एक दिन,
देश के अराजनीतिक बुद्धिजीवियों से,
हमारी भोली-भाली जनता..!
करेगी कुछ सवाल..!
पूछेगी वह उनसे,
क्या किया था उन्होंने..?
जब मर रहा था उनका देश..!
सांस दर सांस…
एक मीठी निपट अकेली,
मद्धम आंच की तरह..!
नहीं पूछेगा कोई उनसे,
कि क्या पहनते थे वह..?
या कि कैसे..?
एक शाहाना लंच के बाद लेते थे,
चैन की लंबी नींद..!
अपनी आरामगाहों में..!
न जानना चाहेगा कोई,
कि शून्यता की परिकल्पना को लेकर
क्या थे उनके बेमानी तर्क-वितर्क..?
न किसी को होगी,
यह जानने में दिलचस्पी..!
कि कितनी गहरी है..?
उनकी अर्थव्यवस्था की समझ..!
न होगा कोई सवाल उनसे,
ग्रीक मिथकों के गूढ़ रहस्यों पर..!
उस आत्मग्लानि पर भी नहीं,
जो उपजती होगी इस एहसास के साथ,
कि उनके अंदर तिल-तिल करके,
मर रहा है कोई,
एक कायर की मौत..!
न होगी कोई जिरह..!
उनकी लचर दलीलों पर..!
जन्मती हैं जो एक मुक़म्मल ज़िंदगी से,
अनजान अंधेरे सायों में..!
उस रोज़ आएंगे, तुम्हारे पास..!
वह सीधे-साधे लोग..!
वही…
जिनके लिए नहीं थी कोई जगह..!
अराजनीतिक बुद्धिजीवियों की
किताबों और नज़्मों में..!
मगर जो अलसुबह,
उनके बंगलों पर लेकर आते थे,
पाव, रोटी, दूध और अंडे..!
या उनकी गाड़ियां चलाते थे..!
उनके कुत्ते टहलाते थे..!
उनके दिलकश बग़ीचों को
संवारते थे, सजाते थे..!
और उनकी ख़िदमत में,
दस्तबस्ता खड़े रहते थे..!
फिर वो पूछेंगे,
क्या किया था तुमने..?
जब ग़ुरबतज़दा ये लोग..!
लाचार थे, हलकान थे..!
और उनकी मासूमियत,
उनकी मुस्कानें फ़ना हो रहीं थीं..!
धुआं होकर..!
उस रोज़,
मेरे प्यारे हमवतन,
अराजनीतिक बुद्धिजीवियों..!
देते न बनेगा, तुमसे कोई जवाब..!
तुम्हारी बेज़बानी ही,
एक मनहूस गिद्ध बनकर..!
नोंच लेगी तुम्हारी अंतड़ियां..!
एक बेपनाह मायूसी..!
तुम्हारी रूह को कचोटेगी..!
घेर लेगी तुम्हें ताउम्र..!
एक ख़ामोशी, शर्मसार ख़ामोशी..!
(‘अराजनीतिक बुद्धिजीवी’ शीर्षक की यह कविता ग्वाटेमाला के क्रांतिकारी कवि ‘ओतो रेने कास्तियो’ ने लिखी थी, जिन्हें ग्वाटेमाला की फौज ने 19 मार्च, 1967 को जान से मार दिया था. मूल रूप से स्पैनिश में लिखी गई इस कविता को ‘कमलकान्त जैसवाल’ ने अंग्रेज़ी से अनूदित किया है.)
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