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क्या आप इस समाज को बेहतर बनाने के लिए उतनी मेहनत कर रहे हैं, जितनी जरूरत है ?

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क्या आप इस समाज को बेहतर बनाने के लिए उतनी मेहनत कर रहे हैं, जितनी जरूरत है ?
क्या आप इस समाज को बेहतर बनाने के लिए उतनी मेहनत कर रहे हैं, जितनी जरूरत है ?
हिमांशु कुमार, सामाजिक कार्यकर्त्ताहिमांशु कुमार

कुछ वर्ष पहले मैंने दिल्ली से सहारनपुर तक पैदल यात्रा की थी. मुद्दा था चंद्रशेखर रावण की गैरकानूनी हिरासत का. उस यात्रा में मेरे साथ सिर्फ दो लोग आए थे. छत्तीसगढ़ से संजीत बर्मन और दिल्ली से कृष्णा. फेसबुक पर बड़े-बड़े कमेंट करने वाले लोग गायब ही रहे. एक सज्जन जो सहारनपुर से थे, वह काफी साल से मुझे कहते थे कि जब आप सहारनपुर की तरफ कोई कार्यक्रम करें तो मैं उसमें शामिल होऊंगा.

मेरी यात्रा के दौरान वह मुझे फेसबुक पर पूछते रहे कि आप सहारनपुर किस तारीख को पहुंच रहे हैं. जब हमारी पदयात्रा सहारनपुर पहुंची तो मामला तनावपूर्ण हो गया. पुलिस घबरा गई थी. बहरहाल मैंने उन सज्जन को फोन लगाया कि हम लोग सहारनपुर पहुंच चुके हैं, आप मिलना चाहते हैं तो आ जाइए. हम जेल के पास मौजूद हैं, जहां चंद्रशेखर रावण को कैद करके रखा गया है. उन सज्जन ने फोन पर बताया मैं आज कहीं और व्यस्त हूं. आज नहीं आऊंगा.

ऐसा मेरे साथ बहुत बार हुआ है. जिस शहर के लोग कमेंट करके कहते हैं कि जब आप हमारे शहर की तरफ आए तो हमें बताइएगा. हम आपसे मिलना चाहते हैं. लेकिन जब मैं उनके शहर में पहुंचता हूं तो वह लोग गायब हो जाते हैं.

दिल्ली से निकलकर आज मैंने हरियाणा के मेवात इलाके को क्रॉस कर लिया है. अब मैं राजस्थान के मेवात इलाके में से गुज़रूंगा. फेसबुक पर मुझे यह उपदेश देने वाले, आप जमीन पर उतर कर कुछ करिए. अभी तक कहीं दिखाई नहीं दिए हैं. अलबत्ता इस इलाके के भी बहुत सारे फेसबुक मित्रों ने कहा आपका हमारे इलाके में स्वागत है लेकिन वह खुद मिलने भी नहीं आए. ना किसी ने यह ऑफर किया कि हम आपके साथ कुछ दूर चलेंगे. साइकिल पर नहीं तो मोटरसाइकिल पर या अपनी गाड़ी से ही सही लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

मुझे अपना बैग साइकिल कर कैरियर पर लगाकर खुद ही जाना पड़ता है, जिसमें लेपटॉप, ट्राइपॉड, कपड़े, सूखा नाश्ता वगैरह सब रहता है. किसी ने यह भी ऑफर नहीं किया कि लाइए हम मोटरसाइकिल या गाड़ी से आपका बैग अगले पड़ाव तक पहुंचा देते हैं ताकि आप तेजी से वहां आ सके. हम चाहते हैं कि भेदभाव और नफरत को समाप्त कर दें. लेकिन हम यह नहीं देखते कि नफरती लोग रोज काम करते हैं और बहुत मेहनत करते हैं.

जब हमारे नौजवान सो रहे होते हैं, उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा लग चुकी होती है. वह सड़कों पर उतरते हैं, हमले करते हैं, लोगों को मारते हैं. हम जो उन्हें रोकना चाहते हैं या प्रेम का संदेश फैलाना चाहते हैं, हम अपने घरों में बैठे रहते हैं. अगर नफरत फैलाने वाले सक्रिय हैं तो प्रेम फैलाने वालों को भी सक्रिय होना ही पड़ेगा. आपको भी घर से निकलना पड़ेगा. लोगों से मिलना जुलना पड़ेगा. अपने साथ लोगों को जोड़ना पड़ेगा.

