प्रसिद्ध सांस्कृतिककर्मी अनिल ओझा अक्सर कहा करते थे, ‘अगर कोई मुझसे दो मिनट बात करने का मौका देगा तो वह कभी उन्हें नहीं मार पायेगा.’ लेकिन उनकी हत्या करने वालों ने उन्हें बात करने का भी वक्त दिया या नहीं, हम कभी नहीं जान पायेंगे. उनकी मौत सांस्कृतिककर्मियों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच सदैव के लिए मिस्ट्री बन गई. प्रस्तुत संस्मरण प्रसिद्ध रंगकर्मी अनीश अंकुर ने उनकी शहादत के बाद लिखा था, जो उस वक्त ‘राष्ट्रीय सहारा’ में छपा था. हम उन्हें आज भी याद करते हैं तो इसका कारण उनकी असीम बौद्धिक क्षमता एवं जनगोलबंदी और संघर्ष की असीम जीजीविषा का धनी होना है. – सम्पादक
अनीश अंकुर
लगभग 16 वर्ष (अब 26 वर्ष-सं.) पहले 5 फरवरी 1998 को अनिल ओझा कदमकुआं स्थित वामपंथी पुस्तकों की दुकान ‘समकालीन प्रकाशन’ गए। प्रगतिशील एवं वामपंथी साहित्य के प्रचार-प्रसार में रुचि लेने वाले वयोवृद्ध जगदीश जी उस दौरान किताब की दुकान पर बैठा करते थे. अनिल ने वहां से चार किताबें- मंथली रिव्यू (चेग्वारा विशेषांक), ए स्टडीज इन मार्क्सिज़्म ; (पीपीएच), डीडी कोशाम्बी की साइंस, सोसायटी एंड पीस और ‘एक्जैसपिरेटिंग एसेज’ खरीदीं.
किताबें खरीद कर वे गांधी मैदान स्थित ‘प्रेरणा’ कार्यालय के लिए चल पड़े जहां ‘कविता और संगीत’ विषय पर होने वाली बातचीत में उन्हें शामिल होना था. लेकिन अनिल ओझा अपने गंतव्य तक नहीं पहुंच सके. बीच रास्ते में क्या हुआ किसी को आज तक ठीक से नहीं मालूम. सात दिनों के बाद 12 फरवरी, 1998 को वे पीएमसीएच में मृत पाए गए. मृत देह के समीप वे चारों पुस्तकें भी पायी गयीं. अनिल की उम्र मात्र 28 वर्ष थी.
अनिल एक नाटककार, कवि, संगठक, राजनैतिक कार्यकर्ता और सबसे बढ़कर दृष्टिसंपन्न संस्कृतिकर्मी थे. छपरा जिले के कुम्हैला गांव के रहने वाले अनिल माता-पिता द्वारा यू़पीएससी की तैयारी करने के लिए दिल्ली भेजे गए, उसी दौरान उनका परिचय मार्क्सवादी दर्शन से हुआ. परिणामस्वरूप वे गरीबों के बीच में काम करने गरीबों के बीच चले आए. अनिल ने सांस्कृतिक मोर्चे पर काम को प्राथमिकता दी.
पिछले वर्ष प्रेमंचद जयंती के मौके पर वरिष्ठ रंगकर्मी सुमन कुमार द्वारा प्रेमचंद की दो मशहूर कहानियों ‘सद्गति’ व ‘ठाकुर का कुआं’ का नाट्य मंचन किया था. इन दोनों कहानियों को एक ही नाटक में रूपांतरित करने का काम अनिल ओझा ने किया था. अनिल का एक और नुक्कड़ नाटक ‘शिक्षा का सर्कस’ भी काफी लोकप्रिय रहा है. अनिल की पुण्यतिथि पर 12 फरवरी को नवोदित संस्था ‘स्ट्रगलर्स’ के बैनर तले ‘शिक्षा का सर्कस’ का प्रेमंचद रंगशाला में प्रदर्शन किया. युवा रंगकर्मियों के इस समूह ने मौजूदा शिक्षा व्यवस्था पर बुनियादी किस्म के प्रश्न खड़े करने वाले इस नाटक के ढेरों मंचन किए. लेकिन नाटक का नाम बदलकर ‘करप्शन इन एजुकेशन’ कर दिया गया है.
