतायें तो बेहतर.

चित्र—2

वैसे, साइबर की दुनिया के टेक्नोक्रेट जानते हैं कि ये दोनों ही नाम न केवल एक-दूसरे के उलट हैं बल्कि एक-दूसरे के विपरीत अर्थ भी व्यक्त करते हैं.
मोटे तौर पर ‘गोडसे@गांधी.कॉम’ का अर्थ हुआ ‘गांधी की पृष्ठभूमि में अथवा गांधी के नज़रिये से गोडसे’ जबकि ‘गांधी@गोडसे.कॉम’ का अर्थ हुआ ‘गोडसे की पृष्ठभूमि में अथवा गोडसे के नज़रिये से गांधी.’

चित्र—3

असग़र वजाहत के इस नाटक को जिस रूप में मैंने पढ़ा है, तब उसका नाम ‘गोडसे@गांधी.कॉम’ था. (देखें : चित्र—3). यह नाटक मेरी दृष्टि में तब भी घटिया और मंतव्य-प्रेरित ही था लेकिन वह अलग मसला है, क्योंकि सबकी पसंद अलग-अलग हो सकती है.

यह नाटक, असग़र वजाहत के अनुसार, छपा तो पहली बार करीब पंद्रह साल पहले था, लेकिन इसकी पूछ और मांग में उछाल आया वर्ष 2015 में. (ध्यान रहे कि तब तक देश में दक्षिणपंथी मानसिकता वाली सरकार सत्तारूढ़ हो चुकी थी और सत्ता से जोड़-तोड़ करके अपनी गोटियां लाल करने की प्रवृत्ति भी तेज़ी पर थी) और तब दिल्ली के ‘भारतीय ज्ञानपीठ’ से प्रकाशित इसकी प्रतियों ने बाज़ार पकड़ा था.

उसके बाद, बहुतेरे लोगों को शायद ख़बर न हो कि वर्ष 2022 में असग़र वजाहत ने अपने इस नाटक का ‘संशोधित संस्करण’ दिल्ली के ‘वाणी प्रकाशन’ से प्रकाशित कराया. इसकी बढ़ती ‘मांग’ (जिसकी वजहें अबूझ नहीं) के चलते महज़ सात वर्ष में ही उनके इस नाटक में किस तरह के संशोधन की ज़रूरत आन पड़ी, यह तो वजाहत ही बता सकते हैं. कम-से-कम मैं तो नहीं ही बता सकती क्योंकि मैंने यह ‘संशोधित संस्करण’ पढ़ा नहीं है. लेकिन इतना ज़रूर है कि इस नाटक के पूर्व-संस्करण के कवर (आवरण) की तस्वीर में जहां भीड़ से घिरे गांधी ही दिखायी देते थे, वहीं इसके ‘संशोधित संस्करण’ में अब गांधी के साथ गोडसे भी बराबरी की हैसियत से कवर-पेज (आवरण-पृष्ठ) पर आ डटा है. (देखें : चित्र—4)

चित्र—4

आवरण-पृष्ठ की डिज़ाइन का यह संशोधन नाटककार के मानस और नाटक के कथ्य-निहितार्थ व संवादों आदि में हुए तदनुरूप संशोधन को भी शायद रूपायित करता हो किन्तु यह ‘शायद’ भी तब गिर जाता है, जब यह नाटक राजकुमार संतोषी के निर्देशन और स्वयं असग़र वजाहत के लेखन से सज्जित होकर फ़िल्म के रूप में प्रदर्शित होता है.

अपने मुंह पर कालिख पोतवाकर अपने रचनाकारों को व्यापक समाज में निन्दित किन्तु दक्षिणपंथियों की जन-विरोधी जमात में अभिनन्दित भी करता है. हो सकता है कि इसके एवज़ में असग़र वजाहत जैसे निहित-स्वार्थी मौकापरस्तों को भी कोई पद्म-पुरस्कार अथवा कोई सरकारी ओहदा मिल जाये, जिसे वे तटस्थ भाव से स्वीकार भी कर लें लेकिन चेहरे पर पुती कालिख और बिके-मरे ज़मीर की भरपाई उतने भर से भी नहीं हो पायेगी.

यह एक टिप्पणी है जो असग़र वजाहत के उस पोस्ट पर की गयी है जिसमें उन्होंने अपने नाटक पर ‘आधारित’ फ़िल्म के लेखन (पटकथा, संवाद सहित) के लिए अपनी चौतरफ़ा हो रही भर्त्सना के विरोध में जो-तो हांकते हुए अपना पक्ष रखा है और कुल मिलाकर फ़िल्म को देखने की अपील करते हुए उसका एक तरह से प्रोमोशन किया है.

