सुब्रतो चटर्जी
मान लीजिए आपका बच्चा हर रोज़ स्कूल यूनिफ़ॉर्म में तैयार हो कर स्कूल जाने के लिए इंतज़ार करता हो, लेकिन स्कूल अनिश्चितकालीन बंद है. आप रोज़ दफ़्तर के लिए तैयार होते हैं, लेकिन नौकरी नहीं है. आप रोज़ दुकान जाने के समय रेडी होते हैं, लेकिन बाज़ार बंद है. क्या नतीजा होगा ?उब, खीज, एकरसता के जीवन से, उन बाहरी परिस्थितियों से जिन पर आपका कोई कॉंट्रोल नहीं है, उनके प्रति विद्रोह की भावना. बीते साल लॉकडाउन में हम सबने यह महसूस किया है.
दूसरा पक्ष है, गैग्ड या बंधे होने का अहसास. दो रुपए के मास्क लगा कर वायरस से बचाव के गधत्वपूर्ण फ़रमान को नहीं मानने पर दो हज़ार की फ़ाईन भरने की मजबूरी. यही बँंधे होने का एहसास इमरजेंसी में भी था, जब वे लोग भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छिन जाने पर दुःखी थे जिनके पास कहने को वैसे भी कुछ नहीं था. 1977 की जनता पार्टी की जीत इसी गैग्ड एहसास के विरुद्ध विद्रोह का नतीजा था. ये सिविल सोसायटी की बातें हैं.
अब कल्पना किजिए उन हालातों का, जिसमें 24 लाख ट्रेनिंग प्राप्त लड़ाकू साल दर साल यूनिफ़ॉर्म पहने, हाथ में बंदूक़ लिए, अपने परिवार से दूर, एक काल्पनिक सीमा पर युद्ध के इंतज़ार में रहते हैं, लेकिन युद्ध नहीं है. आप उस खीज, उस उब का अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते.
अगर जानना हो तो कभी ऐसे सैनिक से बात किजिए जिसने अपनी ज़िंदगी के सबसे बेहतरीन पच्चीस साल सेना और देश को दिये बिना कोई युद्ध देखे. उसके पास अपने बच्चों और पड़ोसियों को सुनाने के लिए वीरता की कोई कहानी नहीं है. उसकी कहानियों में बंजर पहाड़ हैं, रेगिस्तान हैं, अथाह समुद्र है, असीम आकाश है, सब कुछ है, लेकिन एक युद्ध नहीं है. यह एक अवसाद की स्थिति है.
एक सैनिक जिसने कभी गोली नहीं चलाई, न किसी को मारने के लिए, न ही खुद को बचाने के लिए. उसके अनुभव का संसार सीमित है. वह अधूरा है. युद्ध इसी अधूरेपन को भरता है.
हो सकता है कि स्कूल में खेलते वक़्त आपके बच्चे को चोट आ जाए, हो सकता है कि दफ़्तर में आपको अपने बॉस की डांट सुननी पड़े, हो सकता है कि सैनिक युद्ध से कभी नहीं लौटे, या अपंग हो कर लौटे. फिर भी, आपके बच्चे के पास, आपके पास, उस सैनिक के पास अपनी-अपनी कहानियां होंगी कहने को. जो सैनिक नहीं लौटे वे भी अपनी वीरता की कहानी पीछे छोड़ जाते हैं.
यही sense of belonging, यानि होने का एहसास है, जिसके बग़ैर ज़िंदगी बीत तो जाती है, लेकिन अधूरी रह जाती है. हममें से अधिकतर लोग इसी अधूरी ज़िंदगी को जीते हैं, इसलिए न हमारे इर्द-गिर्द कोई कहानी बनती है, और न हम अपने पीछे कोई कहानी छोड़ जाते है मुस्तकबिल के लिए..यह पशुवत् जीवन से भी बदतर है. एक निरर्थक जीवन जो सर्वथा अप्रासंगिक है.
इसी तरह, सिर्फ़ जीना, कमाना, संतान उत्पत्ति करना भी पशुवत् जीवन है. इनसे हट कर कुछ करना ठीक वैसा ही है जैसा कि सैनिक का गश्त लगाने के सिवा जंग लड़ना है. गश्त साधारण परिस्थितियों में सभी लगाते हैं, लेकिन युद्ध की स्थिति में वही गश्त युद्ध की एक स्ट्रेटेजी बन जाती है.
गतानुगतिक से हटकर जब स्व का बोध समष्टि को आत्मसात् करता है, तब युद्ध का दायरा बड़ा हो जाता है. उस समय गतानुगतिक के प्रति भी खीज होती है. आप सिर्फ़ दफ़्तर जाने और घर लौटने को ज़िंदगी का लक्ष्य मानने से इन्कार करते हैं. वह सैनिक भी सिर्फ़ गश्त पर निकलने और टेंट में वापस आने को अपने जीवन का लक्ष्य मानने से इन्कार करता है.
यहीं पर शुरू होता है असल युद्ध – अपनी परिस्थितियों, मान्यताओं और जड़ता के विरुद्ध. आपका चैन, आपकी नींद आपसे छिन जाती है. आप नव निर्माण के नशे में हैं. आप अपना विस्तार कर रहे हैं. आप बौद्धिक और नैतिक रूप से एक बेहतर इंसान बनने की कोशिश में हैं. आप युद्ध में हैं, और आप निखर रहे हैं. युद्ध मानव से महामानव बनने का ज़रिया है.
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