हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
हम भारतीय यह देख सुन कर अचरज भरे सदमे में हैं कि कोरोना संकट के सामने अमेरिका आखिर क्यों घुटनों के बल गिरा है ? वह तो दुनिया का महाप्रभु देश है, न सिर्फ सामरिक और आर्थिक मायनों में, बल्कि बौद्धिक मायनों में भी.
चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में बीते 50 वर्षों के नोबेल पुरस्कारों की सूची खंगाली जाए तो सबसे अधिक नाम अमेरिकी वैज्ञानिकों का ही होगा. जाहिर है, चिकित्सा संबंधी सबसे अधिक रिसर्च अमेरिका में ही होते हैं. दुनिया के सर्वाधिक सक्षम अस्पतालों की सूची बनाई जाए तो उनमें अधिकतर अमेरिकी अस्पताल ही होंगे.
हेल्थ सेक्टर पर खर्च की ही बात करें तो इस पर अमेरिका अपनी जीडीपी का करीब 17-18 प्रतिशत खर्च करता है. यह मामूली नहीं है, खास कर यह देखते हुए कि अपना भारत महान इस सेक्टर पर अपनी जीडीपी का महज़ एक या सवा प्रतिशत खर्च करता है. फिर आज अमेरिका की ऐसी बुरी गत क्यों ?
ट्रंप निरुपाय किस्म के बयान दे रहे हैं कि अमेरिका को अभी और अधिक बुरे दिन देखने बाकी हैं. न्यूयार्क के मेयर हताश भाव से कह रहे हैं कि हम अपने लोगों की अकाल मौतों की संख्या को बढ़ने से रोकने में अक्षम साबित हो रहे हैं और अब ईश्वर ही मालिक है.
मेडिकल संसाधनों की आपूर्त्ति को लेकर वहां संघीय प्रशासन और राज्यों में वाग्युद्ध चरम पर है. कुछ महीने पहले कोई सोच भी नहीं सकता था कि किसी महामारी के सामने अमेरिका का स्वास्थ्य ढांचा इतना लचर साबित होगा.
विशेषज्ञ इसका कारण अमेरिकी स्वास्थ्य नीतियों में निहित अंतर्विरोधों को मान रहे हैं जो नागरिक हितों और कारपोरेट हितों के असंतुलन से पैदा हुए हैं. यद्यपि अमेरिका अपने हेल्थ सेक्टर पर भारी भरकम खर्च करता है लेकिन उसने इस तंत्र को मुनाफा आधारित बना कर एक ऐसी रिक्तता उत्पन्न कर दी है, जहां मनुष्यता का हित दोयम दर्जे पर चला गया है और कारपोरेट का हित पहली पायदान पर है.
स्वास्थ्य के सरकारी ढांचे को मजबूत करने की जगह उसे अधिक से अधिक निजी क्षेत्र को सौंपने की प्रवृत्ति ने रिसर्च के मौलिक उद्देश्यों को भी प्रभावित किया है, जो मौलिक रूप से मनुष्यता के हितार्थ नहीं, बाजार के हित में होने लगे हैं. आप रिसर्च को जिस अनुपात में बाजार के जिम्मे करते जाएंगे उसी अनुपात में मनुष्यता के हितों की जगह बाजार के हित प्रभावी होते जाएंगे.
इन नीतियों के मामले में अमेरिका दुनिया का अगुआ देश बना और भारत जैसे देश आज उसी का अनुसरण करने के लिये व्यग्र हैं. पिछले कुछ वर्षों में एक मुहिम सी चलती रही है कि रिसर्च को अधिक से अधिक बाज़ार के जिम्मे किया जाए. अपने मोदी जी के नेतृत्व में नीति आयोग भी रिसर्च पर सरकारी खर्च को कम कर इसे बाजार आधारित करने की बातें करता रहा है. भारत सरकार इस संबंध में तमाम आईआईटी सहित विभिन्न चिकित्सा अनुसंधान संस्थानों को पत्र भेज चुकी है कि रिसर्च के फंड के लिये बाजार से संबंध विकसित किये जाएं।
यह कोई छिपी बात नहीं है कि सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने रिसर्च अनुदानों में भारी कटौती कर दी थी और इसे बाजार के हवाले करने की नीतियों के निर्धारण के लिये नीति आयोग को टास्क सौंपा गया था. यह सीधे तौर पर अमेरिकी नीतियों का अनुसरण था.
रिसर्च संबंधी इन बाजारोन्मुख नीतियों के खिलाफ अभी पिछले वर्ष ही दुनिया के प्रमुख वैज्ञानिकों ने एक सामूहिक पत्र जारी कर सरकारों से अपील की थी कि इसे बाजार के हवाले करने के विभिन्न खतरे हैं और यह मनुष्यता के हितों के खिलाफ है. लेकिन, इन वैज्ञानिकों की बातों को उचित तरजीह नहीं दी गई.
अमेरिका ने अपने नागरिकों के लिये सक्षम सरकारी चिकित्सा केंद्रों की जगह मेडिकल बीमा के रास्ते को चुना. इन नीतियों का प्राथमिक लाभार्थी अंततः कारपोरेट सेक्टर ही बना, जिसने निजी अस्पतालों के माध्यम से ही नहीं, निजी बीमा कंपनियों के माध्यम से भी जम कर मुनाफा कमाया. रिपोर्ट बताते हैं कि अमेरिका में हेल्थ बिजनेस सबसे अधिक मुनाफा कमाने वाला सेक्टर बन गया है.
