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19 अप्रैल : चार्ल्स डार्विन की पुण्यतिथि के अवसर पर – वो व्यक्ति जिसके सिद्धांतों ने दुनिया बदल दी

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डार्विन की युगांतरकारी पुस्तक ‘ऑरिजन ऑफ स्पीसीज’ के प्रकाशन के डेढ़ सौ साल पूरे हो रहे हैं. प्रकाशित होते ही इस किताब ने न सिर्फ दुनिया बल्कि खुद को देखने के नजरिए को पूरी तरह बदल दिया था. हम कौन हैं ? क्यों हैं ? और कहां से आए हैं ? आदिकाल से इंसान के दिमाग में उठने वाले इन सवालों का पहली बार सटीक और वैज्ञानिक जवाब डार्विन ने दिया था.

विज्ञान के इतिहास में शायद ‘प्राकृतिक चयन द्वारा जीवों के विकास’ जैसा सरल और सुगम सिद्धांत कोई और न हो, फिर भी डेढ़ सदी में किसी दूसरे सिद्धान्त को इतना विरोध नहीं झेलना पड़ा है. हालांकि विज्ञान की बेशुमार खोजों, परीक्षणों और कठिन जांच-पड़तालों में यह सिद्धान्त खरा उतरा है. विकासवाद के सिद्धान्त के बिना आज जीव-विज्ञान और आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

चार्ल्स डार्विन का जन्म 12 फरवरी, 1809 को ग्रामीण इंग्लैण्ड के शिक्षित और सम्पन्न मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था. उनका मन बंधी-बंधाई स्कूली शिक्षा में नहीं लगता था. वे दिन रात पशु-पक्षियों के पीछे भागने, कीड़े-मकोड़े और पौधों की किस्में इकट्ठा करने में लगे रहते थे. चिढ़कर चिकित्सक पिता ने बालक चार्ल्स को एक पत्र में लिखा, ‘तुम कुत्ता मारने और चूहा पकड़ने के अलावा किसी और काम के काबिल नहीं हो.’ यही चार्ल्स आगे चलकर विज्ञान और मानव जाति के लिए बहुत बड़ा वरदान साबित हुआ.

पुराणपंथी शास्त्रीय शिक्षा व्यवस्था में न फंसकर डार्विन ने बचपन से ही खुली आंखों से दुनिया को देखने और खुले मन से उन पर विचार करने का हुनर सीख लिया था. 17 साल की उम्र में चार्ल्स ने एडिनबरा विश्वविद्यालय से चिकित्सा शास्त्र की पढ़ाई शुरू की लेकिन वे परीक्षा में उत्तीर्ण न हो सके. पिता ने सोचा, डॉक्टर न सही, बेटा पादरी ही बन जाए. उन्हें धर्मशास्त्र में स्नातक बनने के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय भेज दिया गया. वहां भी डार्विन का ज्यादा समय प्रकृति वैज्ञानिकों के अड्डे पर बीतता. यहां कीड़े-मकोड़ों के नमूने इकट्ठा करने का उनका पुराना शौक जारी रहा. इस बीच वे कैंब्रिज में वनस्पति विभाग के अध्यक्ष प्रो. हेंसलो के काफी करीबी बन गये.

1831 में डार्विन ने जैसे-तैसे धर्मशास्त्र की पढ़ाई पूरी की. तभी प्रो. हेंसलो ने दक्षिणी अमेरिका के तटीय और भूवैज्ञानिक अध्ययन के लिए पांच साल की यात्रा पर निकलने वाले जहाज एचएमएस बीगल में प्रकृति वैज्ञानिक के तौर पर उनका नाम सुझाया. मानो डार्विन के मन की मुराद पूरी हो गई हो. पिता से मुश्किल से इजाजत मिलने के बाद दिसम्बर 1831 को वे बीगल की रोमांचक यात्रा पर निकल पड़़े. इस यात्रा ने न सिर्फ एक डार्विन को पैदा किया, बल्कि जीव विज्ञान के भविष्य को पूरी तरह से बदल दिया.

दक्षिणी अमेरिका के बरसाती वनों में जीवन का प्राचुर्य और विविधता को देख डार्विन अवाक रह गये. उन्होंने हजारों की संख्या में पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, समुद्री जीवों के नमूने और प्राचीन विलुप्त प्राणियों के जीवाश्म (फॉसिल) इकट्ठा किए और उन्हें लंदन के संग्रहालयों में जांच-पड़ताल के लिए भेजते रहे. उनके दिमाग में कई सवाल भी उठते रहे.

