आज एक लेख पढ़ रहा था जो अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रम्प की जीत की संभावनाओं के विषय पर था. उसमें कहा गया था कि ‘अज्ञानता के साथ जब ताकत मिल जाती है तो न्याय के लिए सबसे बड़ा खतरा खड़ा हो जाता है.’ यहां आज हम सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय की बात नहीं करेंगे. आज हम अदालतों में मिलने वाले न्याय की बात करेंगे. मैं आपको न्यायशास्त्र के बड़े सिद्धांत नहीं समझाऊंगा. मैं आज आपके साथ अपने व्यक्तिगत अनुभव साझा करूंगा.
एक बार मनमोहन सिंह और चिदम्बरम नें अपने एक बयान में कहा था कि ‘माओवादी अदालतों का सहारा ले रहे हैं.’ यह बात उन्होंने तब कही थी जब हम छत्तीसगढ़ में सोलह आदिवासियों की हत्या का मुकदमा लेकर सुप्रीम कोर्ट में आये थे. इन सोलह आदिवासियों की हत्या सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन के सिपाहियों ने की थी. यानी बंदूक चलाना, बम फोडने को सरकार आपत्तिजनक और अलोकतांत्रिक हरकत माने तो यह बात हमें समझ में आती है. लेकिन किसी का अदालत में न्याय की मांग करना करना कैसे माओवाद हो सकता है ? या आप मानते हैं कि किसी को आपके खिलाफ़ अदालत में जाने का भी अधिकार नहीं है ? खैर वो मुकदमा आज सात साल से लटका हुआ है.
सुकमा ज़िले के नेंद्रा गांव की दो लड़कियों को पुलिस वाले उठा कर ले गए थे. एक लड़की के पिता को भी साथ में ले गए थे. लड़की के पिता की गर्दन काट कर पुलिस कैम्प के सामने रख दी गयी. लेकिन दोनों लडकियां कहां हैं, इसका पता नहीं चल रहा था.
हमने इन लड़कियों के भाइयों की तरफ से छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में हेबियस कार्पस की अर्जी दायर करवाई. इसमें पुलिस द्वारा ले जाए गए व्यक्ति को अदालत में पेश करने के लिए मांग की जाती है. जब दोनों लड़कियों के भाइयों ने अदालत में अर्जी लगाईं तो पुलिस नें दोनों भाइयों का भी अपहरण कर लिया. पुलिस ने इन भाइयों को मार-पीट कर अदालत में पेश कर दिया. इन दोनों भाइयों के वकील ने कोर्ट में कहा कि ‘ये दोनों लड़के मेरे मुवक्किल हैं. इन्हें कोर्ट में जो कहना होगा ये मेरे मार्फ़त कहेंगे.’
पुलिस तो इस मामले में आरोपी है क्योंकि लड़कियों को गायब करने का आरोप तो पुलिस पर ही है और आरोपी प्रार्थी को अदालत में कैसे पेश कर सकता है ? इस पर जज साहब ने वकील को धमकाया और कहा कि ‘अगर आपने इस तरह अदालत के सामने बात की तो आपका कैरियर खराब हो सकता है. यानी जज अपनी कुर्सी पर बैठ कर अपहरण करने वाले पुलिस अधिकारियों का बचाव कर रहा था.
जज ने उन् लड़कों से लिखवा लिया कि ‘हमारी बहनों के अपहरण के मामले में हमें पुलिस पर शक नहीं है.’ और जज ने दोनों लड़कियों का पुलिस द्वारा अपहरण का वो मुकदमा तुरंत खारिज कर दिया.
सोनी सोरी को थाने में निवस्त्र किया गया. सोनी सोरी को बिजली के झटके दिए गए. इसके बाद सोनी सोरी के गुप्तांगों में पत्थर भर दिए गए. सोनी सोरी नें बताया कि उसके साथ यह सब पुलिस अधीक्षक अंकित गर्ग की मौजूदगी में और उसके आदेश पर किया गया. अब भारत का कानून क्या कहता है ?
कानून कहता है कि अगर आप पर कोई हमला करता है तो आप थाने जायेंगे और एक शिकायत दर्ज करवाएंगे. पुलिस आपका डाक्टरी परीक्षण करवायेगी और आरोपी को गिरफ्तार करके अदालत में पेश करेगी. और अगर पुलिस आपकी शिकायत ना दर्ज करे तो आप अदालत में अपनी शिकायत दर्ज करवा सकते हैं. सोनी सोरी ने सुप्रीम कोर्ट को चिट्ठी लिखी कि ‘मेरे ऊपर इस तरह से थाने के भीतर हमला किया गया है.’ सोनी सोरी का मेडिकल परीक्षण कराया गया. मेडिकल कालेज ने सोनी के शरीर से पत्थर निकाल कर सुप्रीम कोर्ट को भेज दिए. सोनी का आरोप सत्य साबित हो रहा था. सुप्रीम कोर्ट को भारत के कानून का पालन करना चाहिये था. सुप्रीम कोर्ट को पुलिस को आदेश देना चाहिये कि ‘आरोपी पुलिस अधीक्षक के खिलाफ़ रिपोर्ट लिखी जाय और उसके खिलाफ़ मुकदमा चलाया जाय.’ लेकिन आज चार साल बाद तक सुप्रीम कोर्ट की हिम्मत नहीं हुई है कि वह आरोपी पुलिस अधिकारी के खिलाफ़ कार्यवाही करने का आदेश दे सके. और तो और डर के मारे सुप्रीम कोर्ट इस मामले की सुनवाई ही नहीं कर रहा.