अब, समय विश्वगुरु और वैश्विक अगुआ अमेरिका को पाठ पढ़ा रहा है कि आकस्मिक आपदाओं में निजी क्षेत्र नहीं, सरकारी तंत्र ही काम आता है.
न्यूयार्क दुनिया का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शहर है, कारपोरेट संस्कृति का वैश्विक प्रतीक. दुनिया के सर्वाधिक सुविधा संपन्न अस्पताल हैं वहां लेकिन, आज वहां के गवर्नर हताश स्वर में कह रहे हैं कि हमारे अस्पताल कोरोना संकट जैसी आकस्मिक आपदाओं से निपटने को तैयार नहीं थे.
क्यों नहीं थे ? क्योंकि वे कैंसर, हृदय रोग जैसी बीमारियों का इलाज कर भरपूर पैसे कमा रहे थे और वायरस संक्रमण की संभावनाओं को ध्यान में रख कर न उन्होंने, न दवा कंपनियों ने रिसर्च में आवश्यक पूंजी का निवेश किया, न संक्रमणरोधी मेडिकल किट्स के आवश्यक संग्रहण पर ध्यान दिया, जो आकस्मिक आपदा के वक्त काम आ सकें.
नाओम चोम्स्की ने दो दिन पहले एक इंटरव्यू में जो कहा है वह हालात पर सटीक टिप्पणी है, ‘उनके लिये लोगों को पूरी तरह नष्ट होने से बचाने के लिये टीका तलाशने के मुकाबले बॉडी क्रीम बनाना अधिक फायदेमंद है.’ चोम्स्की ने याद दिलाया कि पोलियो का खतरा साल्क वैक्सीन से खत्म हुआ जो एक सरकारी संस्था के द्वारा विकसित की गई है, जिसका कोई पेटेंट नहीं है और यह सबके लिये उपलब्ध है.
मानव कल्याण सरकारों का जिम्मा होता है और यह किसी भी लिहाज से निजी कंपनियों का मूल ध्येय नहीं हो सकता. आज कोरोना का टीका विकसित करने के लिये दुनिया भर की सरकारें न सिर्फ छटपटा रही हैं बल्कि इस रिसर्च के लिये अकूत फंड भी जारी कर रही हैं.
यह तो नीतिगत मामलों में यू-टर्न लेने के समान ही है. जब सरकारें कोरोना संकट से निपटने के लिये निजी क्षेत्र को जिम्मा नहीं देकर स्वयं आगे हैं, न सिर्फ आगे हैं बल्कि इसके लिये निजी क्षेत्र के संसाधनों का अधिग्रहण करने पर भी आमादा है. हालात दुनिया को सिखा रहे हैं कि मनुष्यता को बचाने की जब लड़ाई छिड़ेगी तो सरकारी ढांचे की मजबूती ही काम आएगी.
विचारक सिमोन मायर ने बीबीसी में कहा कि कोरोना संकट मनुष्य के जीवन में सरकारों की भूमिका को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है और इस संकट के खत्म होने के बाद नागरिक, सरकार और निजी क्षेत्र के पारस्परिक समीकरण बदले दिख सकते हैं. जर्मनी गहरे संकट में है लेकिन अपने ढांचे की मजबूती और कुशलता से उसने इसका डट कर सामना किया है. चीन, कोरिया, सिंगापुर, जापान जैसे देशों ने भी यही उदाहरण प्रस्तुत किया है.
अथाह समृद्धि और बौद्धिक क्षमता से युक्त अमेरिका घुटनों पर है तो इसका कारण अमेरिकी प्रशासन की अदूरदर्शिता तो है ही, जिसने समय रहते कदम नहीं उठाए, इससे भी बड़ा कारण वहां की स्वास्थ्य नीतियां हैं. अमेरिका के अनुसरण पर चलता भारत आज कोरोना त्रासदी से निपटने में न सिर्फ मेडिकल उपकरणों की कमी से जूझ रहा है, बल्कि जिन सरकारी डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मियों के भरोसे यह लड़ाई लड़ी जा रही है, उनके भी आधे से अधिक पद रिक्त हैं.
भारत में सरकारों को सरकारी पद रिक्त रखने में बहुत सुकून मिलता रहा है और वे इसे राजकोषीय घाटा कम करने की दिशा में जरूरी मानते हैं. आज यह नीति त्रासदी को कितनी गम्भीर बना रही है, यह वे डॉक्टर और मेडिकलकर्मी अधिक शिद्दत से महसूस कर रहे होंगे जो अकेले कई लोगों के बराबर काम करने पर मजबूर हैं.
इस आलोक में अपने नीति आयोग की संभावित स्वास्थ्य नीतियों का विश्लेषण कर लें, जिनके सीईओ अमिताभ कांत ने अभी पिछले वर्ष ही टीवी पर नफ़ीस अंग्रेजी में हमें बताया, ‘भारत में हेल्थ सेक्टर के कंप्लीट प्राइवेटाइजेशन की जरूरत है.
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