मोदी नीतिकारों को धक्का तो लगेगा लेकिन विश्व भर में मीडिया इस शुक्रवार को जर्मनी में जी-20 शिखर सम्मेलन में अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प और रूस के राष्ट्रपति पुतिन की होने वाली मुलाकात की चर्चा में व्यस्त है. 70 साल में पहली बार भारत के प्रधानमंत्री की इजराइल यात्रा महज इन दोनों देशों की मीडिया के लिए ही एक ऐतिहासिक परिघटना बन सकी है.
दरअसल, मोदी उस काल-खंड में वैश्विक नेतृत्व की कतार में स्वयं को दिखाना चाहते हैं जब अमेरिका जैसी महाशक्ति के राष्ट्रपति तक ने अपनी पारंपरिक वैश्विक भूमिका के उलट, ‘अमेरिका फर्स्ट’ का नारा दिया हुआ है. ब्रिटेन, यूरोपीय यूनियन (ईयू) से बाहर आ चुका है और डगमगाती अर्थव्यवस्था वाला रूस, तमाम अमीर अरब देश और ईयू खुद भी अपने-अपने क्षेत्रीय हितों के दायरे में सिमट रहे हैं.
हाल में मोदी भक्तों की राष्ट्रवादी कसक को जबरदस्त धक्का लगा था जब उनके अमेरिकी दौरे में बमुश्किल स्थानीय मेयर को अगवानी के लिए हवाई अड्डे पर देखा गया. लिहाजा इजराइल में प्रधानमंत्री नेतन्याहू का मोदी की अगवानी में हवाई अड्डे पर आने को भारतीय मीडिया ने लीड स्टोरी बना कर पेश किया. स्वयं मोदी के लिए यह कसक इतनी व्यक्तिगत बन चुकी है कि इजरायली राष्ट्रपति से मुलाकात में वे राष्ट्रपति के सड़क पर आकर उनकी अगवानी करने को कई बार रेखांकित करना नहीं भूले.
मोदी की वैश्विक नेतृत्व में हिस्सेदारी की इस दीवालिया चाहत के बीच, भारत के रक्षा मंत्री और चीन के रक्षा मंत्रालय दोनों को एक दूसरे को याद दिलाने की जरूरत महसूस होती रही है कि यह 1962 का दौर नहीं है. हालाँकि, दोनों देशों के बीच वर्तमान सैन्य ताना-तानी की खींचतान में 1962 बार-बार याद किया जाएगा ही.
1961 में भारतीय सेना ने गोवा से पुर्तगालियों को बाहर खदेड़ कर अपनी पीठ ठोंकी थी. 1962 में देश के प्रधानमंत्री नेहरू के मित्र कृष्ण मेनन अभी भी रक्षा मंत्री पद पर थे, जब अक्तूबर युद्ध से ऐन पहले विदेश यात्रा पर जाते हुए नेहरू ने हवाई अड्डे पर पत्रकारों के चीन सीमा पर सैन्य जमावड़े बाबत पूछने पर कहा कि “सेना को भारतीय सीमा में घुस आयी चीनी फ़ौज को खदेड़ने के आदेश दे दिए गए हैं.” इसके बाद की अपमानजनक सैन्य पराजय का इतिहास शायद ही कोई भारतीय याद रखना चाहता हो.
2017 में भी कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिल रहा है. देश के प्रधानमंत्री के एक मित्र अरुण जेटली कार्यवाहक रक्षा मंत्री बने हुए हैं और स्वयं मोदी विदेश यात्रा पर आ-जा रहे हैं. एक ओर भारतीय सेना पाकिस्तान सीमा पर सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर अपनी पीठ थपथपाती नहीं थक रही, जबकि चीनी प्रवक्ताओं की ओर से भारतीय सेना को लगातार अपमानजनक धमकियाँ मिल रही हैं.
नेहरू जी के दो ध्रुवीय ज़माने में वैश्विक नेतृत्व का हिस्सा होना एक सफल विदेश नीति कही जा सकती थी, हालाँकि इसे निभा पाने में जो सामरिक आधार चाहिए था उसकी अनदेखी की गयी. आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने ताबड़तोड़ विदेशी दौरों के लिए जाने जाते हैं. बेशक आप उनके आलोचकों की न भी सुनें कि वे देश में महज एक यात्री के रूप में आते-जाते रहे हैं, सैलानी मोदी एक दिक्कत के रूप में इसलिए सामने आते हैं क्योंकि वे आज के सन्दर्भ में एक दीवालिया हो चुकी विदेश नीति का अनुसरण कर रहे हैं.
उत्तर कोरिया और आइसिस जैसे हास्यास्पद वैश्विक भूमिका के दावों के अलावा आज चीन को छोड़कर शायद ही कोई समझदार राष्ट्रनेता वैश्विक दखलंदाजी को लेकर मोदी जैसी तत्परता दिखा रहा हो. जानकारों के अनुसार, चीन के राष्ट्रपति शीजिनपिंग की ‘वन बेल्ट एंड वन रोड’ वैश्विक नीति भी देश के अंदरूनी गतिरोध पर पार पाने का आर्थिक पांसा ज्यादा है, एक व्यवहारिक सामरिक रणनीति कम.
मोदी के ‘मेक इन इण्डिया’ दावों के बावजूद, आज भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा हथियारों का खरीदार बन चुका है, इजराइल का तो सबसे बड़ा सैन्य ग्राहक. इजराइल में मोदी के लिए बिछाए हर रेड कारपेट की कीमत देश को बढ़-चढ़ कर चुकानी पड़ रही है. ऐसे में क्या मोदी अपनी दिशा हीन विदेश यात्राओं को लगाम देंगे और चीन से बढ़ते सैन्य तनाव पर ध्यान केन्द्रित करेंगे ? सबसे पहले तो देश को एक नियमित रक्षा मंत्री चाहिए.
विकास नारायण राय (पुर्व आइपीएस)
cours de theatre
September 30, 2017 at 3:58 am
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