हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
एक बहुत बड़े हिन्दी अखबार के प्रधान संपादक पटना आ रहे थे. हवाई जहाज में एक बड़े पत्रकार मिले. पटना जाने का प्रयोजन पूछा. संपादक महोदय ने बताया कि बिहार से अखबार का नया संस्करण शुरू करना है. पत्रकार महोदय हैरत में पड़ गए, ‘बिहार में क्या है ? वहां तो न बिजनेस है, न उद्योग. केवल सरकारी विज्ञापन पर कितने दिन टिकिएगा ?’
संपादक महोदय ने समझाया, ‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. बिहार की सरकारी शिक्षा ध्वस्त है. तो, प्राइवेट कोचिंग, प्राइवेट स्कूल, प्राइवेट युनिवर्सिटी आदि का अच्छा खासा बाजार है वहां. इन सबके खूब विज्ञापन मिलते हैं वहां. बिहार इन सबका सबसे बड़ा ग्राहक है.’
खैर, अखबार शुरू हुआ. एक साथ इसके कई संस्करण बिहार के कई शहरों से निकलने शुरू हुए. फ्रंट पेज पर फलां कोचिंग का फुल पेज रंगीन विज्ञापन, अगले पेज पर अलाने प्राइवेट यूनिवर्सिटी का, उसके अगले पेज पर फलाने प्राइवेट स्कूल का. छोटे मोटे दूसरे विज्ञापन आदि तो रहने ही हैं. यह कहानी कुछ वर्ष पहले की है जिसे उक्त पत्रकार महोदय हाल में ही एक दिन किसी यूट्यूब चैनल पर किसी परिचर्चा के दौरान बयान कर रहे थे.
बिहार एक गरीब राज्य है लेकिन शिक्षा पर इसका सरकारी खर्च आनुपातिक रूप से बहुत कम नहीं है. लेकिन, देश भर में इसकी शिक्षा व्यवस्था हास्य और व्यंग्य और दुत्कार सहती आ रही है. इसके कर्णधार लोग, जो भी बनते रहे हैं, वे अपनी प्रतिभा का अधिकतम उपयोग इसे और अधिक नष्ट करने में करते रहे हैं.
ब्यूरोक्रेसी पर नीतीश कुमार की अत्यधिक निर्भरता और जरूरत से अधिक भरोसा ने भी बिहार की शिक्षा को बर्बाद करने मे बड़ी भूमिका निभाई है. फिर, उच्च शिक्षा का अपना एक अलग वितान है. हरि अनंत हरि कथा अनंता की तरह बिहार की शिक्षा की व्यथा कथा है.
बिहार में परिपाटी है कि हर मर्ज के लिए मास्टरों को कोसो. किसी और पर कोई जिम्मेदारी नहीं डालो. बस, स्कूल, कॉलेजों के मास्टरों को बेइज्जत, बदनाम करने पर लगे रहो. यही हमारी प्रशासनिक और सामाजिक संस्कृति बन गई है.
मास्टरों का क्या है. समाज की लानत मलामत झेलते हैं, दिन रात देखते हैं कि चमचे, माफिया के चेले टाइप मास्टर पद हथिया रहे हैं, बिना किसी खौफ या हिचक के लूट की संस्कृति के ध्वजवाहक बने बैठे हैं, संस्थानों को बड़े ही जतन से कुतर कुतर कर नष्ट कर रहे हैं, बच्चों की प्रतिभा को जाया कर रहे हैं और तब भी पुरस्कृत हो रहे हैं, सम्मानित हो रहे हैं. स्कूलों में तो फिर भी कम गुंजाइश है इन सबकी, लेकिन उच्च शिक्षा में तो यही सब खेल हो रहा है, बाकी क्या हो रहा है यह अनुसंधान का विषय है.
जो पद शिक्षाविद् को दिए जाने हैं, नीतीश कुमार जी उन पर भी ब्यूरोक्रेट को बैठा देते हैं और उम्मीद करते हैं कि वह इसे ‘सुधार’ देगा. कुछ वर्ष पहले पटना हाई कोर्ट ने बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अध्यक्ष पद के लिए नौकरशाह नहीं, किसी शिक्षाविद का चयन करने की हिदायत दी थी. कुछ अंतराल के बाद नीतीश सरकार फिर पुराने पैटर्न पर आ गई और एक ऐसे हाकिम को इसका जिम्मा फिर से सौंप दिया जिस के चार्ज में कई विभाग पहले से हैं.
