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अहंकारी मोदी हनोई के मंच पर नेहरू-इंदिरा का नाम तक नहीं लेता

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प्रधानमंत्री मोदी हनोई के मंच पर नेहरू-इंदिरा का नाम नहीं लेते हैं, तो उस कारण को हम-आप समझ सकते हैं. कूटनीति में कुटिल-नीति का प्रवेश जब हो जाता है, तो परिणाम ऐसा ही निकल कर आता है. हो ची मिन्ह स्मारक पर दर्शनार्थियों का जो तांता लगता है, शायद राजधाट पर वैसी भीड़ देखने को न मिले. गांधी की आलोचना जिस तरह भारत में होती है, ऐसा कोई वियतनाम में हो ची मिन्ह की करके दिखाये.
अहंकारी मोदी हनोई के मंच पर नेहरू-इंदिरा का नाम तक नहीं लेता
अहंकारी मोदी हनोई के मंच पर नेहरू-इंदिरा का नाम तक नहीं लेता

पुष्परंजन

पीएमओ द्वारा जारी 3 सितंबर 2016 का वीडियो, यू-ट्यूब पर आप भी देखिएगा. तब प्रधानमंत्री मोदी, हनोई के क्वान सू पगोड़ा में 3 सितंबर 2016 को बौद्ध धर्म गुरूओं की सभा को संबोधित कर रहे थे. भाषण का आरंभ प्रधानमंत्री मोदी के इन शब्दों से है, ‘इसके पूर्व देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद 1959 में इस पवित्र घरती पर आये थे, आज मुझे आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है.’ इसके बाद पीएम मोदी युद्ध और बुद्ध पर बोले, शांति की बात की और बनारस को बुद्ध की धरती बताते हुए उपस्थित जनों को वहां आने का आमंत्रण दिया.

हनोई की उस सभा में विदेशमंत्री एस. जयशंकर समेत उनके मंत्रालय के आला अफसर उपस्थित थे, मगर किसी ने याद दिलाने की हिमाक़त नहीं की कि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से पहले एक और शख्सियत का वियतनाम आना हुआ था, वो थे देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू. हनोई के आजाद होने के ठीक सात दिन बाद, 17 अक्टूबर 1954 को पंडित नेहरू यहां आये थे. उनका स्वागत हो ची मिन्ह ने किया था. ‘बाक हो’ (अंकल हो) के नाम विख्यात हो ची मिन्ह, ‘चाचा नेहरू‘ से मिल रहे थे. हर वियतनामी के दिल में बसे अंकल हो, 1945 से 1955 तक प्रधानमंत्री और 1945 से जीवन के आखि़री दिनों, 2 सितंबर 1969 तक राष्ट्रपति के पद पर रहे. 1975 में अमेरिकी प्रभाव वाले दक्षिणी वियतनाम से युद्ध में विजय के बाद 1976 में उत्तर-दक्षिण वियतनाम का एकीकरण हुआ था.

1954 में नेहरू हनोई के बाद, सैगोन (हो ची मिन्ह सिटी का पुराना नाम) भी गये थे, और उस समय दक्षिणी वियतनाम के प्रधानमंत्री न्गो दिन्ह दिम और फ्रेंच जनरल पॉल इली से उनकी मुलाक़ात हुई थी. नेहरू वहां से लौट कर आये तो बर्मा समेत पूर्वी एशिया के तत्कालीन शासन प्रमुखों से अपने अनुभव साझा किये. नेहरू ने अपने संस्मरण में लिखा कि दक्षिणी वियतनाम में प्रधानमंत्री और सेना के जनरलों के बीच कोई तालमेल नहीं दिख रहा था. धर्मगुरूओं की निजी सेना अपना वर्चस्व बनाये हुए थी. यह दिलचस्प है कि नेहरू की नाखुशी वाली रिपोर्ट का फायदा बाद के दिनों में उत्तरी वियतनाम के रूसी-चीनी रणनीतिकारों ने युद्ध में उठाया था.

नेहरू ने अपने समय दक्षिणी और उत्तरी वियतनाम के बीच संतुलन की कूटनीति करने का प्रयास किया था. हो ची मिन्ह के भारत आने से साल भर पहले, दक्षिणी वियतनाम के राष्ट्रपति न्गो दिन्ह दीम मार्च 1957 में नई दिल्ली आये थे. सबके बावजू़द, हो ची मिन्ह का भारत में विशेष सम्मान रहा है. 1968 में कोलकाता में हो ची मिन्ह सारिणी नाम से सड़क और वहां लगी उनकी मूर्ति इसका प्रतीक है. नई दिल्ली में भी हो ची मिन्ह मार्ग 1990 में नामित हुआ. इस मार्ग पर हो ची मिन्ह की मूर्ति लगाने की मांग अब तक लंबित है.

