कोरोना, कोरोना और कोरोना. आज भारत में सर्वत्र एक ही शब्द गुंज रहा है, और वह है कोरोना. कोरोना की गतिशीलता, व्यापकता, खौफनाक मंजर, भयावहता और सर्वग्रासी चरित्र ही भारतीयों की जिंदगी की एकमात्र सच्चाई हो गई है. जिंदगी ठहर-सी गई है, और कोरोना के इर्द-गिर्द ही घूमती नजर आ रही है.
कोरोना के हवनकुंड में इंसानी जिंदगी समिधा की तरह धू-धू कर जल रही है. कहीं कोई तड़प रहा है, कोई अपने माता-पिता, भाई, बहन, बेटे-बेटियों, रिश्तेदारों या अन्य निकट संबंधियों के इलाज के लिए इधर-उधर दौड़ते-भागते हांफ रहा है, डाक्टरों के आगे गिड़गिड़ा रहा है, कोई एंबुलेंस में पड़ा कराह रहा है तो कोई अस्पताल में सांस उखड़ने का इंतजार कर रहा है. किसी की मौत पर मातम मनाया जा रहा है, तो किसी को मौत के बाद चार लोग कंधा देने के लिए भी नहीं मिल रहे हैं, श्मशान घाट या शवदाह गृह में मृतकों को भी लाईन लगाना पड़ रहा है, तो कुछ यूं ही किसी अनजाने जगह पर फेंक दिए जा रहे हैं.
कोरोना का नाम सुनते ही कईयों के होशो-हवास गुम हो जा रहे हैं, निकट संबंधियों की सेवा की बात कौन कहे, उनके निकट जाकर हाल-चाल पूछने से भी लोग कतरा रहे हैं। और, सरकार की तो बात ही नहीं कीजिए, संपूर्ण राजव्यवस्था ध्वस्त हो गई है. सरकारी मशीनरी अपनी असफलता पर आंसू बहा रहे हैं.
प्रधानमंत्री से लेकर सारे नेताओं और नौकरशाहों के हाथ-पांव फूल गए हैं. किसी की समझ में नहीं आ रहा है कि वे करें तो क्या करें ? केन्द्र सरकार अपनी असफलता, अमानवीयता, असंवेदनशीलता और विवेकहीनता का परिचय देते हुए वक्तव्यों तक ही सीमित होकर रह गई है, और हमेशा की तरह हमारे अवतारी पुरूष नरेन्द्र मोदी जी अपनी डफ़ली अपनी राग की तर्ज पर अपनी आत्मश्लाघा में व्यस्त हैं.
लाखों भारतीयों की मौत से तनिक भी विचलित न होते हुए वे अपनी सेंट्रल भिस्टा योजना के अंतर्गत नया संसद भवन परिसर और अपने खुद के लिए खुबसूरत राजमहल बनाने को अपनी प्राथमिकता सूची में सबसे ऊपर शामिल किए हुए हैं. अपने कल्पना-लोक में विचरन करते हुए कभी सिस्टम को दोष दे रहे हैं, तो कभी राज्य सरकारों को दोषी ठहरा रहे हैं. अपनी ठसक, अंहमण्यता और अदूरदर्शितापूर्ण नीतियों और निर्णयों के कारण भारत को इस विपत्ति कि आग में झोंककर आह्लादित होते हुए तमाशबीन बने हुए हैं.
अपने शौक के लिए यह नरपिशाच पूरे देश को जलाकर उस आग में अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहा है. दुनिया में सबसे बड़ी राजनीतिक दल होने पर इतराने वाले संघी, भाजपाई और इनके अन्य आनुषंगिक ईकाईयों और कार्यकर्ताओं का कहीं भी अता-पता नहीं है. अगर कहीं उनका नाम भी आता है तो कालाबाजारी करते या कालाबाजारियों का साथ देते या फिर उन्हें बचाने में लगे हुए दिखाई देते हैं.
अस्पतालों से लेकर दवा दुकानों तक अजीब-सा मंजर है. अस्पतालों में मरीजों की भर्ती से लेकर इलाज तक की व्यवस्था के लिए चारों ओर त्राहिमाम मचा हुआ है. लोग चिल्ला रहे हैं, छाती पीट रहे हैं या माथा पीट रहे हैं. कहीं-कहीं क्षुब्ध और आक्रोशित लोग डाक्टर, नर्स या फिर किसी स्वास्थ्यकर्मी को भी पीट दे रहे हैं. कहीं अस्पताल नहीं, अस्पताल है तो डाक्टर नहीं, कहीं नर्स नहीं, तो कहीं कोई स्वास्थ्यकर्मी नहीं. कहीं दवा नहीं, कहीं वेंटिलेटर नहीं, कहीं आक्सीजन सिलिंडर नहीं, तो कहीं वेंटिलेटर और रेमडीसिवर नहीं. अजीब अफ़रा-तफ़री मची हुई है.