बचपन से ही डार्विन को यह विश्वास दिलाया गया था कि आज से कोई छः हजार साल पहले ईश्वर ने धरती और उसके सभी प्राणियों सहित ब्रह्मांड की हर चीज को, आज वह जिस रूप में है, उसी तरह रचा था. बाइबिल और कुरान के मुताबिक, अगर सृष्टि का यह काम यह सिर्फ छः दिनों में पूरा हुआ तो कुछ लोगों का कहना था कि भगवान ने एक साथ चौंसठ लाख योनियों में प्राणी जगत के हर सदस्य की अपरिवर्तनीय रूप में रचना की. फिर प्राचीन चट्टानों के नीचे दबे विलुप्त प्राणियों के जीवाश्म क्या हैं ? और आज के प्राणियों से उनका क्या रिश्ता है ? डार्विन को प्राचीन जीवाश्मों और आज के जीवों के बीच भिन्नताओं के साथ-साथ ढेर सारी समानताएं नजर आईं तो क्या प्रजातियों के साथ-साथ बदलाव आया है ?

इस सवाल का उत्तर ढूंढ़ने में भू-विज्ञान के क्षेत्र में एक नए सिद्धांत ने डार्विन की मदद की. बीगल की यात्रा के दौरान जहाज के कप्तान फित्ज रॉय ने मशहूर भू-वैज्ञानिक चार्ल्स लॉयल की नई किताब ‘प्रिंसिपल ऑफ जीओलॉजी’ उन्हें भेंट की. सर लॉयल भू-आकृतियों और प्राकृतिक प्रक्रियाओं के अध्ययन के आधार पर इस नतीजे पर पहुंचे थे कि पृथ्वी की वर्तमान शक्ल करोड़ों सालों तक चलने वाले क्रमिक प्राकृतिक बदलाव के कारण बनी है. अब तक यह समझा जाता था कि यह देवी प्रकोप का नतीजा है. डार्विन ने सोचा कि क्या प्राणी जगत पर भी यह सिद्धांत लागू नहीं होता ?

गलापगोस द्वीप समूह के अलग-अलग टापुओं में डार्विन को एक ही जाति के कछुओं और छोटे पक्षियों में थोड़ी-थोड़ी भिन्नता नजर आई. किसी द्वीप की फिंच चिड़ियों की चोंच लंबी और नुकीली थी तो दूसरे में मोटी और सख्त. आखिर ईश्वर ने आस-पास के दो द्वीपों में एक ही पक्षी को थोड़ा-थोड़ा अलग बनाने की जहमत क्यों उठाई ? या फिर इन्होंने हरेक द्वीप की विशेष परिस्थिति के मुताबिक खुद को ढाल लिया है ?

इंग्लैण्ड लौटने के बाद अपने नमूनों की पहचान और उन्हें सूचीबद्ध करते हुए डार्विन को उनके बीच भिन्नताओं के साथ-साथ एक अद्भुत समानता और रिश्ते की एक डोर-सी दिखाई दी. उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती धर्मशास्त्र पर आधारित उस समय के प्रकृति विज्ञान की यह समझ थी, ‘प्रजाति कभी बदलती नहीं है. हरेक प्राणी को सचेतन रूप से अलग-अलग गढ़ा गया है.’

वैकल्पिक सिद्धांत की खोज में डार्विन ने दुनिया भर के वैज्ञानिकों द्वारा इकट्ठा किए गये तथ्यों और उनके विचारों को मथ डाला. जीवों का भौगोलिक वितरण, प्राचीन और वर्तमान प्राणियों के कंकालों के बीच भिन्नता और समानता व भ्रूणावस्था में चूहे, खरगोश, मछली, मेंढ़क और मनुष्य जैसे विविध प्राणियों के बीच अद्भुत समानता की ओर डार्विन का ध्यान आकृष्ट हुआ.

उन्होंने समूचे प्राणी जगत के इतिहास की एक पारिवारिक वंश-वृक्षावली (फैमिली ट्री) के रूप में कल्पना की. उस वृक्ष के मूल में सरल और सूक्ष्म एक कोशिकीय प्राणी थे. ऊपर की ओर उसकी शाखा-प्रशाखाएं जितनी बंटती चली गईं, वे जटिल से जटिलतर होते गए. उस वृक्ष की हरेक टहनी जीव-जगत की एक-एक शाखा थी और हरेक छोर एक-एक प्रजाति. डार्विन को उसके ऊपरी हिस्से में एक शाख पर आदम की प्रजाति दिखाई दी.

