प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग संस्थाओं में प्रवेश की अखिल भारतीय परीक्षा ‘जी’ में वास्तव में शामिल परीक्षार्थियों के आंकड़े दिखाने के लिए काफी हैं कि इन महत्वपूर्ण परीक्षाओं के टाले जाने की मांग करने वालों की आशंकाएं सही थी. छात्रों‚ अभिभावकों तथा नागरिकों की आशंकाएं‚ जिन्हें अनेक राज्य सरकारों ने भी उठाया था और कम से कम छह राज्य सरकारों ने इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में इन्हें अभी कराने के पक्ष में उसके निर्णय पर पुनर्विचार याचिका भी लगाई थी‚ इस बात से जुड़ी थीं कि इस समय जबकि कोविड–19 का प्रकोप जोरों पर है और उससे निपटने के लिए सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था पर लगाई गई रोकें बनी हुई हैं‚ देशभर में कुछ सौ केंद्रों पर ही कराई जाने वाली परीक्षा आम तौर पर वंचितों के लिए अतिरिक्त रूप से कड़ी परीक्षा साबित होगी.
इस परीक्षा में ग्रामीण व छोटे कस्बों और दूर–दराज के इलाकों में रहने वाले और आर्थिक–सामाजिक रूप से कमजोर छात्रों की बड़ी संख्या को परीक्षा के मौके से ही बाहर छोड़ दिए जाने के आसार थे. सरकार की ओर से भरोसा तो दिलाया गया कि न सिर्फ परीक्षाएं छात्रों की कोरोना से सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए कराई जाएंगी‚ बल्कि उन्हें अपनी जगहों से परीक्षा केंद्रों तक पहुंचाने की भी व्यवस्थाएं की जाएंगी. लेकिन जैसा कि होना था सारे आश्वासन‚ आश्वासन ही रह गए. ऐसे छात्र ही परीक्षा में पहुंच सके जो या तो बड़े शहरों में रहते थे या परीक्षा केंद्रों तक पहुंचने का‚ और इसके लिए शहरों में रुकने का भी‚ निजी इंतजाम करने में समर्थ थे. नतीजा वही हुआ‚ जो होना था.
सितम्बर के शुरू में हर रोज दो शिफ्ट के हिसाब से छह दिन में कुल 12 शिफ्टों में हुई परीक्षा में पहले दिन सिर्फ 51 फीसद प्रतिभागी शामिल हुए. बाद में इस अनुपात में कुछ सुधार हुआ बताते हैं. खुद भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने इन परीक्षाओं को ‘राष्ट्र के लिए कलंक’ करार देते हुए दावा किया कि जी–मेन परीक्षा के लिए रजिस्टर कराने वाले 18 लाख छात्र–उम्मीदवारों में से सिर्फ 8 लाख परीक्षा में बैठे थे. बाद में शिक्षा मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों से स्वामी का आधे से कम छात्रों के इस परीक्षा में बैठने का दावा भले ही अतिरंजित लगे, पर वंचित तबकों के प्रति संवेदनशील किसी भी व्यक्ति के लिए इन परीक्षाओं के ‘राष्ट्र के लिए कलंक’ होने के उनके चरित्रांकन से असहमत होना मुश्किल होगा.
आखिरकार‚ खुद सरकार के आंकड़ों के अनुसार 26 फीसद छात्र परीक्षाओं में शामिल नहीं हो पाए हैं. कुल 8 लाख 58 हजार छात्रों को परीक्षा में बैठना था‚ जिनमें से 6 लाख 35 हजार यानी 74 फीसद छात्र ही परीक्षा में बैठ पाए. जाहिर है कि यह हर लिहाज से असामान्य स्थिति को दिखाता है. इसी साल जनवरी में इसी परीक्षा के पहले चक्र में पूरे 94.32 फीसद छात्रों ने हिस्सा लिया था. पिछले साल भी‚ जब से साल में दो बार ये परीक्षाएं आयोजित करना शुरू हुआ था‚ जनवरी की परीक्षा में उपस्थिति 94.11 फीसद और अप्रैल में हुई परीक्षा में‚ 94.15 फीसद रही थी. इसका सीधा सा अर्थ है कि कम से कम 20 फीसद छात्रों को कोरोना के भारी प्रकोप के बीच ही परीक्षा कराने की सरकार की जिद ने परीक्षा से जुड़े आगे पढ़ने के मौके से ही वंचित कर दिया.