सिर्फ फेसबुक पर लाइक, कमेंट और आपका स्वागत है लिखने से आप नफरत को नहीं हरा सकते. सिर्फ फेसबुक पर आपका हमारे इलाके में स्वागत है, लिखने से इस समाज में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. अपने दिल को टटोलिए और पूछिए कि क्या आप इस समाज को बेहतर बनाने के लिए उतनी मेहनत कर रहे हैं, जितनी जरूरत है ?

कुछ साल पहले की बात है. मैं मध्य प्रदेश में विनोबा भावे की स्मृति में उनके द्वारा भूदान आन्दोलन में चले गये पथ पर पदयात्रा कर रहा था. साथी पदयात्री एक एक कर छोड़ कर चले गए. मैं अकेला पदयात्री बचा. छतरपुर ज़िले की बात है. मैं अकेला पदयात्रा कर रहा था.

शाम हो गई. सामने एक शिव मन्दिर दिखाई दिया. मैंने सोचा देखते हैं शायद यहां रात गुज़ारने की जगह मिल जाय. वह एक खूबसूरत बड़ा शिव मन्दिर था. उसका अहाता काफी बड़ा था. मैं एक बरगद के पेड़ के नीचे बैठ गया. संध्या आरती के बाद भीड़ कम हुई तो मैंने पुजारी जी को बताया कि मैं संत विनोबा की याद में पदयात्रा कर रहा हूं. क्या मुझे आज रात मन्दिर के अहाते में रात गुज़ारने की अनुमति मिल सकती है ? पुजारी जी ने कहा मैं मैनेजर साहब को बुलाता हूं, वही बताएंगे.

करीब एक घंटे बाद मैनेजर साहब आये. मैं पेड़ के नीचे लेटा हुआ था. दिन भर की पदयात्रा से थका हुआ था तो मेरी आंख लग गई थी. मैनेजर साहब के साथ आये एक व्यक्ति ने मुझे हिला कर जगाया. मैंने मैनेजर साहब को फिर से अपनी पूरी कहानी सुनाई.

मैनेजर साहब ने मुझे ऊपर से नीचे तक घूरा और बोले हिन्दू हो कि मुसलमान हो ? मैंने कहा जी हिन्दू हूं. मैनेजर साहब बोले परिचय पत्र दिखाओ. तब तक आधार शुरू नहीं हुआ था. मेरे पास वोटर कार्ड था, मैंने उन्हें वह दे दिया. मैनेजर साहब ने काफी देर तक मेरे कार्ड को उलट पलट कर देखा, फिर बोले ठीक है सुबह सुबह चले जाना. मैंने हाथ जोड़ कर कहा जी चला जाऊंगा. मैं अगली सुबह पदयात्रा पर आगे बढ़ गया.

आजकल मैं दिल्ली से मुंबई साइकिल यात्रा कर रहा हूं. मैं दिल्ली के गांधी समाधि राजघाट से गांधी जयंती पर निकला. जब मैं हरियाणा के सोहना में पहुंचा तो मुझे पिछले पड़ाव के मेज़बान ने बताया कि आपकी रुकने खाने की व्यवस्था मस्जिद में की गई है. मैं लोकेशन के सहारे मस्जिद तक पहुंच गया. वहां अभी इमाम साहब नहीं आये थे. पहले तो छोटे छोटे बच्चों के साथ मैंने बातचीत की.

आज एक बच्चे ने पूछा अंकल आप मुसलमान है क्या ? मैंने कहा नहीं मैं मुसलमान नहीं हूं, मैं सिर्फ एक इंसान हूं. और मैं ऐसा इंसान हूं जो मुसलमानों से भी प्यार करता है, हिंदुओं से भी प्यार करता है, सिखों, ईसाइयों और किसी भी मज़हब को मानने वालों से प्यार करता है. मेरा कोई देश भी नहीं है. सारी दुनिया मेरी है. मैं सारी दुनिया का हूं.

मैं सबसे प्यार करना चाहता हूं और मैं चाहता हूं कि दुनिया में जो नफरत और झगड़ा है वह खत्म हो जाए. मैं इसीलिए बस्ती बस्ती गांव गांव जाता हूं, लोगों से मिलता हूं और उनसे यही बात करता हूं.
एक बच्चे ने कहा अंकल आप तो बहुत अच्छा काम करते हो. मैंने कहा मैं चाहता हूं सब लोग ऐसा ही काम करें.

