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साम्राज्यवाद-सामंतवाद-विरोधी आन्दोलन के प्रतीक हैं अमर शहीद बिरसा मुंडा

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साम्राज्यवाद-सामंतवाद-विरोधी आन्दोलन के प्रतीक हैं अमर शहीद बिरसा मुंडा
साम्राज्यवाद-सामंतवाद-विरोधी आन्दोलन के प्रतीक हैं अमर शहीद बिरसा मुंडा

साम्राज्यवाद-सामंतवाद विरोधी बिरसईत का हुलगुलान और अमर शहीद बिरसा मुंडा के रणनीति और बर्तमान परिस्थिति पर ओरमांझी के बाघिनब॔डा में चर्चा सम्पन्न हुआ.

मनमारू और जराइकेला गांव के 7 मुखवीरों ने 3 फरवरी (1900) को जंगल में धुआं उठते देख कर वहां पहुंचा, जहां उनका भगवान बिरसा मुंडा और डोका मुंडा की पत्नी सली सो रही थी और बाकी भात पकाने में व्यस्त थे. इन्हीं मुखबिरों ने ही ₹500 के लालच में अपने भगवान बिरसा को पकड़वा दिया.

बिरसा को पकड़ कर बंदगांव लाया गया, जहां अपने भगवान बिरसा मुंडा को देखने मुंडा लोग चारों ओर से आने लगे. बिरसाईत लोग वहां खुद को बिरसा के साथ गिरफ्तार करवाने के लिए चले आ रहे थे. कुल मिलाकर 581 लोगों को गिरफ्तार किया गया. 476 लोगों पर मुकदमा चला, 98 लोगों को दंडित किया गया, 3 को फांसी दी गई, विचाराधीन कैदी के रूप में 14 लोगों की मृत्यु हो गई.

आजीवन द्वीपांतर की सजा 80 लोगों को दी गई, 37 लोगों को 1 वर्ष या उससे कम की सजा दी गई, 296 लोगों को रिहा किया गया, 18 लोगों के बारे में कोई दस्तावेज प्राप्त नहीं हुआ, 68 लोगों को शांतिपूर्वक रहने की हिदायत दी गई. कुल 17 मुकदमा चलाया गया. कोर्ट की कार्यवाही मई महीने से दिसंबर तक चलता रहा.

आम मुंडाओ को आशा थी कि उनके बिरसा भगवान जेल से निकलकर फिर आएंगे और उलगुलान को नेतृत्व देगें लेकिन इस बार ऐसा नहीं नहीं हुआ. बिरसाईतों के नेतृत्व में लड़ी गई इस लड़ाई का अंत हो गया, लेकिन शोषण और दमन का अंत नहीं हुआ.

बिरसाईत दुनिया का सबसे उन्नत ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति के खिलाफ उलगुलान का संचालन कर रहे थे. आमने-सामने की इस लड़ाई से बचकर अगर इसे प्रत्येक आदिवासी समूहों और मूलवासी समूहों के साथ जोड़ा जाता और फिर देश के पैमाने पर ब्रिटिश विरोधी विद्रोहों के साथ एक मंच तैयार होता, तो इस लड़ाई का राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार हो जाता. तब इसका कुछ और नतीजा निकल सकता था, जो संभव नहीं हुआ.

आज ब्रिटिश हुकूमत का शासन प्रत्यक्ष रूप से समाप्त हो चुका है लेकिन जल, जंगल, जमीन और स्वशासन की लड़ाई आज भी जारी है. देश और दुनिया के विभिन्न हिस्सों में आदिवासी-मूलवासी जगह-जगह इस लड़ाई को अलग-थलग तरीके से लड़ रहे हैं.

आज भी समस्याओं के केंद्र में साम्राज्यवाद और सामंतवाद ही है, जो हमारे जल, जंगल, जमीन और स्वशासन के सीमित अधिकारों के लिए बने संविधान की पांचवी और छठी अनुसूची एवं इससे जुड़े कानूनों को भी लागू नहीं होने देती है. साम्राज्यवाद और कारपोरेट घराना, सरकारों की मदद से अपने जरूरतों के अनुसार बचाव और क्षरण के नीति के तहत लूट मचाते रहते हैं.

मसलन, जब कारपोरेट घराना, साम्राज्यवादी देशों की कंपनियां एवं सरकारों के अलावा कोई अन्य का मामला हो तो इन संवैधानिक अनुसूचियों का बचाव किया जाता है, वरना देश के विकास के नाम पर आदिवासी हितैषी कानूनों की बली दे दी जाती है. इस तथ्य को अधिकांश जन संगठन, आदिवासी-मूलवासी नेता नहीं समझते हैं.