प्रधानमंत्री मोदी के वियतनाम जाने के आठ माह पहले, फरवरी 2016 में वियतनाम के तत्कालीन राजदूत तोन सिन थिन्ह ने मांग की थी कि भारत के अभिन्न मित्र रहे हो चि मिन्ह की मूर्ति नई दिल्ली में उस मार्ग पर स्थापित हो, जो उनके नाम है. 20 फरवरी 2016 को इंडो-वियतनाम कल्चरल रिलेशंस के सेमीनार में राजदूत तोन सिन थिन्ह ने कहा था कि हो ची मिन्ह की मूर्ति हमारी दोस्ती की अद्भुत मिसाल बनेगी. प्रधानमंत्री मोदी हनोई गये, वहां से लौट भी आये, हो ची मिन्ह की मूर्ति लगाने की मांग जहां थी, वहां अब भी है. उन्हें संभवतः अंकल हो के सम्मान का अंदाज़ा नहीं हुआ. हो ची मिन्ह स्मारक पर दर्शनार्थियों का जो तांता लगता है, शायद राजधाट पर वैसी भीड़ देखने को न मिले. गांधी की आलोचना जिस तरह भारत में होती है, ऐसा कोई वियतनाम में हो ची मिन्ह की करके दिखाये.

हनोई शहर के बीचो-बीच थान कोंग इलाक़े में इंदिरा गांधी के नाम का पट्ट लगा एक बड़ा-सा पार्क है. पार्क के केंद्र में इंदिरा गांधी की मूर्ति भी लगाई गई है. नवंबर 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी हनोई गये थे. उस अवसर पर इंदिरा गांधी के लिए वियतनाम का हाईएस्ट सिविलियन अवार्ड ‘गोल्ड स्टार ऑर्डर‘, उन्होंने स्वीकार किया था. क्या प्रधानमंत्री मोदी को इन सब बातों से चिढ़ है कि इस तरह का सम्मान वियतनाम ने हमें क्यों नहीं दिया ? इंदिरा गांधी को वियतनाम का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ऐसे नहीं मिल गया था. उत्तरी वियतनाम पर लगातार अमेरिकी बमबारी का उन्होंने विरोध किया था. जनवरी 1966 में प्रधानमंत्री बनने के बाद, इंदिरा गांधी ने जिनेवा कन्वेंशन के हवाले से उत्तरी वियतनाम पर हो रही बमबारी तत्काल रोकने की मांग की थी.

ठीक से देखा जाए तो भारत की लुक इस्ट पॉलिसी का बीजारोपण 1952-54 के कालखंड में हो चुका था. प्रधानमंत्री मोदी हनोई के मंच पर नेहरू का नाम नहीं लेते हैं, तो उस कारण को हम-आप समझ सकते हैं. कूटनीति में कुटिल-नीति का प्रवेश जब हो जाता है, तो परिणाम ऐसा ही निकल कर आता है. 2016 की हनोई यात्रा में प्रधानमंत्री मोदी, वेस्ट लेक पर अवस्थित ट्रान क्वॉक पगोड़ा भी नहीं गये, जहां 1959 में हो ची मिन्ह और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने पवित्र बोधी वृक्ष के पौधे को रोपा था. क्वान सू पगोड़ा से केवल चार किलोमीटर की दूरी पर वेस्ट लेक है, जहां पहुंचने में अधिकतम दस मिनट लगता. प्रधानमंत्री मोदी का वहां नहीं जाना, जिज्ञासा पैदा तो करता है, जिसका जवाब वो स्वयं, अथवा विदेश मंत्री एस. जयशंकर दे सकते हैं.

प्रधानमंत्री मोदी का कहीं जाने का भी कारण होता है, और नहीं जाने का भी कारण होता है. हनोई का क्वान सू पगोड़ा प्रधानमंत्री मोदी इसलिए गये, क्योंकि यह जगह वियतनाम बुद्धिस्ट संघ का मुख्यालय है, और यहां के घर्मगुरूओं के माध्यम से चीन को साधना था. ‘क्वान सू‘ को ‘एंबेसडर्स पगोड़ा‘ भी कहते हैं, जहां धर्म के बज़रिये कूटनीति का मार्ग प्रशस्त होता है. क्वान सू का मतलब भी ‘दूतावास‘ होता है. 15वीं सदी में चंपा और लाओस के दूत तत्कालीन सम्राट ले द तोंग के दरबार में हाज़िरी लगाने आते थे.

हनोई का प्राचीन क्वान सू पगोड़ा अब भी घर्म की राजनीति का अधिकेंद्र है. 7 नवंबर 1981 को वियतनाम भर के बौद्ध धर्मगुरूओं, लामाओं और भिक्षुणियों का समागम यहां हुआ था, और वियतनाम बुद्धिस्ट संघ (वीबीएस) को सरकारी मान्यता दी गई थी. उस अवसर पर इस संस्था के मुख्य धर्माधिकारी थिच फो थुए बनाये गये थे. 21 अक्टूबर 2021 को 105 वर्ष की उम्र में थिच फो थुए ने देह त्याग दिया था.