अनिल के अन्य नाटकों में प्रमुख है गिरी रूपल्ली, (मुद्रास्फीति के कारण रुपये की दुर्गति पर) ‘उस शहर का नाम भोपाल है’ (भोपाल गैस त्रासदी के दसवें वर्ष पर लिखा गया नाटक). प्रख्यात मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी की हत्या पर लिखा अनिल का नाटक भी खासा चर्चित रहा था. अंतिम नाटक जो अनिल लिख रहे थे वो बाथे जनसंहार पर था. यह जनसंहार उनकी मौत के डेढ़ महीने पूर्व घटित हुआ था.
इस जनसंहार में सामंतों की निजी सेना द्वारा 59 दलितों की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी गयी थी. इस जनसंहार ने उन्हें बेचैन और उद्वेलित कर दिया था. लेकिन असमय निधन के कारण यह नाटक पूरा न हो पाया. अनिल मुक्तिबोध की प्रख्यात रचना ‘अंधेर में’ के नाट्य रूपांतरण की भी योजना बना रहे थे. अनिल खुद अभिनेता भी थे लेकिन अधिकांशत: अभिनय नुक्कड़ नाटकों में ही किया.
पटना रंगमंच पर अनिल ‘अभिव्यक्ति सांस्कृतिक मंच’ से जुड़े रहे. चर्चित रंगकर्मी पुंजप्रकाश का पटना में रंगमंचीय जीवन का प्रारंभ ‘अभिव्यक्ति’ से ही हुआ था. दिल्ली से बिहार लौटने के बाद अनिल सक्रियता से काम करते रहे. अनिल की सक्रियता में बाधा तब पड़ी जब वे पलामू में तेंदू पत्ता मजदूरों के बीच काम करने के दौरान नक्सली बताकर पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए. सात महीने तक वे गढ़वा जेल में बंद रहे. उन पर कानून की धारा 120 बी लगायी गयी. यह धारा उस समय भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव पर भी लगायी गयी थी. कानून की एक ही धारा कैसे दो हैसियत वाले लोगों के साथ व्यवहार करती है इस पर अनिल ने एक कविता लिखी ‘धारा 120 बी’. कविता कुछ यों है –
नरसिम्हा राव
मैं और तुम
दोनों धारा 120 बी के अभियुक्त हैं
धारा 120 बी के अंतर्गत होने वाले षडयंत्र को
तुमने देश के खिलाफ रचा
और मैंने तुम्हारे खिलाफ
मैं जेल में हूं
तुम्हारे ऊपर संसद में बहस हो रही है
मुझे अदालत के कटघरे में खड़ा किया जा रहा है
जबकि अदालत तुम्हारे दरवाजे पर जा रही है
मैं इस जेल से तब तक बाहर नहीं आऊंगा
जब तक बेगुनाह साबित न हो जाऊं
तुम इस जेल में तब तक नहीं आओगे
जब तक दोषी न करार दे दिए जाओ
ये हमारी तुम्हारी हैसियत का ही फर्क है नरसिम्हा राव
कि धारा 120 बी मेरे ऊपर अभियोग है
जबकि तुम धारा 120 बी के ऊपर अभियोग हो.