डार्विन से पहले भी कई वैज्ञानिकों ने विकासवाद की बात की थी. पर प्रजातियों में बदलाव क्यों होता है और कैसे होता है, इसका जवाब वे नहीं दे पाए थे. इन सवालों का प्रमाणिक उत्तर ढूंढे बिना डार्विन अपनी समझ को जगजाहिर नहीं करना चाहते थे.

इस बीच उन्हें जनसंख्या वृद्धि के सिद्धांत पर माल्थस की किताब पढ़ने को मिली. माल्थस की समझ थी कि औद्योगिक क्रांति के बाद इंग्लैण्ड में उपलब्ध साधनों से कहीं ज्यादा जनसंख्या में बढ़ोत्तरी हुई है. ऐसे में जमीन और भोजन हासिल करने की होड़ में जो सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक रूप से कमजोर हैं, वे मिट जाएंगे और सम्पन्न तथा ताकतवर लोग बचे रहेंगे.

आधुनिक समाज के इतिहास में माल्थस का सिद्धान्त कभी कारगर नहीं हुआ, पर डार्विन ने देखा कि प्रकृति में यह हूबहू लागू होता है. जीवों की हर प्रजाति जिंदा रहने के लिए जरूरी संसाधनों से कई गुणा अधिक संख्या में बच्चे पैदा करती है. बचे रहने की होड़ में उनमें से अधिकतर अगली पीढ़ी को पैदा किये बिना ही मर जाते हैं. जीवन के इस संघर्ष में सफलता की कुंजी क्या भाग्य, नियति या चांस भर है ?

डार्विन ने देखा कि एक ही प्रजाति के अलग-अलग सदस्यों के बीच थोड़ी-थोड़ी भिन्नता मौजूद रहती है. किसी के दांत थोड़े अधिक नुकीले हैं तो किसी की गर्दन थोड़ी लंबी. जिंदा रहने के संघर्ष में यही मामूली से फर्क फैसलाकुन साबित होते हैं. परिस्थिति के मुताबिक योग्यता वाले ये गुण ही अगली पीढ़़ी में ज्यादा मात्रा में पहुंच जाते हैं. मौसम में बदलाव के कारण अगर किसी इलाके में बचे रहने की संभावना अधिक हो तो झुंड में थोड़ी ऊंची गर्दन वाले अधिक संख्या में बच्चे पैदा करने की उम्र तक पहुंच पायेंगे.

अगली पीढ़ी में ऊंची गर्दन वाला गुण भी ज्यादा मात्रा में मौजूद होगा. पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऊंची से ऊंची और उसमें भी ऊंची गर्दन वालों की संख्या बढ़ जाएगी और एक समय ऐसा आएगा जब बहुमत में मौजूद ऊंची गर्दन वाले अपनी मूल प्रजाति से मिलकर बच्चे पैदा नहीं कर पायेंगे और वे एक नई प्रजाति का रूप ले लेंगे. इस प्रक्रिया में परिवेश में बदलाव और भौगोलिक अलगाव भी अहम भूमिका अदा करते हैं.

इस प्रकार दैवीय या किसी भी तरह की बाह्य शक्ति के दखल के बिना कुदरत की कोख में चल रहे प्रजातियों में बदलाव और एक से दूसरी प्रजाति के जन्म के प्रक्रिया को डार्विन ने प्राकृतिक चयन या नेचुरल सेलेक्शन की संज्ञा दी. इस प्रक्रिया में किसी लक्ष्य और योजनाबद्ध डिजाइन या किसी सृष्टिकर्ता की जरूरत नहीं होती है. यह स्वतः स्फूर्त ढंग से अनवरत चलता रहता है.

डार्विन की नजर सेलेक्टिव ब्रीडिंग द्वारा पालतू कुत्तों और कबूतरों की नई नस्लें पैदा करने वालों की ओर भी गई. वे किसी एक गुण मसलन लंबे कान को छांटकर लंबे से लंबे और उसमें भी लंबे कान वालों के बीच बच्चे पैदा कराकर कुछ ही पीढ़ि़यों में लंबे कान वाली नई नस्ल पैदा कर देते हैं. योग्यतम के जिंदा बचने की लड़ाई में प्रकृति ये काम स्वतः स्फूर्त ढंग से करती है. फर्क सिर्फ समय का होता है. डार्विन ने अपने नोट में लिखा- ‘इसे हम तब तक नहीं देख सकते हैं, जब तक कि काल का चक्र युगों तक न घुस जाए.’