बिहार की जनता सिर्फ मास्टर प्रोफेसर को कोस कर निश्चिंत हो जाती है और मान कर चलती है कि यहां कुछ अच्छा नहीं होने वाला. जिन्हें थोड़ी भी हैसियत है वे अपने बच्चों को कोटा, दिल्ली, बनारस, हैदराबाद आदि भेज देते हैं. बाकी जो हैं वे यहां की मिट्टी में ही मिल जाने को अभिशप्त हैं.
यहां यह संस्कृति बन गई है कि जो बिहार की शैक्षिक अराजकता का, संस्थानों में जड़ जमाए गलत तत्वों का, हो रहे भयानक भ्रष्टाचार आदि का विरोध करता है वह हंसी और व्यंग्य का पात्र बनता है. पदासीन लोग तो उसे हिकारत की नजर से देखते ही हैं, सामान्य लोग भी उसकी हंसी उड़ाते हैं. आम तौर पर होता जाता तो कुछ है नहीं किसी के विरोध का. सब अभ्यस्त हो चुके हैं.
इस बहती गंगा में प्राइवेट संस्थान भी क्यों न नहा लें, तो बिहार में जितने भी प्राइवेट संस्थान खुले हैं या खुलते जा रहे हैं वे बाहरी चमक दमक चाहे जितनी कर लें, वे प्रतिबद्ध हैं कि शिक्षण की वह क्वालिटी नहीं देनी है जो देश के अन्य शहरों में देते हैं।.बस, ग्राहक जुटाना, लूट की हद तक उनसे वसूली करना. अपवाद में कुछ स्कूल जरूर हैं लेकिन उच्च शिक्षा के संस्थान क्वालिटी के प्रति कोई प्रतिबद्धता दिखाना जरूरी नहीं समझते.
पता नहीं, वे संपादक महोदय रहे या नहीं, अगर हैं तो उस अखबार में हैं या नहीं, लेकिन उनका विजन काम कर गया. वह अखबार आजकल बिहार का प्रमुख अखबार बना हुआ है, उसके ढेरों संस्करण निकल रहे हैं, बोले तो, खूब माल छाप रहे हैं उसके मालिकान. और हां, उसे प्राइवेट शिक्षण संस्थानों के खूब विज्ञापन भी मिल रहे हैं. खूब खूब मिल रहे हैं. एक से एक अच्छे, एक से एक फ्रॉड संस्थानों के. फुल फुल पेज के, बहुरंगी कलर के.
अच्छे पढ़े लिखे लोगों से पूछिए कि बिहार में कितने निजी विश्वविद्यालय हैं, वे कहां हैं. आप पाएंगे कि इस बारे में उन्हें आधी अधूरी जानकारी ही है. उन्हें यह सब जानने में कोई रुचि भी नहीं है. तब तक कोई रुचि नहीं है जब तक कि घर का कोई नौनिहाल ऐसे किसी विश्वविद्यालय में एडमिशन लेने की बात न करे.
हमारी नजरों से इन प्राइवेट यूनिवर्सिटीज की ऐसी कोई वैकेंसी भी प्रायः नहीं ही गुजरती जिसमें असिस्टेंट प्रोफेसर्स या गैर शैक्षणिक पदों की नियुक्ति की बातें की गई हो. पता ही नहीं चलता कि कब किस क्राइटेरिया से किन लोगों को वे किस पद पर वे नियुक्त कर लेते हैं, किन शर्तों पर नियुक्त करते हैं, कितना वेतन देते हैं, कितने वेतन पर साइन करवाते हैं. हमें कुछ नहीं पता.
हालांकि, जेनरल नॉलेज से हमें इतना पता है कि जब भी, जितनी भी नियुक्तियां वे करते होंगे उनमें विशुद्ध रूप से अपनी मनमानी ही करते होंगे. किसी भी तरह के आरक्षण की बात तो भूल ही जाएं, योग्यता को भी कितनी तरजीह देते हैं यह ठीक से नहीं कह सकते.
