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क्या वाक़ई रेज़िडेंट डॉक्टर तानाशाही के ख़िलाफ़ नारे लगा रहे हैं ?

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क्या वाक़ई रेज़िडेंट डॉक्टर तानाशाही के ख़िलाफ़ नारे लगा रहे हैं ?

रविश कुमार

पुलिस का जब व्यवहार सभी के साथ ऐसा होता है तो डॉक्टर के साथ अलग क्यों होगा ? प्रथम पंक्ति का यही मतलब है कि डॉक्टर इस बात को लेकर अतिरिक्त आहत न हों कि दिल्ली पुलिस ने डॉक्टरों को कैसे टांग लिया, उन्हें बसों में भर लिया या जो भी डॉक्टरों ने आरोप लगाए हैं कि पुलिस ने लाठी का प्रयोग किया है. ऐसा करना पुलिस की रूटीन क्रूरता है जो हर दिन किसी न किसी के साथ घटती रहती है और आज डॉक्टरों के साथ घटी है.

वैसे पुलिस का बयान आया है कि डॉक्टरों के खिलाफ कोई मुक़दमा दर्ज नहीं किया है और न किसी के साथ ज़बरदस्ती की है. एक महीने से सरकार ने उनकी माँग को लेकर कुछ नहीं किया, यह अपने आप में काफ़ी है कि सरकार इन डॉक्टरों को क्या समझती है.

स्टेट का चरित्र डॉक्टर या किसान सबके लिए एक होता है. एक अख़बार में पुलिस का बयान छपा है कि डॉक्टर ट्रेफ़िक जाम कर रहे थे तो हमने उन्हें रोका, जैसे कोई स्टेट पर हमला हो ट्रैफ़िक जाम करना. कुछ इसी तरह से किसान आंदोलन को भी देखा जा रहा था. इसमें हैरानी की बात नहीं है कि पुलिस ने डॉक्टरों पर कैसे हाथ डाला, ग़लत ज़रूर है.

डॉक्टर नारे लगा रहे हैं कि तानाशाही नहीं चलेगी. तानाशाही भी स्टेट पावर का स्थायी किरदार है जो हमेशा चलती रहती है लेकिन इसके ख़िलाफ़ नारे तब लगते हैं जब पुलिस लाठी मारती है या कुछ लोगों को बस में डाल कर किसी थाने में बिठा देती है. तानाशाही तब चल सकती है जब कोई कंपनी किसी पार्टी को करोड़ों का चंदा दे और जनता कंपनी का नाम न जान सके. तानाशाही तब चल सकती है जब मामूली आरोपों के साथ UAPA लगाकर साल साल भर किसी को जेल में डाला जा सकता है. तानाशाही तब चल सकती है जब किसी समुदाय के नरसंहार के नारे लगते हैं और संसद के भीतर मनमोहन सिंह को गोली मारने की बात कही जाती है और उन पर कोई UAPA तक नहीं लगता. यह ख़्याल तब कौंधा जब डॉक्टरों को नारे लगाते सुना कि तानाशाही नहीं चल सकती है.

अगर डॉक्टर तानाशाही का केवल सीमित अर्थ में प्रयोग कर रहे हैं तब भी ग़लत नहीं हैं, बस पूरी तरह सही नहीं है. उनसे उम्मीद की जाती है कि तानाशाही को वे समग्रता से समझें और जब भी तानाशाही के विरोध में नारे लगाएं, उन सभी को शामिल करें जिसमें तानाशाही आराम से चलती रहती है. वे जानते होंगे कि कोविड के समय अस्पतालों के भीतर क्या हुआ था. उन्हें सरकारी अस्पतालों की हक़ीक़त मालूम है. मैं उनसे उम्मीद करता हूं कि वे उस सच को उगल दें. उस समय के झूठ का विरोध करें. आज भी करें और आने वाले कल में भी करें.

वैसे तानाशाही तो यह भी है कि रेज़िडेंट डॉक्टर बीस बीस घंटे काम करते हैं. किसी ने कहा कि वे तीन दिन तक लगातार काम करने के बाद घर जाते हैं. कई दिनों तक छुट्टी नहीं मिलती है. काम करने के लिए जगह और सामान की तो अलग ही समस्या है. इतने ख़राब माहौल में रेज़िडेंट डॉक्टरों से काम कराने के लिए बहुत कम वेतन दिए जाते हैं. इस ख़राब हालत को चलते रहने दिया गया है. जब डॉक्टर इस अमानवीय व्यवहार को सहन कर सकते हैं, उनके साथ यह तानाशाही रोज़ चल सकती है तो पुलिस वाली क्यों नहीं चल सकती है ? कहने का मतलब है कि तानाशाही तो चल ही रही है.

