पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ
कुछ लोग धार्मिक होते हैं और कुछ अंधधार्मिक. धार्मिक होना ठीक कहा जा सकता है मगर अंधधार्मिक होना बहुत बुरा है. और इस गिनती में पुरुष ही नहीं महिलायें भी शामिल हैं. जी हांं, असल में ये अंधधार्मिक लोग ही देश कि बर्बादी का असल कारण है !
आप कुछ और समझे इससे पहले ही मैं आपको अपनी बात का सन्दर्भ बता देता हूंं कि मैं अपनी मित्र सूची में अक्सर कुछ महिलाओं और पुरुषों की ऐसी टिप्पणी देखता हूंं, जो अपने धर्म (हिंदुत्व) के पोषण और दूसरे को तुच्छ समझने के विषय में होती है. और तो और 7वीं सदी में लिखी गयी किताब गीता को न सिर्फ दुनिया कि सबसे बेस्ट किताब के रूप में प्रचारित करते हैं बल्कि मुसलमानों की कुरआन विषयक मान्यता वाली मान्यता भी गीता के विषय में रखते हैं और इसे ईश्वर द्वारा कथित बताते हैं. हालांंकि मेरा अनुमान है कि उन्होंने जीवन में एक भी किताब नहीं पढ़ी होगी या फिर एक ही किताब पढ़ी होगी, वो भी पूरी तरह से समझे बिना ही पढ़ी होगी.
बहरहाल, गीता को झूठ का पुलंदा साबित करने की जरूरत नहीं क्योंकि जिन्होंने भी गीता को छोड़कर दूसरी किताबें पढ़ी है, वे ये बात अच्छे से जानते हैं कि गीता में ऐसा कुछ नहीं जो विशिष्ट हो. हांं, एक पात्र वासुदेव कृष्ण को जरूर महिमामंडित किया गया है. और ऐसा जताया गया है कि वासुदेव ही ईश्वर हो और सब कथन कह रहे हो. किन्तु अगर आप लोग अपना धार्मिक चश्मा उतार कर देखेंगे तो आपको भी पता चल जायेगा कि कृष्ण कोई भगवान नहीं थे.
और ऐसा सिर्फ मैं नहीं बल्कि खुद वैदिक धर्म के आचार्य भी कहते है, यथा – ‘अग्निवेश ने कहा था कि कोई भी हिन्दू साबित करके बताये कि राम और कृष्ण भगवन या अवतार थे ?’
खुद भगवत गीता में कहा गया है कि ‘ईश्वर/भगवान का कोई रंग, रूप या आकार नहीं होता’ तो फिर आकारवान मनुष्य कृष्ण जो वासुदेव के पद पर थे, वे कैसे भगवान हो गये ? वैदिक धर्मानुसार जब निराकार ही ईश्वर है तो फिर मूर्ति पूजा क्यों ?
चलो मान लिया कि गीता दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक है, परन्तु जब गीता को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ और भगवान द्वारा कही गयी किताब मानते हो तो उसमे लिखे का अमल क्यों नहीं करते ? मूर्ति/फोटो बनाकर भगवान का धंधा क्यों करते हो ?
वैदिक साहित्य के अनुसार ही जब युद्ध के शंख दोनों पक्ष से बज चुके थे और दो विशाल सेनायें एक दूसरे से टकराने के लिए दृढ़ता से कूच कर चुकी थीं, तब तीन घंटे का यह नीति-दर्शन (गीता ज्ञान) विषयक जटिल प्रवचन अत्यंत असंभव प्रतीत होता है. असल में गीता वस्तुतः हिंसा की वृद्धि के लिये रचा गया एक काल्पनिक ग्रन्थ है. शायद इसलिये ही गीता 2-37 में ये सन्निविष्ट है कि ‘या तो मर कर स्वर्ग प्राप्त होगा या जीत कर पृथ्वी को भोगेगा, इसलिये हे कुंतीपुत्र, युद्ध के लिए कृतनिश्चय होकर खड़ा हो जा.’
इसमें साफ पता चलता है कि भाई को भाई से लड़ने के लिये और हिंसा की वृद्धि के लिये इसे रचा गया. ऐसी बातें लिखकर विदेशी आर्यों ने तत्कालीन भारत में यहांं के मूल निवासियों में फुट पैदा की और इसे धार्मिक रंग में रंग कर आपस लड़वाकर उन्हें कमजोर किया ताकि वे ब्राह्मणों के रूप में भारत पर काबिज हो सके और डाल दिया बिचारे अंग्रेजों के मत्थे पर, जबकि वो तो आये ही 17वीं सदी में थे. और उनसे हज़ार वर्ष पूर्व ही गीता रचकर ‘फुट डालो और राज करो’ की नीति जन्म ले चुकी थी !