प्राईवेट अस्पतालों में इलाज की व्यवस्था इतनी मंहगी है कि आम आदमी की तो बात ही छोड़िए, मध्यमवर्गीय लोगों को भी उन अस्पतालों में इलाज कराने में सौ बार सोचना पड़ रहा है. जिंदगी की कहीं कोई गारंटी नहीं. इलाज से अगर ठीक भी हो गए, तो परिवार की आर्थिक रीढ़ टूट चुकी होती है. किसी-किसी को तो आर्थिक तबाही के साथ-साथ परिजनों की लाश भी मिलती है.
अस्पतालों से लेकर श्मशान घाटों और शवदाहगृहों तक आपाधापी मची हुई है. मुर्दों को जलाने के लिए भी लाइन में घंटों खड़े रहना पड़ रहा है, और पता भी नहीं चलता कि अपनी बारी कब आएगी ? श्मशान घाट पर लाश जलाने के लिए लकड़ियों और अन्य दूसरी सामग्रियों के साथ ही कफ़न के दाम भी कालाबाजारी के कारण आसमान छू रहे हैं. सच तो यह है कि लोग लाश जलाने के बदले खुद को ही जला रहे हैं.
महानायक नरेन्द्र मोदी का दिया गया आपदा में अवसर और आत्मनिर्भर बनने के मंत्र को लोगों ने न केवल स्वीकार किया है, बल्कि अंगीकार भी कर लिया है, और उन मंत्रों को साकार करते हुए कोरोना के इलाज के लिए आवश्यक सुविधाओं और सामग्रियों की कालाबाजारी में पील पड़े हैं. उन्हें ऐसा लग रहा है कि ऐसा अवसर मोदी जी के कारण ही उन्हें मिला है, इसलिए इस मौके का वे भरपूर फायदा उठा रहे हैं. कहीं कोई रोक-टोक करने वाला भी नहीं. कहीं-कहीं दिखावे के लिए किसी को पकड़ने की खानापूर्ति की जा रही है, या दुकानों को सील किया जा रहा है, अन्यथा इस बहती गंगा में लोग दोनों हाथों से लाचार और असहाय लोगों को लूटने में प्राणपण से जुटे हुए हैं.
कोरोना के पहले आक्रमण से निजात पाने के बाद अपनी हेंकड़ी दिखाते हुए मोदी जी अपनी पीठ खुद ही ठोक रहे थे. पर, अब जब कोरोना का यह दूसरा आक्रमण हुआ है और स्वास्थ्य सेवा और रोगियों के इलाज की व्यवस्था का पोल खुल चुका है, मोदी और उनके समर्थक मुंह छुपाते चल रहे हैं. दूसरे देशों को मेडिकल सुविधाएं मुहैया कराने का दंभ भरने वाले मोदी जी आज खुद ही दुनिया के देशों के आगे झोली फैलाकर भीख मांगने के लिए मजबूर हैं. उनके सबसे बड़े आका अंबानी और अडानी का भी कहीं कोई अता-पता नहीं है.
अंबानी तो सपरिवार भागकर ब्रिटेन में विहार कर रहा है. देश की अर्थव्यवस्था को खोखला कर अपनी तिजोरियां भरने वाले इन नरपिशाचों की तिजोरी से इस संकटकाल में भी एक धेला नहीं निकल सका. बेशर्मी की हद तो यह है कि विदेशों से कोरोना के इलाज के लिए आने वाली सामग्रियों पर मोदी के नाम का मुहर लग रहा है, तो कहीं रिलायंस का. इन सामग्रियों को उचित जगह भेजवाने की भी उपयुक्त व्यवस्था नहीं हो पा रही है.
इनके सांसदों में दिल्ली का गौतम गंभीर रेमेडीसीवर की जमाखोरी करने, तो मुंबई में देवेन्द्र फड़नीस दवाओं की कालाबाजारी करने और बिहार में छपरा का सांसद राजीव प्रताप रूडी 32 एंबुलेंस गाड़ियों को अपने पैतृक गांव के घर में छुपाकर रखने के पापकर्म में संलग्न पाए गए हैं. यही इनका हिन्दू धर्म है, हिन्दू राष्ट्र है, और हिन्दुत्व है. यही इनका रामराज्य है, और यही इनकी सांस्कृतिक महानता है. अरे बेशर्मों, डूब मरो चुल्लू भर पानी में !
- राम अयोध्या सिंह
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