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आंदोलन, आंदोलनजीवी बनाम सत्ता कब्जा की लड़ाई

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आंदोलन, आंदोलनजीवी बनाम सत्ता कब्जा की लड़ाई

आंदोलन, किसी भी लोकतंत्र की जीवंत आत्मा है, इसमें कोई संदेह नहीं, बशर्ते कि वह लोकतंत्र हो और सत्ता का चरित्र लोकतांत्रिक हो. कोई भी आंदोलन अपने चरित्र से ही लोकतांत्रिक होता है, परन्तु, सत्ता का चरित्र अगर बदल गया हो और सत्ता का चरित्र लोकतंत्रिक न बचे तो कोई भी आंदोलन का कोई मतलब नहीं बच जाता है. तब आंदोलन का भी चरित्र बदल देना होता है, अन्यथा वह आंदोलन एक मजाक बन कर रह जाता है, जैसा कि मौजूदा आंदोलन को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद में खुलेआम मजाक बनाया.

लोकतंत्र में आंदोलन का मुख्यतया एक ही उद्देश्य होता है – वह है जनता की समस्याओं को सत्ता तक पहुंचाना. परन्तु, सत्ता का लोकतांत्रिक चरित्र अगर बदल जाये तब आंदोलन का उद्देश्य बदल जाता है, वह है आंदोलन के माध्यम से समस्याओं और उसके समाधान को लेकर व्यापक जनस्वीकृति हासिल कर सत्ता को या तो मजबूर करना अथवा, उसे उखाड़ कर फेंक देना और नई सत्ता की स्थापना करना.

अगर कोई आंदोलन दीठ अथवा फासिस्ट सत्ता के खिलाफ अपना लक्ष्य मौजूदा सत्ता को उखाड़ फेंककर नई सत्ता की स्थापना को नहीं बनता और इसके लिए केवल  जनसमर्थन तैयार केवल आंदोलन करना ही अपना उद्देश्य रखता है और सत्ता कब्जाने की लड़ाई से दृढ़तापूर्वक इंकार करता है, तब वह अपना अंत न केवल पराजय और दुखांत ही होता है, वरन् हास्यास्पद होकर आंदोलनजीवी बन जाता है.

भारत का यह दुर्भाग्य है कि यहां अधिकांश आंदोलन केवल आंदोलन ही बनकर रह गया है, जिसका अंत पराजय और नेतृत्व की क्रूरतम हत्या में सामने आता है. अधिकांश आंदोलन का उद्देश्य महज आंदोलन करना और केवल आंदोलन करना ही होता है. वह दृढतापूर्वक सत्ता कब्जाने की लड़ाई से न केवल इंकार ही करता है अपितु, वह आंदोलन खुद सत्ता कब्जाने की लड़ाई को कुचल डालने के साथ ही हास्यास्पद होकर खुद को समाप्त कर लेता है.

भारत के इतिहास में सत्ता पर कब्जा करने का उद्देश्य लेकर केवल दो बार आंदोलन किया था. प्रथम बार अमर शहीद भगत सिंह, जिसने अपना उद्देश्य बकायदा अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंककर अपनी यानी जनता की सत्ता के लिए आंदोलन शुरु किया था. दूसरी दफा चारु मजुमदार के नेतृत्व में नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन ने मौजूदा सत्ता को बलपूर्वक उखाड़ फेक कर सत्ता कब्जाने का उद्देश्य सामने रखकर जनान्दोलन शुरु किया था.

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि भगत सिंह के द्वारा बलपूर्वक सत्ता कब्जाने की लड़ाई को अंग्रेजी हुकूमत ने बलपूर्वक कुचल दिया था और भगत सिंह समेत अनेक यौद्धाओं को मौत के घाट उतार दिया था. जबकि नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन ने सारी दुनिया के सामने अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज करते हुए सत्ता कब्जाने की लड़ाई को एक नया स्वर दिया. इस आंदोलन को भी तत्कालीन शासक वर्ग ने क्रूरतम तरीके से बलपूर्वक कुचलने की कोशिश की थी, पर उसका परिणाम शासक वर्ग के लिए बेहद ही भयानक रहा और सत्ता कब्जाने की इस लड़ाई ने खुद को समूचे देश में माओवादी आंदोलन के रुप में स्थापित कर लिया.