गीता जैसे ग्रंथ का उल्लेख पहली बार ह्वेनसांग ने 7वीं शताब्दी के प्रारंभ में किया. ह्वेनसांग ने एक ब्राह्मण का हवाला दिया है जिसने अपने राजा के आदेशानुसार इस तरह का एक ग्रंथ युद्ध को बढ़ावा देने के लिये रचा था (ये है गीता की असलियत – 7वीं सदी में रची गई किताब को महाभारत काल का उपदेश बना दिया गया.)
गीता में दो तरह के विरोधी तत्त्व हैं. एक तरफ हिंसा को प्रतिपादित करने और हिंसा भड़काने वाले तत्व को बताया है वही दूसरी तरफ अहिंसा का मुखौटा चढ़ाया गया है. अर्थात भेड़ की खाल में भेड़िया वाली कहावत. इससे स्पष्टत: ही प्रतीत होता है कि गीता नई रचना है !
उस नयी रचना की एक और नयी रचना गीता प्रेस द्वारा उकेरी गयी, जो संभवतः संघ के आदेशानुसार की गयी है. क्योंकि जहांं प्राचीन काल के गीता पाठ में अपेक्षाकृत संक्षिप्त रूप में दिये हुए किसी धर्मोपदेश का विस्तार नहीं है जबकि नयी गीता (गीता प्रेस गोरखपुर वाली) में कट्टर धर्मवाद को विशेष प्रकार से उकेरा गया है !
पुरानी गीता अपनी रचना के बाद कई सदियों तक प्रभावहीन ही बनी रही थी. और आज जो गीता प्रचलित है वो तो पूरा का पूरा ही झूठ का पुलंदा है, जिसमें मनमाने तरीके से सिर्फ हिन्दुवाद का पोषण किया गया है !
गीता और उसके कथित भगवन का झूठ यहांं स्पष्ट विदित होता है. देखिये गीता 2-19 में और उसके परवर्ती श्लोकों में, जिसमें बताया गया है कि ‘आत्मा न मरती है, न मारी जाती है, आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर को उसी प्रकार धारण करती है जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्रों को धारण करता है. इस आत्मा को न तो शस्त्रादि काट सकते हैं, न आग जला सकती है, न पानी भिगो सकता है, न हवा सुखा सकती है.’ तो अब इसमें समझने की बात ये है कि इसमें उस कथित भगवान का रोल क्या है ?
जब आत्मा अनश्वर है तो ये भी जाहिर है कि इसे उस भगवान ने नहीं बनाया क्योंकि वो तो खुद नश्वर हैं और न जन्मता और मरता है (अवतार लेना और अपने धाम जाना ये जन्म मरण ही है).
दूसरी बात जब आत्मा शरीर को पुराने वस्त्र की तरह बदलती है, इसका मतलब ये भी साफ है कि आत्मा कर्म सत्ता के अधीन है. इसमें उस कथित भगवन का कोई रोल नहीं. अगर रोल होता तो आत्मा नाशवान होती और उसे शरीर बदलने की जरूरत भी नहीं पड़ती !
गीता, 11-33 में बताया गया है कि युद्धक्षेत्र में उपस्थित ये सारे शूरवीर तो मेरे (कृष्ण) द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं. ‘अत: हे अर्जुन ! तू ऐसे संहार के लिये बस निमित्तमात्र हो जा और शत्रुओं को जीतकर धनधान्य से संपन्न राज्य का भोग कर !’
कितना बेहूदा मज़ाक है मरे हुए को मारने के लिए कहा जा रहा है. अगर वे शूरवीर उस कथित भगवन के द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं, तो एक मनुष्य अर्जुन को निमित्त बनाने की क्या जरूरत है ? और अगर वे जिन्दा है तो इसका साफ मतलब है कि गीता में लिखा गया पाठ झूठा है या फिर वो इनका कथित भगवन भी झूठ बोलता है.
अब काल्पनिक हवाई उड़ान छोड़ कर धरातल पर आइये और सोचिये कि – जब कुरुक्षेत्र का मैदान महासंग्राम के लिये पूरी तरह से सज चुका था, दोनों तरफ की सेनायें भिड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार थी. हजारों हाथी, घोड़ों की चिंघाड़ से पूरा मैदान गूंंज रहा था, ऐसे में युद्ध से विरत अर्जुन का मोहभंग करने के लिये कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देने लगते हैं. और उस क्षण की विशेषता ये थी कि सिर्फ अर्जुन ही कृष्ण को देख और सुन सकता था. ऐसे में कई प्रश्न खड़े होते हैं, उनमें से कुछ मुख्य प्रश्न नीचे मुजब है ! यथा –
- जब कोई गीता को पढ़ता है तो सम्पूर्ण गीता को पढने में एक दिन से अधिक का समय लगता है. फिर कृष्ण ने अर्जुन को पूरी गीता मात्र कुछ मिनटों में कैसे सुना दी ?
- जब दोनों सेनायें युद्ध के लिये तैयार थी और कृष्ण को अर्जुन के सिवाय कोई और देखने सुनने में सक्षम नहीं था तो दोनों तरफ से युद्ध आरम्भ क्यों नहीं किया गया ? (दोनों तरफ के मुख्य सेनापति प्रद्युम्न और भीष्म किस चीज की प्रतीक्षा कर रहे थे ?)