सामान्य जानकारी के अनुसार बिहार में सात या आठ प्राइवेट विश्वविद्यालय हैं. अच्छे ही होंगे. सरकारी से अधिक उनकी दीवारों में चमक होगी. उनके प्रोफेसर तो प्रोफेसर, छात्र गण भी टाई लगा कर कॉलेज जाते होंगे. ह्यूमिनिटीज और सोशल साइंस की तो उन जगहों पर ऐसी की तैसी ही होती होगी, टाई लगाए वे छात्र भारी भारी कोर्स पढ़ते होंगे. बोले तो…प्रोफेशनल कोर्स.
जब तक वे पढ़ते होंगे, भारी भरकम फीस चुकाते होंगे. इस अहसास से सराबोर रहते होंगे कि बस, कोर्स पूरा होने की देर है, शानदार पैकेज वाली नौकरी उनका इंतजार कर रही है. फिर तो, मौजां ही मौजां…!
हालांकि, अधिकतर मामलों में ऐसा होता नहीं. इस बात के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं कि बिहार के प्राइवेट विश्वविद्यालयों से कितने ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट प्रतिवर्ष निकलते हैं और उनमें से कितने रोजगार के बाजार में अपनी उपयोगिता साबित कर पाते हैं. बाकी जो बचते हैं वे क्या करते हैं.
इस बात पर तो कोई बहस ही नहीं होती कि ऐसे विश्वविद्यालयों में बरसों तक जूते रगड़ने और टाई को चमकाने के बाद जब वे निकलते हैं तो कौन सा जीवन मूल्य, कैसा सामाजिक मूल्य, कैसी राजनीतिक-सामाजिक चेतना ले कर समाज की मुख्यधारा में आते हैं.
दो महीने पहले हमने एक बहुचर्चित वीडियो देखा जिसमें देश के एक बड़े शहर के बड़े निजी विश्वविद्यालय के नौनिहाल अपनी राजनीतिक चेतना का परिचय दे रहे थे. देखने के बाद देश ने तो अपना माथा पीटा ही, नौनिहालों के मॉम और डैड भी खासे शर्मसार हुए होंगे. हालांकि, जिस सामाजिक पृष्ठभूमि से वे नौनिहाल आते हैं उनके मालदार और रसूखदार लोग प्रायः शर्मप्रूफ ही होते हैं. कितना शर्म करें, किस किस बात की शर्म करें. शर्म तो लोअर मिडिल क्लास लोगों के जीवन का हिस्सा है. हालांकि, आजकल उन्हें भी शर्म की जगह तरह तरह की बातों पर गर्व करना ही सिखाया जाता है.
सरकारी स्कूलों के मास्साब कितने बजे स्कूल जाते हैं, कितना वेतन उठाते हैं, कितने कामचोर हैं, कितने कर्मठ हैं, कैसे बहाल होते हैं, हमारे गांव समाज के हर तबके के पास इसका विवरण है. लेकिन, किसी को नहीं पता कि निजी विश्वविद्यालयों के टाईधारी प्रोफेसर्स कितना वेतन उठाते हैं, कैसे बहाल होते हैं, कैसे कब बाहर कर दिए जाते हैं.
इससे भी किसी को मतलब नहीं कि ऐसे परिसरों में पढ़े लिखे शिक्षकों और कर्मचारियों के साथ कैसा बर्ताव किया जाता है, उनके प्रमोशंस, उनकी सेवा शर्तों की क्या स्थिति है. हमने कभी भी के. के. पाठक टाइप अतिसक्रिय हाकिम को निजी विश्वविद्यालयों के फटे में टांगें अड़ाते नहीं देखा. कम से कम अखबारों में तो ऐसी कोई खबर नहीं ही देखी कि कोई सरकारी हाकिम वहां जाकर देखे कि सरकारी नियम कायदों का कितना पालन हो रहा है, लोगों के संवैधानिक अधिकारों के साथ वहां कैसा रवैया है मालिकानों या मैनेजर्स का.
हमारी नई शिक्षा नीति निजी विश्वविद्यालयों की स्थापना को प्रोत्साहित करती है, यहां तक कि जो आज सरकारी हैं कल उनके भी निजी हो जाने की शुभकामना देती है तो निजी क्षेत्र के प्रति कुछ सवाल तो उठेंगे ही. हालांकि, ये सवाल सामान्य जन के सरोकारों में अब तक शामिल नहीं हो सके हैं. जिस दिन आम लोग इन सबमें दिलचस्पी लेने लगेंगे, बड़े बड़े आर्थिक और शैक्षणिक घोटालों का पर्दाफाश भी होने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं.
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