लोकसभा चुनाव 2024 के अवसर पर पांच कम्युनिस्ट संगठनों सीपीआई (एमएल), पीआरसी, सीपीआई (एमएल), श्रम मुक्ति संगठन, कम्युनिस्ट सेंटर फॉर साइंटिफिक सोशलिज्म, कम्युनिस्ट चेतना केंद्र ने एक पर्चा जारी कर फासीवादी विचारधारा के वाहक भाजपा एवं उसके सहयोगियों को पराजित करने के लिए वोट करने का अपील करते हुए अपने जनवादी अधिकारों की पूर्ण बहाली के लिए उठ खड़े होने का देश की जनता से अपील किया है.
पर्चा का मजमून इस प्रकार है – क्या ऐसा संभव है कि यह चुनाव इसलिए हो रहा है कि आगे कोई चुनाव ही न हो ? यह चाहे जितना भी अविश्वसनीय और अतिशयेक्तिपूर्ण लगे, लेकिन खतरा यही. अगर भाजपा की जीत होती है तो देश का पूंजीवादी जनतंत्र, इसका संविधान, न्याय व कानून का वर्तमान ढांचा और वोट का अधिकार, आदि नहीं बचेंगे. वैसे भी पिछले दस सालों के मोदी शासन में इस जनतंत्र को काफी हद तक खोखला और बेमानी कर दिया गया है इसलिए यह कोई मामूली चुनाव नहीं है.
यह फासीवादी तानाशाही की ओर तेजी से बढ़ते मोदी सरकार के कदम को रोकने की लड़ाई है. इतिहास की गति के अनुसार समाज को पूंजीवादी जनतंत्र से आगे समाजवाद और शोषणविहीन व्यवस्था में जाना था, यानी सुसंगत जनतंत्र की नींव रखी जानी थी लेकिन मोदी सरकार हमें इस कटे-छंटे जनतंत्र के भी पीछे के दौर में – धर्म और रामराज के नाम पर कॉर्पोरेट पूंजीपति वर्ग की उस बर्बर तानाशाही के दौर में – ले जा रही है जहां आम मेहनतकश जनता पूरी तरह अधिकारविहीन हो जाएगी.
यह सब अंदरुनी और बाह्य संघर्षों को जन्म दे रहा है. जनता तो
लड़ ही रही है, भाजपा की कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष से तीखी भिड़ंत हो रही है. कांग्रेस महंगाई-बेरोजगारी, सामाजिक-आर्थिक सर्वे, विकास के लाभ के ‘न्यायपूर्ण’ वितरण जैसे मुद्दों को उठाकर भाजपा की घोर जनविरोधी एवं सांप्रदायिक राजनीति का सामना करने की कोशिश कर रही है. सत्ता के लिए हो रही इस आपसी रगड़ में जनता राजनीतिक संघर्ष में खींची चली आ रही है.
जबकि आर्थिक नीतियों के मामले में तथा जनता के जनवादी अधिकारों को कुचलने में कांग्रेस और महागठबंधन के अन्य दल और भाजपा के बीच कोई बुनियादी भिन्नता नहीं है. इसलिए विपक्षी सरकार से भी आम जनता को अंतत: निराशा ही हाथ लगने वाली है. इससे जनता के लिए क्रांतिकारी राजनीति को आगे बढ़ाने और वर्ग-संघर्ष को तेज करने का कार्यभार निकलता है.
यानी, भाजपा को चुनावी समर में पराजित करने की मुहिम को व्यापक जन-उभार की लगातार परिपक्व होती परिस्थितियों के मद्देनजर बुनियादी बदलाव – सच्चे जनवाद और समाजवाद की स्थापना – की क्रांतिकारी राजनीति से जोड़ना आवश्यक है. गौर करें, तो पायेंगे कि पूरे विश्व में भी लगभग ऐसी ही परिस्थिति मौजूद है. दुनिया की साम्राज्यवादी ताकतों के अंतर्विरोध हिंसक होते जा रहे हैं.
