लखीमपुर खीरी में किसानों पर गाड़ी चढ़ा कर हत्या करने वाला आशीष मिश्रा उर्फ मोनू को 10 फरवरी को लखनऊ हाई कोर्ट से जमानत दे दी गई. उसकी बेल पर बहस जनवरी में ही हो चुकी थी. जज ने 17 जनवरी को फैसला रिजर्व रख लिया था, जिसे 3 सप्ताह बाद सुनाया गया. जमानत मिलना किसी भी आरोपी का अधिकार है, लेकिन आशीष मिश्रा की जमानत का यह ऑर्डर जिस तरह से आया, और इसमें जो कुछ भी कहा गया है, वह न्याय के लिहाज से बेहद आपत्तिजनक है. वह न्याय नहीं अन्याय है.
इस जमानत आदेश के आने के बाद लोगों की आशंका सही साबित हो गई कि आशीष मिश्रा के पिता अजय मिश्रा टेनी के गृह मंत्रालय में बने रहते किसानों को न्याय मिलना मुश्किल है. देश भर से उठी मांग के बावजूद टेनी ने न ही गृह राज्य मंत्री के पद से इस्तीफा दिया और न ही उसे बर्खास्त किया गया.
आशीष मिश्रा का जमानत आदेश पूरे केस को एक ऐसी दिशा दे रहा है, जिससे आशीष मिश्रा आसानी से बरी हो जाएगा और प्रदर्शनकारी किसानों को ही सजा हो जाएगी. इस जमानत ऑर्डर में ही मोनू को हत्या और हत्या की साज़िश रचने के आरोप से बरी कर दिया गया है, जबकि SIT की टीम ने अदालत में जो चार्ज शीट दाखिल की है, खुद उसमें इसे एक आपराधिक षडयंत्र बताया गया है.
दूसरे, इस आदेश में बिना वजह किसानों द्वारा मोनू के सहयोगियों को पीट-पीट कर मारे जाने का उल्लेख कर न्यायपालिका ने अपनी पक्षधरता जाहिर कर दी है. यह सब इस कारण भी हुआ है क्योंकि आशीष मिश्रा के पिता अजय मिश्रा टेनी अभी भी गृह राज्य मंत्री के पद पर बने हुए हैं और मामले को प्रभावित कर रहे हैं. इसलिए अजय मिश्रा का इस्तीफा और उस पर मुकदमा दर्ज किया जाना, इस मुकदमे के न्याय के लिए जरूरी है.
जमानत आदेश में तथ्यों की दिशा मोड़ते हुए मुख्यत: यह कहा गया है कि ‘आरोपी के पास आग्नेयास्त्र होने के आरोप लगे हैं, लेकिन मारे गए लोगों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में किसी की भी गोली लगने से मौत की बात सामने नहीं आयी है.’
गौरतलब है कि किसी ने यह नहीं कहा कि उसने आग्नेयास्त्र से लोगों की हत्या की बल्कि केवल उसे रखने की बात कही है और गाड़ी चढ़ा कर हत्या करने की बात कही है. आग्नेयास्त्र का इस्तेमाल लोगों को धमकाने के लिए भी किया जाता है, केवल मारने के लिए नहीं. लेकिन मामले को यूं घुमा कर न केवल आशीष की बेल का आधार गढ़ लिया गया, बल्कि उसे मुकदमे से बरी किए जाने का रास्ता भी दिखा दिया गया है. दरअसल यह एक दूसरी ही आपराधिक साज़िश गढ़ी जा रही है, किसके द्वारा – यह बताने की जरूरत नहीं है.
आदेश में यह भी कहा गया है कि ‘ऐसा कहा नहीं जा सकता कि आशीष मिश्रा के कहने पर ड्राइवर ने भीड़ पर गाड़ी चढ़ा दिया. यह सम्भव है कि माहौल देखकर ड्राइवर घबरा गया हो और उसका संतुलन गाड़ी पर छूट गया हो.’
यह बात तब संभावना के तौर पर कही जा सकती थी, जबकि इसका कोई प्रमाण सामने नहीं आता जबकि 3 अक्टूबर के इस हत्याकांड का वीडियो लाखों लोगों ने देखा. घटनास्थल पर मौजूद सैकड़ों चश्मदीद गवाह हैं, जिन्होंने जांच टीम से यह बताया है कि किस तरह आराम से चलती भीड़ पर गाडियां चढ़ाई गईं. (एक अखिल भारतीय जांच टीम का हिस्सा मैं खुद भी थी).