सारा प्रमाण इकट्ठा कर लेने के बाद भी डार्विन अपने सिद्धांत को सार्वजनिक नहीं करना चाहते थे. उन्हें पता था कि उनकी खोज दकियानूसी विक्टोरियाई समाज में भूचाल पैदा कर देगी. उन दिनों यूरोप में असंतोष और क्रांति की हवा बह रही थी. इंग्लैण्ड में चार्टिस्ट आंदोलन चरम सीमा पर था. शासक वर्ग मुनाफा बढ़ाने के लिए नई खोजों का इस्तेमाल तो करना चाहता था, लेकिन उन्हें यह मंजूर न था कि वैज्ञानिक सोच व्यवस्था और यथास्थिति के प्रति लोगों की आस्था को कमजोर कर दे. नए विचारों को दबाने में चर्च व्यवस्था के साथ था. डार्विन को यह भी डर था कि संभ्रांत वर्ग में उनकी प्रतिष्ठा कम न हो जाए.

लगभग बीस सालों तक डार्विन की खोज की जानकारी उनके कुछ एक वैज्ञानिक मित्रों तक ही महदूद रही, तभी मलाया से आए युवा वैज्ञानिक फील्ड वर्कर अल्फ्रेड रसेल वासेल के एक पत्र ने उन्हें खुल कर सामने आने के लिए मजबूर किया. रसेल ने अपना एक लेख डार्विन की राय जानने के लिए उन्हें भेजा था. डार्विन हैरान थे कि रसेल लगभग उन्हीं नतीजों तक पहुंच चुके थे, जो उनके थे. हालांकि रसेल को डार्विन की खोज की कोई जानकारी नहीं थी. उन्होंने रसेल के लेख के साथ ही प्राकृतिक चयन के सिद्धांत पर अपना एक विस्तृत निबंध छपवा दिया. उसके बाद 1859 में उनकी युगांतकारी पुस्तक ‘ऑरीजिन ऑफ स्पीसीज’ प्रकाशित हुई.

दो दिनों के अंदर ही पुस्तक की सारी प्रतियां बिक गईं. कई भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ और ढेर सारे संस्करण छपे. मानो तेजी से करवट ले रहा समाज सृष्टि के वैकल्पिक सिद्धांत के लिए बेसब्री से इंतजार कर रहा हो. कोपरनिकस और गैलीलियो की खोज ने जिस वैज्ञानिक संघर्ष को जन्म दिया था, डार्विन के विकासवाद के साथ वह अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया.

यथास्थिति के समर्थकों ने डार्विन को ‘इंग्लैण्ड का सबसे खतरनाक व्यक्ति’ घोषित कर दिया. दूसरी तरफ खुली सोच रखने वाले वैज्ञानिक और विचारक और बदलाव के हामी उनके सिद्धांत के समर्थन में खुलकर मैदान में उतर पड़े. उन्हीं दिनों कार्ल मार्क्स अर्थशास्त्र के क्षेत्र में एक और युगांतकरकारी सिद्धांत पर काम कर रहे थे. इंसानी सोच को बदलने में डार्विन की खोज के दूरगामी प्रभाव को वे समझ रहे थे. उन्होंने अपनी अमरकृति ‘दास कैपिटल’ को डार्विन के नाम समर्पित करना चाहा, लेकिन डार्विन ने उन्हें ऐसा करने से मना किया. उनका कहना था कि वे अर्थशास्त्र के क्षेत्र में कोई दखल नहीं रखते हैं.

डार्विन ने एक ही प्रजाति के विभिन्न सदस्यों के बीच थोड़ी-थोड़ी भिन्नता और जिंदा रहने के संघर्ष में उनमें से योग्यतम गुणों का अगली पीढ़ी में अधिक संख्या में पहुंच पाने की बात की. लेकिन उस समय का विज्ञान इस सवाल का जवाब नहीं दे सका था कि ये भिन्नताएं कैसे होती हैं और वे अगली पीढ़ी तक पहुंचती कैसे हैं. बीसवीं सदी में जीन विज्ञान की खोज के बाद ही इन सवालों का जवाब देना संभव हुआ. जीन विज्ञान ने डार्विन के प्राकृतिक चयन के सिद्धांत को न केवल सही साबित किया, बल्कि उसे पूर्ण भी बनाया.