कह सकते हैं कि सब कुछ सामान्य दिखाने की हड़बड़ी में सरकार ने परवाह ही नहीं की कि इस तरह वह कम से कम 20 फीसद को पीछे छोड़कर आगे बढ़ रही है. सब कुछ सामने आ जाने के बाद भी निशंक अगर निशंक हैं‚ तो इसीलिए कि वंचितों के इस तरह छूट जाने या बाहर कर दिए जाने की उन्हें परवाह ही नहीं है. यह विचारधारात्मक पूर्वाग्रह का मामला है‚ जो हिंदुत्ववादी विचार में मूलबद्ध सवर्ण श्रेष्ठता‚ पुरुष श्रेष्ठता‚ हिंदू श्रेष्ठता और धन–सत्तावान श्रेष्ठता के मूल्यों से निकलता है. यह पूर्वाग्रह वंचितों की अलग से चिंता करने के प्रति बुनियादी शत्रुभाव रखता है. यह शत्रुभाव वंचितों के आरक्षण के हरेक प्रावधान‚ हाशिए पर पड़े तबकों के पक्ष में सकारात्मक हस्तक्षेप की हरेक मांग‚ के खिलाफ खड़ा होता है.
अक्सर यह शत्रुभाव मैरिट या शुद्ध योग्यता के पैमाने की दलील के रूप में सामने आता है‚ हालांकि यह भी है एक सुविधा की दलील ही‚ कोई बुनियादी मूल्य नहीं. तभी तो यह दलील देने वालों को आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए‚ शिक्षा व नौकरियों में 10 फीसद आरक्षण के मोदी सरकार के कदम का लपक कर स्वागत करने में जरा-सी हिचक नहीं हुई लेकिन इसके बाद भी वंचितों के लिए आरक्षण या सकारात्मक प्रावधानों के प्रति उनके विरोध में कोई कमी नहीं आई है. वे जानते हैं कि इन सकारात्मक प्रावधानों को खत्म या भोथरा करने की ही जरूरत है‚ वंचितों को ज्यादा से ज्यादा बाहर करने का काम तो‚ मौजूदा व्यवस्था खुद ब खुद कर देगी.
भारत की विविधतापूर्ण सामाजिक–राजनीतिक व्यवस्था में‚ तथाकथित मैरिट की दलील की आड़ में भी‚ वंचितों को इस तरह बाहर रखना आसान नहीं है. आजादी की लड़ाई की जनतांत्रिक परंपरा और उससे निकले संविधान तथा आरक्षण जैसे प्रावधानों के चलते यह और भी मुश्किल है लेकिन भाजपा और उसके राज के लिए तो यह उनके स्वभाव या प्रकृति का ही मामला है. संवैधानिक व्यवस्थाओं की मजबूरी या कार्यनीतिक कारणों से ऐलानिया चाहे यह नहीं किया जा सकता हो‚ फिर भी मौजूदा राज में भीतर ही भीतर इन व्यवस्थाओं को खोखला किया जा रहा है‚ जिसकी अभिव्यक्ति जब–तब पदोन्नति में आरक्षण‚ अनुसूचित जाति–जनजाति अत्याचार निवारण कानून‚ निजी क्षेत्र में नौकरियों में आरक्षण‚ उच्च न्यायापालिका व एकेडिमिया समेत उच्च पदों पर आरक्षण और आम तौर पर चुनावों में आरक्षण के विरोध/विवादों में होती रहती है.
इस सब के अलावा मोदी राज में आम तौर पर बढ़ता केंद्रीयकरण और खास तौर पर शिक्षा के मामले में तथा उसमें भी विभिन्न प्रोफेशनल कोर्स में दाखिलों में बढ़ता केंद्रीयकरण‚ वंचित इलाकों समेत तमाम वंचितों को ज्यादा से ज्यादा बाहर रखे जाने का महत्वपूर्ण औजार बन गया है. जी और नीट जैसी केंद्रीयकृत अखिल भारतीय परीक्षाएं‚ सबसे बढ़कर इसी का साधन हैं इसीलिए मोदी सरकार का इन परीक्षाओं पर विशेष मोह है. प्रसंगतः याद दिलाना अप्रासांगिक नहीं होगा कि ‘जी’ के बाद १२ सितम्बर से शुरू हुई ‘नीट’ परीक्षा से पहले ही तमिलनाडु से चार अभ्यर्थियों के आत्महत्या करने की खबर आ चुकी थी. बहरहाल‚ शिक्षा के क्षेत्र में वंचितों को बाहर करने की और आगे की तैयारी के तौर पर‚ कोविड महामारी के बीच ही मोदी सरकार ने संसद तक में चर्चा के बिना‚ देश पर नई शिक्षा नीति थोप दी है.
- राजेन्द्र शर्मा
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