उसके बाद कुछ बड़े बच्चे आये और मुझे मस्जिद के अहाते में बने एक कमरे में ले गये. मस्जिद पत्थर चूने और सुर्खी से बनी हुई तारीखी इमारत है. जिस कमरे में मुझे ठहराया गया, वह गोल गुम्बद वाला हाल था. उसमें ज़रूरी सुधार किये गये थे. लाइट और पंखा लगा हुआ था. अटैच लैट्रिन बाथरूम था. मैं थका हुआ था इसलिए सो गया.

कुछ देर में मैंने महसूस किया कोई मेरा पैर हिला रहा है. मैंने आंख खोल कर देखा तो दो किशोर लड़के मुझे जगा रहे थे. उनके हाथ में एक बड़ी ट्रे थी, जिसमें चाय, सेब, केले और सूखे मेवे की एक प्लेट थी और पानी की सीलबंद बोतल थी. चूंकि मैं नाश्ता कर चूका था इसलिए मैंने सिर्फ चाय पी. मैं चाय पीकर फिर से लेट गया.

तभी वहाँ एक जनाब आये. वे एक लम्बे और तगड़े इंसान थे. उन्होंने ढीला कुरता और ऊंची सलवार पहनी हुई थी. उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और बताया कि मैं यहां का इमाम हूं. इमाम साहब ने पूछा कि आपने कुछ खाया या नहीं ? मैंने इमाम साहब को बताया कि मैं खा चूका हूं. इमाम साहब चले गए. करीब एक घंटे बाद इमाम साहब ने फिर से बच्चों को सेब और सूखे मेवे लेकर भेजा कि आप को भूख लग आई होगी कुछ खा लीजिये. मैंने कुछ भी खाने से मना कर दिया और उन्हें शुक्रिया कहा.

शाम तक बच्चे तीन बार मेरे लिए खाने का सामान लेकर आये लेकिन मैं खाने की हालत में नहीं था. शाम को इमाम साहब ने खाने का सूखा सामान मेरे बैग में डाल दिया. रात को गांव के कुछ लोग मुझसे मिलने आये. कुछ देर में अजान हुई. आये हुए लोगों ने कहा कि हम नमाज़ पढ़ कर आते हैं.

मगरिब की नमाज़ के बाद सभी लोग फिर से कमरे में आ गये. एक सज्जन ने कहा हिमांशु जी अगर आप शाम को संध्या पूजा पाठ करते हों तो कर लीजिये. मैं हंसने लगा. मैंने उनसे कहा मैं मेरा यकीन इन सब बातों में नहीं है. खूब अच्छे माहौल में देर तक बातचीत होती रही. सभी लोगों के जाने के बाद मैं भी सो गया और अगले दिन अगले पडाव के लिए निकल गया.

सुबह साईकिल चलाते समय मेरे दिमाग में चल रहा था कि इमाम साहब जानते थे कि मैं हिन्दू हूं, इसके बावजूद उन्होंने ना मेरा पहचान पत्र मांगा, ना मेरा मजहब पूछा. सारा दिन उन्होंने मेरे आराम और खाने पीने का ख्याल रखा. मुझे महसूस हुआ कि मस्जिद के दरवाज़े सबके लिए खुले हुए हैं.

दूसरी तरफ मुझे छतरपुर वाली घटना याद आ गई, जहां पहले मुझसे यह पूछा गया कि मैं हिन्दू हूं या मुसलमान हूं. उस समय तो मैं पक्का पूजा पाठी हिन्दू था. वहां मुझे ना किसी ने कुछ खाने को दिया, ना बिस्तर दिया.

हिन्दू धर्म में हर प्राणी में ईश्वर के विद्यमान होने की बात कही गई है, फिर भी मन्दिर में मेरे मुसलमान ना होने की जानकारी ली गई. मैं जानता हूं कि मन्दिरों में किसी मुसलमान को रुकने की इजाज़त नहीं दी जाती है. लेकिन मस्जिद में मुझ जैसे नास्तिक हिन्दू नाम वाले को प्रेम से ठहराया गया.

साईकिल चलाते हुए मेरे दिमाग में सवाल उठ रहे थे कि हमें बताया गया था कि मुसलमान कट्टर होते हैं और हम हिन्दू बहुत उदार होते हैं. लेकिन मेरे साथ जो हुआ है, उस अनुभव के आधार पर मुझे क्या मानना चाहिए ? जिन्हें मीडिया कट्टर कहता है, उन्हें कट्टर मानूं या जिन्होनें मेरे साथ असलियत में कट्टरता का व्यवहार किया उन्हें कट्टर समझूं और उन्हें खुद में सुधार का सुझाव दूं ?

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