जहां तक राजनीतिक दलों की बात है, उनमें से ऐसे राजनीतिक दल जो भारत की वर्तमान व्यवस्था को जनतांत्रिक मानते हैं, उनके लिए तो ऐसे जनपक्षीय संवैधानिक कानून देश के विकास में बाधक है क्योंकि उनके लिए विकास का पैमाना सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि से होकर गुजरता है, जिसका लाभ कॉर्पोरेट घरानों, साम्राज्यवादी कम्पनियों और इनके नेताओं तथा नौकरशाहों को मिलता है.

आम जनता के खरीदने की क्षमता समाप्त ना हो जाए, इसलिए इन्हें भी कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से जिंदा रखा जाता है ताकि कंपनियों का सामान बिकता रहे. बड़े जमींदारों के मामले में सीलिंग एक्ट का भी यही हाल है. यहां सत्ता जमींदारों के साथ खड़ी मिलती है, जबकि खेती-किसानी में लगे आबादी का आधा से अधिक हिस्सा या तो भूमिहीन है या गरीब किसान है, जो पूरे देश में रोजगार की तलाश में भटकता रहता है.

कुछ राजनीतिक दल इस व्यवस्था को पूंजीवादी जनतंत्र मानता है, लेकिन हकीकत में यह साम्राज्यवादी शक्तियों, कारपोरेट घरानों और सामंती शक्तियों का गठजोड़ वाला तंत्र है. साम्राज्यवाद आज प्रत्यक्ष रूप के बदले विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन के माध्यम से अपना साम्राज्य फैलाए हुए हैं. हमारे जल, जंगल, जमीन का कैसा इस्तेमाल होगा, कौन करेगा यह सब बाजार को नियंत्रित करने बाली उक्त ताकतें तय कर रही है. हमारी सरकारें इसे विकास कहती है.

ये ताकतें हमारे स्वशासन के अधिकार और नियम को भी लागू नहीं होने देती. सरकारे बदलती रहती है, लेकिन इस अर्ध-औपनिवेशिक आर्थिक नीति में कोई बदलाव नहीं होता. इस सबाल पर सत्ता पक्ष और विपक्ष में आम सहमति है.

साम्राज्यवाद, कारपोरेट घराना और सामंतवाद का गठजोड़ आम लोगों को जाति, धर्म, क्षेत्र के सनकी मानसिकता से ऊपर उठने नहीं देता और सरकार हमारे नौकरी और रोजगार के स्रोत तथा सस्ता और मुफ्त सेवा मुहैया करने वाला यह सेवा क्षेत्र के संसाधनों जैसे सार्वजनिक क्षेत्र की औद्योगिक इकाइयों, रेल, एरोड्राम, जल, जंगल, जमीन, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली सबको विश्व व्यापार संगठन के निर्देश पर देशी-विदेशी कम्पनियों को बेच रही है. देश क॔गाल और देश की जनता मंहगाई, बेरोजगारी और भूख से त्रस्त है.

बिरसाइत के उलगुलान ने उस जमाने में थाना-साहब-जमींदार-न्यायालय के मकड़जाल को समझकर पूर्ण मुक्ति का लड़ाई आरंभ किया था. उलगुलान के आरंभ में जर्मन मिशन पर हमला हुआ था, लेकिन जल्द ही बिरसा ने साफ किया कि यह लड़ाई किसी धर्म के विरुद्ध नहीं है.

लेकिन आज सौ साल बाद भी हमारे झारखंड के समाज में ऐसे नेता है, जो शोषित जनता को ही धर्म, भाषा और जाति के नाम पर आपस में लड़ाने का काम करते हैं. ऐसे बुद्धिजीवी भी है जो आंतरिक उपनिवेशवाद का सिद्धांत के द्वारा इसे न्यायोचित कहते हैं.

आज जो राजनीतिक दल, संगठन, नेता, साम्राज्यवाद-सामंतवाद के खिलाफ संघर्ष कर रहा है, वही स्वशासन और मुक्ति की लड़ाई लड़ रहा है. वहीं नए जनवादी संघर्ष को मजबूत कर रहा है. वही उलगुलान को आगे बढ़ा रहा है.

उलगुलान का अंत नहीं हो सकता, यह एक विचार है, पूर्ण मुक्ति का, भ्रम फैलाने वाला मकड़जाल को तोड़ने का और साम्राज्यवाद-सामंतवाद के खिलाफ आम जनता के मुक्ति का. यही रास्ता है, जल, जंगल, जमीन और स्वशासन की रक्षा का, पुर्ण मुक्ति का.

  • शंभु महतो

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