उनके बाद थिच त्रि क्वांग ‘वीबीएस‘ के कार्यकारी धर्माधिकारी के पद पर आसीन हैं. प्रधानमंत्री मोदी की प्राथमिकता यही थी कि वो क्वान सू पगोड़ा जाएं. बोधी वृक्ष को देखना, या फिर हनोई में इंदिरा गांधी के नाम से बने पार्क की तरफ टहल आना प्रधानमंत्री मोदी की प्राथमिकता में नहीं थी. वो होची मिन्ह स्मारक गये, उनके आवास को देखा, हो ची मिन्ह आवास के आगे तालाब में मछलियों को दाने फेंके, हो गया भारत-वियतनाम संबंध मज़बूत !

7 जनवरी 1972 को भारत-वियतनाम के बीच कूटनीतिक संबंध स्थापित हुए थे. 7 जनवरी 2022 को अमृतवर्ष में कूटनीतिक संबंधों की 50वीं वर्षगांठ को आभासी तरीक़े से मनाकर रस्म अदायगी कर ली गई. दूतावासों के ज़रिये वर्चुअल फोटो शेयर किये गये, प्रतीक चिह्न जारी किये, उभयपक्षीय संदेशों का आदान-प्रदान हुआ. खेल खतम, पैसा हजम. भारत-वियतनाम के बीच सालाना उभयपक्षीय व्यापार 14.14 अरब डॉलर का है, मगर अफसोस, दिल्ली की सड़क पर आप उनके लोकप्रिय नेता हो ची मिन्ह की एक मूर्ति लगाने से कटते रहे, और दावा करते हैं कि भारत-वियतनाम संबंध मज़बूत हुआ. यह भूल जाते हैं कि साउथ चाइना सी में आपको कूटनीतिक विस्तार करना है, जो वियतनाम के सहयोग के बिना असंभव है.

हिंद-प्रशांत के देशों में भारत के कुल व्यापार का 55 प्रतिशत साउथ चाइना सी के बजरिये होता है. मार्च 2021 में मालाबार एक्सरसाइज हुआ, जिसमें क्वाड के सहयोगी देश भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान ने प्रशांत महासागर के गुआम तट पर नौसैनिक अभ्यास किये थे. उस दौरान भारत के साथ सिंगापुर, इंडोनेशिया, फिलीपींस, और वियतनाम ने भी द्विपक्षीय नेवल एक्सरसाइज किये थे. पता नहीं भारत सरकार के रणनीतिकार वियतनाम के स्ट्रेटेजिक लोकेशन को समझने से चूक क्यों रहे हैं ? अमेरिका-फ्रांस वहां से उखड़ गये, मगर रूसी और चीनी प्रभाव की वजह से उनकी नज़र वहीं गड़ी रहती है. स्टॉकहोम स्थित सिपरी की सूचनाओं को देखें, तो 56 फीसद रूसी हथियारों का निर्यात वियतनाम होता है, भारत को मात्र 46 प्रतिशत.

भारत के दो नेताओं, जवाहर लाल नेहरू और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने आज से 68 साल पहले वियतनाम को समझा था. पूर्वी एशियाई कूटनीति में यह देश हमारी प्राथमिकता सूची में रहा था. सही से देखें, तो डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के तार हो ची मिन्ह से अधिक जुड़े. उन विजुअल्स और दस्तावेज़ों को देखिये, जो दिल्ली के रायसीना हिल्स से लेकर हनोई के अभिलेखागारों में नुमायां हैं. प्रेसिडेंट हो, फरवरी 1958 में 11 दिनों के वास्ते भारत आये थे. उन दिनों की तस्वीरें गवाह हैं कि हो ची मिन्ह भारत के लिए क्या महत्व रखते थे.

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, हो के निमंत्रण पर हनोई गये थे. हनोई के संग्रहालयों मैंने तस्वीरें देखीं, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का क्या ज़बरदस्त स्वागत तब हुआ था ! हनोई के दोनों तरफ सड़कों पर भीड़. शायद, नेहरू से ज़्यादा, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद वियतनामियों के दिलों में बस गये थे. सरलता को स्वीकार करना वियतनामी स्वभाव में है, यह भी वजह हो सकती है. राजनीति में रश्क नहीं पाला जाता, उस समय की लीडरशिप से यही सीख मिलती है. नेहरू को संभवतः इस बात की ईर्ष्या नहीं रही कि डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की पूछ वियतनाम की धरती पर मुझसे अधिक क्यों हुई. यहां तो उल्टा है – अहं ब्रह्मास्मि !

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