यूपी के उप मुख्यमंत्री के लौटने की खबर के बाद किसान शांत भाव से बिना नारे लगाते धीमी चाल से लौट रहे थे, जब तेजी से आती थार गाड़ी ने उन्हें टक्कर मारी और रौंदते हुए निकल गई. उसके पीछे तीन और गाड़ियों ने भी ऐसा ही किया. कोई यूं गाड़ियों को दौड़ा भी नहीं रहा था. आखिर फिर अकेले जज साहब को ही वह क्यों दिखा जो किसी को नहीं दिखा ? ऐसा लगता है वे जमानत नहीं दे रहे थे, बल्कि मुकदमे का फैसला ही सुना रहे थे.
वे आशीष मिश्रा को बरी करने तक ही नहीं रुके, उन्होंने सरकार और पुलिस की लाइन पर ही चलते हुए घटना के बाद गुस्साए किसानों की कारवाही से आशीष मिश्रा के कुकृत्य को बराबर करने का भी प्रयास अपने आदेश में कर डाला. मामला आशीष के आरोप का था, लेकिन न्यायमूर्ति ने आदेश में लिखा कि ‘गाड़ी में बैठे चार लोगों की हत्या करने में किसानों ने बहुत क्रूरता का परिचय दिया.’ आदेश के अंत में धारा 144 लगे होने के बावजूद किसानों के प्रदर्शन तक पर सवाल उठाया, और पुलिस अधिकारियों को ऐसे मामलों में सख्ती से निपटने की बात भी लिख डाली.
पूरे आदेश को पढ़कर ऐसा लगता है जैसे किसान ही अपराधी थे. आशीष मिश्रा और उसके साथी उनके बीच फंस गए थे. अगर खुद ‘टेनी महराज’ को यह आदेश लिखने को दिया जाता, तो वो ऐसा ही आदेश लिखते. जांच तो इसकी भी होनी चाहिए कि इस फैसले को 3 सप्ताह तक रिजर्व क्यों रखा गया ? माननीय चीफ जस्टिस इलाहाबाद हाई कोर्ट को इसकी जांच करनी चाहिए कि जमानत के मामले में आर्डर रिजर्व करने के लगभग एक महीने बाद ऑर्डर पास करने का मकसद क्या था ?
न्यायपालिका का पारदर्शी होना बहुत जरूरी है. न्याय का सिद्धांत ही है कि ‘न्याय होना ही ज़रूरी नहीं है, न्याय होता हुआ दिखना भी ज़रूरी है.’ इस मामले में न्याय होता हुआ भी नहीं दिख रहा, बल्कि अन्याय का सिलसिला चलता ही जा रहा है क्योंकि आरोपी पक्ष खुद मुंसिफ के बगल में आसन जमाए बैठा है.
लखीमपुर खीरी कांड में मारे गए लोगों को न्याय मिलने की शुरुआत तभी होगी जबकि गृह मंत्रालय में बैठे अजय मिश्रा को बर्खास्त किया जाय और उनके ऊपर भी आपराधिक षडयंत्र का मुकदमा दायर किया जाय. इस बात के भी कई चश्मदीद गवाह है और यह वीडियो भी सबके बीच आ चुका है, जिसमें अजय मिश्रा किसानों से बदला लेने की बात कह रहे है, फिर आखिर उन पर मुकदमा क्यों नहीं कायम किया जा रहा ?
आशीष मिश्रा की इस जमानत आदेश में लिखी बातें न्याय के लिहाज से बेहद आपत्तिजनक और पक्षपातपूर्ण है. यह इस मुकदमे की दिशा तय कर देता है और आरोपी को छूटने का रास्ता दे देता है, इस आदेश को खारिज किए जाने की ज़रूरत है.
यह न्याय नहीं सरासर अन्याय है. यह भारत की न्यायपालिका पर सवाल खड़े करता है, जो सैकड़ों सामाजिक कार्यकर्ताओं के जमानत के अधिकार का दमन कर रही है, लेकिन एक मंत्री पुत्र को बचाने के लिए जमानत आदेश में ही बरी होने का आदेश भी लिख दे रही है, और पीड़ितों को अपराधी घोषित कर रही है.
रितेश विद्यार्थी लिखते हैं, ‘कैसी न्यापालिका ? कैसा लोकतंत्र ? जिस वर्ग का संपत्ति और संसाधनों पर कब्जा होता है, राज्य मशीनरी, न्यापालिका, शिक्षा, संस्कृति, मीडिया सब उसी वर्ग की सेवा करते हैं. एक ही रास्ता है, जनता को स्वयं अपनी अदालत लगाकर फैसला देना चाहिए.
- सीमा आजाद
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