वैसे उम्मीद क्या, पूरा-पक्का यकीन है कि जवाब देने के लिए असग़र वजाहत सामने नहीं आयेंगे. अगर सामने आये तो निन्दा-भर्त्सना का रेला, जिसका सैलाब उनके फेसबुक-वॉल पर ही आया हुआ है, उनके स्वागत में तैयार खड़ा है.

निकट अतीत में शाहीन बाग की धरनारत महिलाओं के ख़िलाफ़ अशोभनीय टिप्पणी करते हुए ज़हनी तौर पर पहले ही नंगे हो चुके वजाहत का ज़मीर संघ-गिरोह के मानसिक ग़ुलामों के हाथों बिक जाने के बाद अब इतना हिम्मतवर भी कहां ? अब तो वह उन लोगों में शामिल हैं जो अपनी स्वार्थ-लिप्सा की सिद्धि और अपने लाभ के लिए गलीजपन के घटिया से घटिया स्तर तक उतरने को तैयार हैं.

असगर वजाहत का चरित्र भी फिलहाल परिदृश्य में ऐसा ही है. नीचे में कविता कृष्णापल्लवी की पूरी कविता. यह कविता तब लिखी गयी थी जब पूरे देश में सीएए-एनआरसी के विरोध में आन्दोलन जारी था लेकिन यह आज भी उतनी ही प्रासंगिक है !

आठवें पेग के बाद एक क़बूलनामा

क्या बताऊं मैं दोस्तो आपको

अपने दिल का हाल !
मैं भी चलता शाहीन बाग़
और ऐसी तमाम जगहों पर जाता,
पार्कों में रतजगे करता,
पुलिस की लाठियां खाता, जेल जाता
पर आपको मेरी मजबूरी समझनी होगी !

नहीं-नहीं, बात यह नहीं है कि मेरी
सेहत बेहद खराब है, ब्लड प्रेशर, शूगर, गठिया,
थायरायड — सबकुछ की हालत खराब है
और पत्नी की सेहत, और उससे भी बढ़कर उनका मिजाज़
आप जानते ही हैं और यह भी आप जानते ही हैं कि मेरे बच्चे
मुझे ख़ब्ती समझते हैं और मोदी को
नए भारत का निर्माता समझते हैं !

लेकिन ये सब कारण नहीं हैं
मेरे आपके बीच न होने का !
अरे मैं तो दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की तरह
किसी फासिस्ट हत्यारे की गोली से मरने के लिए भी तैयार होता
अगर मैं पहले से ही मरा हुआ नहीं होता !

यह मेरे जीवन का विस्मयकारी जादुई यथार्थ है
कि मरा हुआ मैं जीवितों की दुनिया में
आम ज़िंदगी जीता हुआ भटकता रहता हूं
और मुर्दों के टापू और टीले तलाशता रहता हूं
जहां सुकून के कुछ लम्हे बिता सकूं !

मैं आज आपके सामने अपना दिल
खोलकर रख देना चाहता हूं,
अपने सारे राज़ उगल देना चाहता हूं !

सच तो यह है कि मैं कई-कई बार मर चुका हूं,
इतना मर चुका हूं कि अब मरने को भी कुछ नहीं बचा !
घर-गिरस्ती में घिस-घिसकर मरा,
अखबार के दफ्तर में मालिक के आदेश पर झूठ की दलाली करके
नौकरी बचाते और तरक्की की सीढ़ियां चढ़ते हुए
पिस-पिसकर मरा,

प्राध्यापकी के चरखे में घुट-घुट कर मरा
और अफसरी करते हुए कुत्ते की मौत मरा,
हत्यारों के हाथों पुरस्कृत होते हुए मरा,
फासिस्टों और महाभ्रष्ट और दुराचारी नेताओं को
माला पहनाते हुए मरा,

गुण्डे के साथ मंच सुशोभित करते हुए मरा,
पूंजीपतियों के प्रतिष्ठानों और सरकारी अकादमियों में
पदासीन हो-होकर मरा,
बंगला और गाड़ी लेकर मरा,
जीवन को अधिकतम संभव आर्थिक सुरक्षा देकर मरा,

और यह सबकुछ करते हुए जब-जब
रचना और भाषणों में प्रगतिशीलता की दुहाई दी
तब-तब मरा, कभी एक गिरगिट की मौत
तो कभी एक सियार की मौत !

तो दोस्तों, ईमानदारी की बात यह है कि
इतने मरे हुए आदमी को जहां भी ले जाओगे
वहां लाशों की बदबू फ़ैल जायेगी !
बेहतर यही होगा कि तुमलोग मुझे
मेरी सुविधाओं, भय, कमीनगी,
विद्वत्ता और बेशर्मी के साथ
अकेला छोड़ दो !

  • सुनीता श्रीनीति

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