रेज़िडेंट डॉक्टरों की मांग ऐसी नहीं है कि सरकार एक महीने में सुलझा नहीं सकती थी. सरकार तो किसी की भी मांग के साथ यही करती है. दो साल पहले नागरिकता क़ानून का विरोध करने पर पुलिस लाइब्रेरी में घुस गई. छात्रों को मारा. उन्हें दोनों हाथ उठाकर यूनिवर्सिटी से बाहर आने पर मजबूर किया गया. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में जो हुआ आज तक ठीक से पता नहीं चला. डॉक्टरों ने उस समय इसे कैसे देखा यह मैं नहीं बता सकता. मैं इनके व्हाट्स एप ग्रुप से तो नहीं जुड़ा था. उम्मीद करता हूं. तानाशाही के लिए इस्तेमाल होने वाले एक और शब्द ‘मज़बूत नेता’ का कभी इस्तेमाल नहीं किया होगा और न कभी इसकी चाह रखी होगी.

लेकिन क्या इन डॉक्टरों ने नहीं देखा होगा कि सात साल से देश में चल क्या रहा है ? क्या मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि सांप्रदायिकता उनके बीच नहीं पहूंची है ? यह मैं क्यों कह रहा हूं ? इसलिए कह रहा हूं कि अगर आप इस आधार पर हैरानी ज़ाहिर कर रहें हैं कि डॉक्टर ‘पढ़े लिखे’ हैं और पुलिस को उन्हें टांग कर बसों में नहीं भरना चाहिए, तब तो ‘पढ़े लिखे’ के आधार पर बाक़ी चीज़ों की भी जानकारी तो होगी ही ? या नहीं है ?

इन पढ़े-लिखे लोगों के बीच दिल्ली में ही जामिया और जेएनयू के छात्रों के साथ हुई बर्बरता पर क्या प्रतिक्रिया हुई थी ? किसानों के साथ क्या हुआ था ? याद है ? क्या डॉक्टर वाक़ई अपने व्हाट्स एप ग्रुप से लेकर सोच के भीतर तक से तानाशाही के उन तत्वों को अब नहीं चलने देंगे, जो उनके भीतर घुस गया है. जो केवल डॉक्टर ही नहीं किसी भी तबके के भीतर घुसा दिया गया है. क्या डॉक्टर अब उन शब्दों का इस्तेमाल नहीं करेंगे, जिनके सहारे ज़हन में तानाशाही घर बनाती है और फिर बड़े आराम से ‘पढ़े लिखे’ डॉक्टर भी चलने देते हैं. अगर तानाशाही का इस स्तर पर विरोध है तो बहुत सुंदर बात है, वैसे ये उनके बस की बात नहीं है.

इतना लंबा लेख तो रेज़िडेंट डॉक्टर नहीं पढेंगे. यह लेख मेडिकल की प्रवेश परीक्षा से भी मुश्किल है. वे चिढ़ जाएंगे कि हर मुद्दे में मैं यह सब क्यों घुसा देता हूं. डॉक्टर भी तो हर रोगी के साथ कई टेस्ट करते हैं ताकि बीमारी का पता चले. मैं पूरी तरह मानता हूं कि जल्दी और ज़्यादा सीखने के नाम पर जो व्यवस्था चली आ रही है, जिसमें हर रेज़िडेंट डॉक्टर का खून चूसा जाता है, उसे ख़त्म किया जाए ताकि डॉक्टर अपने क्लिनिक और अस्पताल के भीतर दवा कंपनियों की दादागिरी पर लगाम लगाएं और गरीब मरीज़ों के साथ तानाशाही न चले. इसका चक्र हर जगह से टूटे. इसे लेकर डॉक्टरों में चेतना आए.

सरकार का अहंकार चरम पर है. धर्म की आड़ में वह और अहंकारी हुई जा रही है. रेज़िडेंट डॉक्टरों के साथ पुलिस की रूटीन क्रूरता और उनकी मांगों को अनदेखा करने के लिए सरकार को कितना क्रूर होना पड़ता होगा, इसे आप केवल उनकी हड़ताल की नज़र से मत देखिए. उन हज़ारों गरीब और सामान्य लोगों की नज़र से देखिए जिनका ऑपरेशन होना है, जिसमें देरी से किसी की जान जा सकती है.