विदित हो कि जनता द्वारा सत्ता कब्जाने की इन दो महान कोशिशों के बीच एक तीसरी कोशिश भी हुई थी, जो भारत के इतिहास में तेलंगाना किसान विद्रोह के रुप में विख्यात हुआ. परन्तु, इस आंदोलन के साथ सबसे बड़ी समस्या यह हुई कि इस आंदोलन के नेतृत्व ने बलपूर्वक सत्ता कब्जाने की लड़ाई से न केवल खुद को रोक लिया बल्कि सत्ता कब्जाने की लड़ाई के पैरोकारों को निर्मम तरीके से नेहरु की तत्कालीन सरकार से सांठगांठ कर कुचल दिया और इसका ठीकरा मजदूरों के चौथे महान शिक्षक जोसेफ स्टालिन के सर फोड़ दिया. अंततः इस महान तेलंगाना किसान आंदोलन का अंत घोर पराजय और निर्मम कत्लेआम में सम्पन्न हुआ.

किसी भी आंदोलन का केन्द्रीय बिन्दु अगर सत्ता पर कब्जा करना नहीं है, तो वह महज फैशन बनकर रह जाता है, जिसका संज्ञान लेना भी शासकीय सत्ता के लिए जरुरी नहीं होता है, चाहे वह आंदोलन कितना ही भीषण, व्यापक क्यों नहीं हो. दुनिया के इतिहास में जर्मनी इसका शानदार उदाहरण है, जिसने दृढ़तापूर्वक आंदोलन को सत्ता कब्जाने से रोककर हिटलर जैसे फासिस्ट का मार्ग प्रशस्त कर दुनिया में हत्याकांडों का भयानक उदाहरण पेश किया.

किन्तु, किसी भी आंदोलन का केन्द्रीय उद्देश्य जब सत्ता पर कब्जा करना होता है तब वह चाहे कितना ही कमजोर अथवा छोटा ही क्यों न हो, दुनिया में मिसाल पैदा कर जाता है, मसलन, मार्क्स-एंगेल्स के नेतृत्व में स्थापित पेरिस कम्युन, लेनिन द्वारा स्थापित सोवियत सत्ता. यहां तक कि भगत सिंह और नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन के द्वारा लड़ी गई या लड़ी जा रही आंदोलन, अपनी छोटी ताकत के वाबजूद शासकीय सत्ता की हड्डियों में सिहरन पैदा कर चुकी है या कर रही है.

कोई भी आंदोलन जब अपनी स्वतंत्र चेतना के साथ आगे बढ़ता है, तब उसका केन्द्रीय उद्देश्य निश्चित तौर पर सत्ता कब्जाना हो जाता है, इसका बेमिसाल उदाहरण पेश किया है अन्ना हजारे के मुखौटा तले अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में चला आंदोलन. अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में लाखों लोगों के विशाल आंदोलन भी जब सत्ता के चेहरे पर सिकन तक नहीं ला सकी, तब यह समझ विकसित होने लगी कि सत्ता पर कब्जा करना प्राथमिक जरुरत है. इसके बाद का इतिहास सभी जानते हैं कि मौजूदा सत्ता अरविन्द केजरीवाल के इस सत्ता कब्जाने की कोशिश से किस कदर बौखला उठा.

अरविन्द केजरीवाल कोई कम्युनिस्ट नहीं हैं और न ही उनका उद्देश्य बलपूर्वक सत्ता पर काबिज होना है, परन्तु, अरविन्द केजरीवाल का उत्थान यह बताने के लिए सबसे सटीक उदाहरण है कि बिना सत्ता कब्जाने की लड़ाई को केन्द्रीय उद्देश्य बनाये न तो कोई आंदोलन जीत सकता है और न ही वह अपने लक्षित उद्देश्यों की ही पूर्ति कर सकती है.

यही कारण है कि पिछले छह माह से लगातार चल रहे किसान आंदोलन की विशालता के वाबजूद केन्द्र का फासिस्ट शासक नरेन्द्र मोदी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. उल्टे वह संसद में खुलेआम मजाक उड़ाते हुए इन आन्दोलनकारियों को परजीवी आन्दोलनजीवी कहता है और ऐसा कहते हुए तनिक भी लज्जा महसूस नहीं करता.

महीनों से चल रहे किसान आंदोलन में 250 से अधिक किसानों की मृत्यु हो चुकी है. इसके वाबजूद केन्द्र की सत्ता पर इसका कोई असर नहीं है तो इसका एकमात्र कारण है कि इस किसान आंदोलन का उद्देश्य सत्ता को उखाड़ फेक कर सत्ता पर काबिज होना नहीं है. जब तक यह किसान आंदोलन अपने आंदोलन का केन्द्रीय उद्देश्य सत्ता पर काबिज होना घोषित नहीं करता, तब तक न तो इस किसान आंदोलन का कोई मायने है और न ही कोई मतलब. यह महज एक रक्तपिपासु तमाशा बन गया है, जिसका मजाक एक हत्यारा प्रधानमंत्री उड़ा रहा है.

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