- जब कृष्ण को उस समय सिर्फ अर्जुन ही देख सकता था तो युद्धक्षेत्र से काफी दूर राजमहल में संजय धृतराष्ट्र को गीता के उपदेश किस प्रकार सुना सकता था ?
- इतने कोलाहल भरे माहौल में जहांं हजारों हाथी, घोड़े चिंघाड़ रहे थे कोई शांति से प्रवचन कैसे दे सकता है और कोई उनको शांति के साथ सही तरह से कैसे सुन सकता है ?
- चलो माना कृष्ण ने उपदेश दिये अर्जुन ने सुने. दोनों में से लिखा किसी ने नहीं, किसी तीसरे ने उसको सुना नहीं फिर गीता लिखी किसने ?
- अगर किसी तीसरे व्यक्ति ने गीता सुनी भी तो उसको युद्धक्षेत्र में लिखा कैसे गया और फिर उसने सुना कैसे जबकि सिर्फ अर्जुन ही सुन सकता था ?
- अगर गीता युद्ध के बाद लिखी गयी तो इतने सारे उपदेशों को कंठस्थ किसने किया ? (इतने सारे उपदेशों को सुनकर याद रखकर बिल्कुल वैसा ही कैसे लिखा गया वो भी बिना मिश्रण के ?)
- अगर गीता के उपदेश इतने ही गोपनीय थे कि उनको सिर्फ अर्जुन ही सुन सके तो इन दोनों के बीच का वार्तालाप सार्वजानिक कैसे हुआ ?
- अगर गीता के उपदेश सभी लोगों के लिए उपयोगी थे तो कृष्ण को चाहिये था वो अपने उपदेश सभी युद्ध में हिस्सा लेने वाले सभी लोगों को सुनाते ताकि सभी लोगों का ह्रदय परिवर्तन हो सकता और इतने बड़े नरसंहार को टाला जा सकता था. लेकिन कृष्ण ने ऐसा क्यों नहीं किया ?
- अगर गीता के उपदेश उस समय सभी के लिये उपयोगी नहीं थे तो आज सभी के लिये उपयोगी कैसे हो सकते हैं ?
ये तो सिर्फ कुछ ही प्रश्न हैं. असल में ऐसे प्रश्नों की गीता से बड़ी किताब लिखी जा सकती है, जिनका उत्तर नदारद है. अगर इन सभी प्रश्नों पर अपनी अंधभक्ति से हटकर सोचेंगे तो बहुत ही उम्दा ज्ञान प्राप्त होगा. वो ज्ञान मेरा होगा अर्थात इस पंडित किशन का जो न तो भगवान है और न ही वासुदेव. ये किशन तो सिर्फ एक साधारण इंसान है !
वैसे भी मेरी नजर में आज के समय में भारत का संविधान ही भारतीयों के लिये सबसे श्रेष्ठ पुस्तक है और आचरण करने लायक है. क्योंकि एक तरफ जहांं गीता में लिखा गया है कि नारी नर्क का द्वार है और पुरुष से निम्नतर है और उसे पुरुष की बराबरी नहीं दी जा सकती, वहीं दूसरी तरफ भारत के संविधान ने नारी को न सिर्फ समानता का अधिकार दिया है बल्कि आर्टिकल 14, 15(3), 39(अ)-(डी), 51(अ)-(इ), 243-D (3)-(4), 243-T(3)-(4), में लिखा गया है कि महिलाओं को सभी क्षेत्रों, अर्थात धार्मिक, पारिवारिक और सामाजिक स्तर पे भी समानता का अधिकार है.
अब आप ही सोचिये सभी को समान अधिकार देनेवाला संविधान देश का राष्ट्रीय ग्रंथ होना चाहिये या फिर सामाजिक असामनता और वर्ण व्यवस्था का डंके की चोट पे समर्थन करने वाला दकियानूसी और निकृष्ट किताब गीता, जरा सोचिये…?
मेरी लेख से जिनकी भावनाओ को ठेस लगी है, उनसे कहना चाहता हूंं कि – ‘आप क्यों ऐसा समझते हैं कि आपके मूर्खतापूर्ण मिथकों पर टिकी मूर्खतापूर्ण आस्था से जुड़ी आपकी मूर्खतापूर्ण भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाई जानी चाहिये ?’ आखिर आप अपने आपको समझते क्या हैं ?
Read Also –
पढ़े-लिखे धार्मिक डरपोक अब पाखंडी लोगों की जमात में बदल रहे हैं
‘अंध-धार्मिकता’ एक मनोवैज्ञानिक बीमारी
राजसत्ता बनाम धार्मिक सत्ता
106वीं विज्ञान कांग्रेस बना अवैज्ञानिक विचारों को फैलाने का साधन
[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]