विश्वपूंजीवाद लंबे समय से संकटग्रस्त है और पूरी दुनिया में ही
फासीवादी विधारधारा का उभार है. आम जनता के सभी तरह के हितों पर चौतरफा हमला जारी है और इसलिए पूरे विश्व में ही फासीवाद के उभार के साथ-साथ जनता के स्वयंस्फूर्त विराध का उभार भी तेज हो रहा है.
भाजपा और कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियों के बीच बुनियादी
भिन्नता नहीं होने का अर्थ यहां यह है कि ये सभी मूलत: साम्राज्यवाद और बड़ी पूंजी के हितों से बंधी पार्टियां हैं और वर्गीय चरित्र में एक ही हैं. लेकिन जहां भाजपा खुली नंगी तानाशाही की मनोकांक्षा पर सवार है, वहीं विपक्षी पार्टियां यह समझती हैं कि इससे जन-असंतोष फैलेगा. इसलिए वे पुराने जीर्ण-शीर्ण जनतंत्र के ढांचे का रंग-रोगन करके बड़े पूंजीपति वर्ग के हितों को आगे बढ़ाने की पक्षधर हैं.
यहां यह समझना जरूरी है कि जहां भाजपा की जीत के साथ जनता की संपूर्ण बदहाली जुड़ी हुई है, वहीं यह भी सच है कि विपक्ष की जीत भी जनता की समस्याओं का स्थाई समाधान नहीं लाने वाली है. गरीबों, किसानों और बेरोजगारों को वित्तीय सहायता प्रदान करने का उनका एजेंडा गरीबी एवं बेरोजगारी को दूर करने का नहीं, मैनेज करने का और जनता को आर्थिक मदद पहुंचाने के नाम पर एकाधिकारी वित्तीय पूंजी के वर्चस्वकारी हितों को स्थाई बनाये रखने का प्रोग्राम है.
जहां तक भाजपा के दस सालों के शासन के लेखा-जोखा की बात है, तो हम देख चुके हैं कि मोदी सरकार ने अपने शासन काल में पूरी बेशर्मी से जनता से वादाखिलाफी की है. जहां इसने जनता के बुनियादी हितों को रौंदा है, वहीं बड़े पूंजीपतियों को तमाम तरह की
रियायतें दी हैं; उनके लिए 6 लाख करोड़ रुपये की कर-माफी की है
और सरकारी योजनाओं के द्वारा इन्हें लाभान्वित करने के लिए देश पर लगभग 2 सौ लाख करोड़ के कर्ज का बोझ लाद दिया है.
निजीकरण के माध्यम से सरकारी परिसंपत्तियों को कौड़ियों के मोल उन्हें सौंप दिया. बिजली और जमीनें इन्हें लगभग मुफ्त में दी जा रही हैं. विदेशों में इन्हें परियोजनाओं के ठेके दिलवाये गये; मजदूर विरोधी लेबर कोड लाया गया; किसान विरोधी कॉर्पोरेट पक्षी कृषि कानून लाने की कोशिश की गई; पर्यावरण सम्बंधी कानून, वन संरक्षण कानून और टैक्स कानूनों में संशोधन किया गया. जल, जंगल, जमीन ही नहीं, पहाड़ों में पड़े अकूत प्राकृतिक वसार्वजनिक सम्पदा को इन्हें सौंप दिया गया.
यहां गौर करने वाली बात यह है कि इस तरह की नीतियों की शुरूआत 1990 के दशक में कांग्रेस की सरकार ने ही की, लेकिन मोदी सरकार ने इन नीतियों को न सिर्फ जनता से पूरी तरह बेरहमी करते हुए लागू किया, बल्कि जनतंत्र और न्याय के सारे मानकों को ध्वस्त करते हुए जनवादी अधिकारों को पूरी तरह कुचलने का काम किया. परिणामस्वरूप आर्थिक विषमता में इतना अधिक इजाफा हुआ कि आज देश के 1 फीसदी अमीरों के पास देश की 40 फीसदी संपत्ति जमा हो गयी है और भारत सबसे ज्यादा गैर-बराबरी वाला देश बन गया है. देश की बेरोजगारी के बारे में आईएलओ की हालिया रिपोर्ट एक अत्यंत ही भयावह चित्र पेश करती है.