छत्तीसगढ़ में जेलों में आपको ऐसे आदिवासी मिलेंगे जिहें इन आरोपों में जेल में डाला गया है कि इनके पास से चावल बनाने का बड़ा भगौना मिला और पुलिस का मानना है कि बड़ा भगौना नक्सलवादियों के लिए खाना बनाने के लिए होता है. हालांकि आदिवासी जब भी सामूहिक त्यौहार मनाते हैं तब वे लोग एक साथ चावल बनाते हैं और उनकी अपनी पंचायत के पास बड़े भगौने होते हैं. लेकिन जेलों में तीन-तीन साल से आदिवासी पड़े हुए हैं क्योंकि उनके पास से पुलिस को बड़े भगौने मिले. कोई इन आदिवासियों को न्याय नहीं दिला पा रहा है क्योंकि इन आदिवासियों के लिए लिखने वाले चार पत्रकारों को छत्तीसगढ़ सरकार नें जेल में डाल दिया है. इन आदिवासियों को मुफ्त सहायता देने वाली महिला वकीलों को बस्तर छोड़ कर जाने के लिए मजबूर कर दिया गया है.
आयता नामक एक आदिवासी युवक को पुलिस ने वोटिंग मशीनें लूटने के फर्ज़ी आरोप में जेल में डाला. अदालत नें आयता को निर्दोष माना और उसे रिहा कर दिया. आयता आदिवासियों के लिए आवाज़ उठाता रहा. पुलिस ने दोबारा आयता को पकड़ कर फिर से वोटिंग मशीनें लूटने के फर्ज़ी आरोप में जेल में जेल में डाल दिया. अदालत ने दुबारा निर्दोष आयता को रिहा कर दिया. इसी महीने पुलिस ने तीसरी बार फिर से आयता को पकड़ कर जेल में डाल दिया है और उस पर वही पुराना आरोप लगाया है कि इसने वोटिंग मशीनें लूटी हैं. यानी एक ही व्यक्ति पर तीन बार वही आरोप.
इसी तरह कांकेर जेल में पदमा आठ साल से बंद है. पदमा को कोर्ट ने दो बार रिहा किया है. पहली बार पुलिस ने पदमा को पदमा पत्नी बालकिशन के नाम से जेल में डाला. अदालत ने सन 2009 में पदमा को रिहा करने का आदेश दिया. लेकिन पुलिस ने पदमा को नहीं छोड़ा बल्कि इस बार पदमा को पदमा पत्नी राजन के नाम से जेल में डाल दिया. अदालत ने दुबारा पदमा को रिहा करने के लिए 2012 में आदेश दिया. लेकिन पुलिस ने उसे रिहा नहीं किया. इस बार पुलिस ने पदमा को पदमा पत्नी नामालूम, गांव नामालूम के नाम से पकड़ कर जेल में डाला हुआ है लेकिन एक जज ने पुलिस द्वारा इस तरह निर्दोषों को फंसाए जाने पर आपत्ति की. सुकमा ज़िले में प्रभाकर ग्वाल नामक एक दलित जज ने पुलिस की हरकतों पर आपत्ति की.
निर्दोष आदिवासियों को पुलिस वाले अपनी तरक्की और नगद इनाम के लिए जेलों में डालते हैं. जज प्रभाकर ग्वाल ने इस सब पर आपत्ति की. इस पर पुलिस वालों ने हाई कोर्ट को इन जज साहब के खिलाफ़ शिकायत भेज दी. हाई कोर्ट ने जज साहब को नौकरी से निकाल दिया. यानी अगर आप पुलिस और सरकार के अन्याय में शामिल होंगे तभी आप जज बने रह सकते हैं. अगर आपनें कानून की किताबों के अनुसार न्याय करने की कोशिश की तो आपको निकाल कर बाहर कर दिया जाएगा. मेरे पास अन्याय के ढेरों अनुभव हैं. न्याय के लिए लड़ाई की ज़रूरत इन्हीं अनुभवों से पैदा होती है.
(हिमांशु कुमार, यह आलेख 3 जुलाई, 2016 को लिखी गई थी, पर आज भी समीचीन है.)
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