6 दिसंबर 1992 को जब बाबरी मस्जिद गुंबद ढाहा गया उस दौरान कुछ कारसेवक भी मारे गए थे. अनिल ने उन कारसेवकों को आधार बनाकर सांप्रदायिकता विरोधी कविता लिखी ‘एक इकबालिया बयान’ –
मैं जो हिंदू था
कब्र में गाड़ा जा रहा था
मैं जो मंदिर बनाने गया था
मस्जिद में मर रहा था, मारा जा रहा था
नहीं थी दिमाग में ऐसी कोई बात
समूची चेतना के साथ इतना सोच रहा था
कि किसी तरह मस्जिद का गिरना रुक जाए
तो जान बच जाए
अनिल ओझा की एक और मशहूर कविता है ‘टार्चरमैन’. पुलिस की टार्चर से लड़ते साथी को समर्पित ये कविता काफी लोकप्रिय हुई –
मैं ये जानता हूं टार्चर मैन
तुम्हारा और मेरा रिश्ता वह नहीं है
जो तुमने इस कमरे में बनाया था
पूंजी पर टिक रिश्ते का इस्तकबाल
करने वाले मेरे दोस्त
इस रिश्ते को तुम्हारी तनख्वाह
और तुम्हारे आकाओं के
हुक्म ने गढ़ा था
यही वो बात थी जिसके खिलाफ
मैं अड़ा था, लड़ा था
तुम्हीं बताओ जिस युद्ध में
मैं तुम्हारे सामने खड़ा था
उसमें पूंजी कहां थी,
धर्म कहां था, राष्ट् कहां था
इस कविता के कई नाट्य प्रदर्शन भी किए गए. अनिल का गांधी मैदान के ‘प्रेरणा’ कार्यालय में काफी आना-जाना था. ‘प्रेरणा’ और अनिल की संस्था ‘अभिव्यक्ति’ ने मिलकर आजादी की 50वीं सालगिरह के मौके पर सरकारी उत्सवों के समानांतर ‘जनोत्सव’ आयोजित करना तय किया. ‘जनोत्सव’ बेहद सफल सांस्कृतिक आयोजन रहा था. एक सप्ताह तक प्रतिदिन नुक्कड़ नाटक, काव्य पाठ, सेमिनार और डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का प्रदर्शन हुआ. इस आयोजन में आनंद पटवर्धन की चर्चित डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘राम के नाम’ और ‘बंबई आवर सिटी’ का प्रदर्शन किया गया था. अनिल ने इस आयोजन में प्रमुख भूमिका निभायी थी.
रंगमंच के कलाकारों में दुनिया के सरोकारों से भी जोड़ने के सवाल को अनिल बेहद प्रमुखता से उठाया करते. वे मानते थे कि रंगमंच में सृजनात्मक ऊंचाई हासिल करने के लिए ये बेहद आवश्यक है कि एक अनुकूल वैचारिक माहौल बनाया जाए. रोजमर्रे की मामूली बातों को बड़े राजनैतिक सवालों से जोड़ने की उनकी क्षमता के सभी कायल थे. राजनीति और विचार की दुनिया के पेचीदे मसलों को जिस बोधगम्य भाषा में अनिल अभिव्यक्त करते, वो दुर्लभ था.
अनिल की मौत ने उस वक्त परिवर्तनकामी एक्टीविस्टों को स्तब्ध कर दिया था. सभी समझ रहे थे कि अनिल की मौत एक ऐसी क्षति है जो आगे आने वाले समय में शायद ही भरी जा सके. उनकी मौत के पश्चात एक पुस्तिका ‘अभिव्यक्ति’ के साथियों ने छपवायी थी, जिसमें उनकी कुछ कविताएं, नाटक एवं डायरी के अंश प्रकाशित किए गए थे. बदलाव के रास्ते में अपनी मौत के सवाल को भी अनिल अपनी एक कविता में उठाते हैं –
मैं मरूंगा या मारा जाऊंगा
यह मेरी जीत-हार के सवालों को तय नहीं करता
क्योंकि हमारे धंधे में मौत कोई हार होती ही नहीं
मैं अपने साथियों के साथ संघर्ष की सरहद पर
तुम्हें और किसी सूरत में मिल सकता हूं.
- राष्ट्रीय सहारा में संस्कृतिकर्मी एवं छात्र नेता अनिल ओझा की स्मृति में छपा एक आलेख
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