इस तरह बड़ी पूंजी की खुली तरफदारी और जनता पर क्रूर दमन की नीति के साथ-साथ धार्मिक वैमनस्य फैलाना नरेंद्र मोदी और भाजपा की राजनीति का सार है. हमें मणिपुर को जानबूझ कर महीनों तक नफरत और हिंसा की आग में झुलसाये रखने की बात को नहीं भूलना चाहिए. इसे भी अनदेखा नहीं करना चाहिए कि आज भी, चुनाव प्रचार के दौरान, मोदी खुलेआम नफरत का प्रचार ही कर रहे हैं. वे बेखौफ हैं, क्योंकि देश की संवैधानिक संस्थाओं एवं राज्य की हर मशीनरी पर उनका कब्जा है.
यही कारण है कि मोदी के शासन में भाजपा से जुड़े जघन्यतम बलात्कार के दोषियों, भ्रष्टाचारियों, दंगाइयों और अपराधियों का बचाव किया गया. भाजपा आज सारे भ्रष्ट नेताओं की शरणस्थली बन चुकी है और चुनावी बांड घोटाला की असलियत पर से पर्दा उठ जाने के बाद तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के इसके दावे की पूरी पोलपट्टी खूल चुकी है. आज सबको पता है, किस तरह ईडी, सीबीआई, आदि का उपयोग करते हुए ‘चंदा लो और धंधा लो’ एवं ‘हफ्ता वसूली’ का काम हो रहा था.
चुनाव प्रचार के दौरान सबसे खतरनाक बात यह दिख रही है कि मोदी चुनाव में जीत हासिल करने के लिए धार्मिक वैमनस्य,
सांप्रदायिक टकराव और नफरती प्रचार पर आधारित राजनीति का
किसी भी सीमा तक जाकर उपयोग करने के लिए तैयार हैं. इसके लिए देश को अराजकता की आग में झोंकना पड़े, तब भी मोदी को इससे गुरेज नहीं है.
ऐसा प्रतीत होता है कि अगर जनता उन्हें हरा भी देती है, तो भी वे सत्ता नहीं छोड़ेंगे. राज्य मशीनरी, अधिकांश संवैधानिक संस्थाओं और मुख्यधारा की मीडिया का उनके हाथ में होना इस खतरे को काफी बढ़ा देता है. जाहिर है, अगर विपक्ष की सरकार बनती है, तो
उसे इन परिस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार रहना पड़ेगा.
जनता को भी ऐसे नापाक इरादों को कुचलने के लिए हर तरह से तैयार रहना चाहिए, और अगर हो सके तो इसका जवाब देशव्यापी
जनांदोलन से देना चाहिए.
यह कहने की जरूरत नहीं है कि जनता इस परिस्थिति में बस यूं ही चुप बैठे नहीं रह सकती है. वह चुप है भी नहीं, भाजपा एवं इसके
सहयोगियों को हराने के लिए मैदान में लड़ाई लड़ रही है और यह संदेश दे रही है कि धर्म और विभाजन तथा बेतहाशा लूट-खसोट की राजनीति अब बहुत हो चुकी. इसी के साथ वह शोषण व शासन की मौजूदा सड़ी-गली व्यवस्था को उखाड़ फेंकने तथा अपनी खुदमुख्तारी के लिए भी संघर्ष कर रही है.
हम लड़ाकू जनता से आह्वान करना चाहते हैं कि वह मोदी सरकार के विरुद्ध पैदा हुए जन-असंतोष की लहर को और तेज करते हुए शोषणविहीन समाज बनाने के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा फासिस्टों को सत्ता से पूरी तरह से बाहर करने के लिए विराट संघर्ष का शंखनाद करे, ताकि निकट भविष्य में हमारे खत्म होते जनवादी
अधिकारों की पूर्ण बहाली के लिए होने वाले प्रचंड जन-संघर्षों का
रास्ता प्रशस्त हो सके.
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