जीन लड़ी की शक्ल में हर कोशिका में मौजूद सूचना का भंडार-सा है. इन्हीं के निर्देश पर जीवों की शक्लों-सूरत, अंग-प्रत्यंग, उनके गुणों और चरित्रों का निर्माण और विकास होता है. डार्विन के जमाने में आनुवांशिकी की यह समझ थी कि माता और पिता के गुण लाल और नीले रंग जैसे होते हैं. वे अगली पीढ़ी में पहुंच कर आपस में घुल-मिल जाते हैं. डार्विन की यह आलोचना की गई कि योग्य गुण अगर लाल हैं तो बच्चों में नीले रंग से मिलकर वे लाल नहीं रह जायेंगे बल्कि एक तीसरा रंग बैंगनी हो जाएगा.

अब पता चल गया है कि माता या पिता के एक खास गुण का वाहक एक जीन या तो पूरा का पूरा अगली पीढ़ी में पहुंचता है या नहीं पहुंचता है. जीन आपस में घुल-मिल नहीं जाते हैं. जीन की सूचना की इकाई डीएनए है. यह चार रासायनिक अक्षरों- ए, टी, सी और जी से लिखा जाता है. जीन में छिपी सूचना और उसके द्वारा दिये जाने वाले निर्देश इन्हीं अक्षरों की तरतीब पर निर्भर करते हैं.

पुनरोत्पादन के दौरान जब कोशिकाएं बंटती हैं, डीएनए अरबों-खरबों की संख्या में अपनी प्रतिलिपियां बनाते हैं. कापी करने के क्रम में कई बार कुछ गलतियां हो जाती हैं और अक्षरों के तरतीब बदल जाते हैं. स्वतः स्फूर्त ढंग से होने वाली इन गलतियों को म्यूटेशन या उत्परिवर्तन कहा जाता है. इन्हीं के चलते एक ही प्रजाति के अलग-अलग सदस्यों के बीच थोड़ी-थोड़ी भिन्नता पैदा होती है.

जीन विज्ञान प्राणियों के बीच भिन्नता को ही नहीं, बल्कि उससे अधिक उनके बीच समानता को दर्शाता है. मनुष्य के जीनों का पूरा नक्शा बना लेने के बाद यह साफ हो गया है कि हमारे और चिंपाजी के बीच सिर्फ तीन फीसद भिन्नता है. इतना ही नहीं, हाथी-घोड़े, सांप-छछूंदर, मेढ़क-मछली और यहां तक कि एक कोशिकीय अमीबा के जीनों के साथ भी हमारी भिन्नता कम और समानता अधिक है. ये तथ्य रिश्ते के डोर में बंधे डार्विन के जीवन वृक्ष को पूरी तरह से स्थापित करते हैं.

हालांकि ‘ऑरिजिन ऑफ स्पीसीज’ पुस्तक में डार्विन ने मानव जाति की उत्पत्ति और विकास की चर्चा नहीं की थी, लेकिन तार्किक रूप से वह मनुष्य की प्रजाति को प्रजातियों के विकास क्रम से जोड़ देता था. 1871 में प्रकाशित पुस्तक ‘डीसेंट ऑफ मैन’ में उन्होंने प्राचीन मानव प्रजातियों और नर वानरों के फॉसिल कंकालों में तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर बताया कि आदम के पूर्वज दरअसल नर वानरों की एक उन्नत प्रजाति ही थी.

उन दिनों अखबार के कार्टूनों में डार्विन को बंदर की शक्ल में दिखाना आम बात थी. अब विकासवाद पर परंपरावादियों का हमला और तेज हो गया. यह लड़ाई आज भी जारी है. अकाट्य प्रमाणों और हजारों-लाखों तथ्यों के बावजूद अब भी डार्विन के सिद्धांत को हमारे पाठ्यक्रमों में समुचित स्थान नहीं दिया गया है. अमेरिका जैसे विकसित देश में भी 1950 और 60 के दशक में अंतरिक्ष के क्षेत्र में सोवियत संघ से पिछड़ जाने के बाद ही विज्ञान को बढ़ावा देने की मजबूरी में पहली बार विकासवाद को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया गया.

आज विज्ञान और रूढ़िवाद के बीच संघर्ष में विकासवाद एक केन्द्र बिन्दु बन गया है. इस लड़ाई में विज्ञान को स्थापित करके ही बेहतर इंसानी भविष्य का निर्माण हो सकता है.

  • साभार : यह लेख प्रदीप भट्टाचार्य द्वारा डार्विन की दूसरे जन्मसदी वर्ष के अवसर पर जनसत्ता में 15 फरवरी 2009 के अंक में लिखा गया था.

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