वे गरीब और सामान्य लोग भी इन सवालों को भूल जाएंगे जब वही सरकार उन्हें एक किलो तेल, एक किलो नून मुफ़्त में देगी और खाते में पांच सौ का नोट भेज देगी. फिर सरकार धर्म के नाम पर अवतार बन कर सामने आ जाएगी. रेज़िडेंट डॉक्टर से लेकर आम लोग अवतार पुरुष की पूजा करेंगे, उनके हर झूठ को सत्य वचन मान लेंगे और क्रूरताओं को अवतार पुरुष की संवेदना घोषित कर देंगे. यह कहते हुए कि दूसरा विकल्प नहीं है. मेरा सवाल यही है. जब विकल्प को लेकर ‘पढ़े लिखे’ डॉक्टरों की इतनी ही समझ है तो कैसे मान लूं कि उनके इस नारे में सच और सोच है कि तानाशाही नहीं चलेगी.

नीति आयोग ने योगी जी के तमाम दावों पर पानी फेर दिया है. स्वास्थ्य सूचकांकों के मामले में यूपी का प्रदर्शन देश में सबसे रद्दी है. उसके बाद बिहार और मध्य प्रदेश का रद्दी है. कुल मिलाकर हिन्दी प्रदेश के इस बड़े हिस्से में स्वास्थ्य की हालत रद्दी बनी हुई है, जिसे आधिकारिक ज़ुबान में ख़राब कहा गया है. हाल के दिनों में हमने यूपी की स्वास्थ्य सेवाओं पर एक प्राइम टाइम किया था. उसमें अमर उजाला में छपी खबरों और अपने सहयोगियों की रिपोर्ट शामिल की थी. कई ज़िले में कई गंभीर बीमारियों के डॉक्टर नहीं हैं. कहीं-कहीं तो पांच-पांच साल से हार्ट के डॉक्टर नहीं है फिर भी यूपी मस्त है.

इसी अक्तूबर महीने में नौ मेडिकल कॉलेज के लोकार्पण का विज्ञापन सारे अख़बारों को दिया गया. कुछ दिनों तक मोदी योगी की जोड़ी ने स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर इस तरह से बोलना शुरू किया जैसे लगा कि यूपी का चुनाव स्वास्थ्य को लेकर होगा. लेकिन सबको पता है कि ये कॉलेज नाम के हैं. कुछ विभाग खुले हैं तो कुछ में डॉक्टर प्रोफ़ेसर नहीं हैं. पढ़ाने के लिए भी नहीं है और देखने के लिए भी नहीं. आप प्राइम टाइम का वो एपिसोड यू-ट्यूब में देख सकते हैं.

इसी महीने सहारनपुर मेडिकल कॉलेज की प्रोफ़ेसर यास्मीन उस्मानी के मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने आदेश दिया है कि मेडिकल कॉलेजों के शिक्षण के सारे पद भरे जाएं. उन्हें दो मेडिकल कॉलेज में पढ़ाने को कहा गया था जिनके बीच की दूरी 150 किलोमीटर है. उसके बाद क्या हुआ किसे पता है, ये सब यूपी को पता है. नीति आयोग लेट बता रहा है.

यूपी या किसी भी हिन्दी प्रदेश में इन सब मुद्दों की कोई परवाह नहीं करता. जाति-जाति के नेता घूम रहे हैं. यहां धर्म की राजनीति होती है. युवाओं को सनका दिया गया है. उन्हें अतीत का निर्माण करना है, अस्पताल का नहीं इसलिए मज़े मत लीजिए कि यूपी की स्वास्थ्य व्यवस्था रद्दी है. यूपी इसी में ख़ुश है. 24 करोड़ की आबादी वाले इस राज्य के पंद्रह करोड़ ग़रीब लोगों को एक किलो नून एक किलो तेल और एक किलो दाल मुफ़्त दिया जा रहा है ताकि जनता वोट के समय तक नून तेल के दाम को लेकर नाराज़ न हो सके.

यूपी के युवा भीतर से टूट गए हैं लेकिन पहले जाति की गोलबंदी और अब धर्म की गोलबंदी उनका गला घोंटती रहेगी. बस इनकी किसी तरह शादी हो जाए और बाराती में ग्लोबल ख़ानदान की शान के मुताबिक़ ख़र्चा पानी हो जाए. एक दिन के लिए दुल्हा और उसके दोस्तों को लगना चाहिए कि जो बाइडन वही हैं. इस समाज को कौन बदलेगा. यही नहीं बदलना चाहता. नीति आयोग अपनी रिपोर्ट फाड़ के फेंक दे. उससे किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता. योगी जी ही नहीं मानेंगे कि उनके पांच साल के कार्यकाल के बाद देश में सबसे रद्दी स्वास्थ्य व्यवस्था यूपी की है.

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